डियर जिंदगी : हमारी भाषा में 'नीम' का घुल जाना...
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डियर जिंदगी : हमारी भाषा में 'नीम' का घुल जाना...

डियर जिंदगी : हमारी भाषा में 'नीम' का घुल जाना...

हमारे गांव में बड़े-बूढ़े कहते हैं, घर में दो पेड़ होने ही चाहिए. आम और नीम का. आम का इसलिए ताकि जिंदगी में स्‍वाद बना रहे. नीम का इसलिए क्‍योंकि वह बीमारियों से दूर रखने, उनसे लड़ने में मदद करता है. शायद, इसलिए गांव में यह दो पेड़ सबसे अधिक हैं. बल्कि घर-घर में हैं. भाषा से व्‍यवहार का बहुत हद तक अंदाजा मिल जाता है. हमारी सोच, समझ और सरोकार भाषा से व्‍यक्‍त हो जाते हैं. इस समय समाज के सामने सबसे बड़ा प्रश्‍न, बढ़ती हिंसा और एक-दूसरे के प्रति द्वेष है. हम असहमति के प्रति इतने अनुदार कैसे हो सकते हैं. हमें किसी की हत्‍या पर गुस्‍सा नहीं आता. किसी की हत्‍या हमारे दिमाग में खलबली नहीं मचाती! हम संवेदना के स्‍तर पर खाली और भाषा के लिहाज से आक्रामक, रूखे होते जा रहे हैं.

एक-दूसरे से बातचीत में उसे सुनना तो कम हुआ ही है, इसके साथ ही दूसरे को बर्दाश्‍त करने का सहज गुण खत्‍म-सा हो गया है. मैं आपसे असहमत हो सकता हूं, लेकिन क्‍या इससे आपको मेरे प्रति हिंसा का अधिकार मिल जाता है. गौरी लंकेश की हत्‍या ने एक बार फि‍र उस समाज की कलई खोलने का काम किया है, जो खुद को महिलाओं के पक्ष, उनके प्रति आदर दिखाता हुआ तो दिखना चाहता है, लेकिन उनके विचारों पर सवाल सहने को बर्दाश्‍त नहीं है. कोई भी धर्म, कोई भी विचार अपने भीतर इतनी हिंसा भर ले कि दूसरे के लिए उसमें कोई जगह न रहे, तो उसके साथ गुजारा कैसे होगा. गौरी की हत्‍या के बाद सोशल मीडिया में ऐसे लोगों की फौज खड़ी हो गई जो इसे सही ठहरा रहे थे. एक हत्‍या को कुतर्क से जायज ठहराने की मानसिकता हमारे समाज में वैज्ञानिक सोच के निम्‍न स्‍तर की ओर जाने का भी संकेत दे रही है.

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सोशल मीडिया पर जिस तरह के अपशब्‍द, गालियों का उपयोग गौरी के लिए हुआ, क्‍या उसे उन लोगों के परिवार, दोस्‍तों, महिलाओं ने भी पढ़ा होगा, जिसने यह सब लिखा था. कैसे एक बहन, मां, अपने भाई/बेटे को दूसरी स्‍त्री को गालियां देते हुए सहन कर लेती है. उस वक्‍त उसके दिमाग में कोई प्रतिकार नहीं गूंजता. जिनने गौरी को सरेआम गालियां दी हैं, उनके घर पर क्‍यों न प्रदर्शन किया जाए. क्यों न उनका सामाजिक बहिष्‍कार किया जाए. कानून तो अपना काम करेगा, लेकिन समाज का चुप रहना भी उतना ही घातक है. समाज की चुप्पी हिंसा की स्वीकृति न समझ ली जाए इसके लिए मौन का टूटना जरूरी है.

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शायद, इससे उनकी भाषा और व्‍यवहार पर असर पड़े. उनके सोचने, समझने और दूसरे के प्रति आचरण बदले. हर दूसरी बात में महिलाओं के सम्‍मान की दुहाई देने वाले देश में हर दूसरी गाली मां और बहन की देते हुए हम कैसे बच्चियों और स्त्रियों के सम्‍मानित रहने की बात कर सकते हैं! भाषा, विचारों की नदी है. अगर उसमें प्रदूषण है, तो इसके खतरे जितने दिख रहे हैं, उससे कहीं अधिक गहरे हैं.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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