डियर जिंदगी : खुद के कितने पास हैं, हम!
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डियर जिंदगी : खुद के कितने पास हैं, हम!

हमारे बच्‍चों का मनोविज्ञान बड़ों की पकड़ से हर दिन दूर होता जा रहा है. ऐसा लगता है, मानो पेड़ धीरे-धीरे जड़ से ही दूर हो रहा है.

डियर जिंदगी :  खुद के कितने पास हैं, हम!

सुनने में बात थोड़ी अटपटी लग सकती है. इसमें नया क्‍या है. सब अपने से प्रेम करते हैं. कुछ तो अपने से प्रेम में डूबे रहते हैं. लेकिन ज़रा ठहकर सोचिए. अब यह बातें कुछ पुरानी सी लगने लगी हैं. हमारे विचार, चिंतन शैली पर सुकून से अधिक बाज़ार/ज़रूरतें हावी होती जा रही हैं. आप अपने किसी भी नज़दीकी को सैंपल के तौर पर चुन लीजिए. बहुत नहीं उनसे केवल तीन-तीन महीने के अंतर पर बात करते रहिए. आप आसानी से समझ जाएंगे कि उनकी चिंतन प्रक्रिया का केंद्र निरंतर बदल रहा है. इस बदलाव में उनका अंतर्मन कहीं नहीं है. जीवन की गुणवत्‍ता कहीं नहीं है. सारा ज़ोर बस इस बात पर दिखेगा कि मेरे पास क्‍या है? हमारे बच्‍चों का मनोविज्ञान बड़ों की पकड़ से हर दिन दूर होता जा रहा है. ऐसा लगता है, मानो पेड़ धीरे-धीरे जड़ से ही दूर हो रहा है.

हमारे एक मित्र हैं. दूसरों से ख़ूब बातें करते हैं. बेइंतहा बातें. बातें ही बातें. लेकिन घर वाले परेशान हैं कि हमसे तो बात ही नहीं करते. असल में वह अक्‍सर मोबाइल पर बात करते पाए जाते हैं. वह भूल ही गए हैं कि घर पर बच्‍चों के पास फोन नहीं है. पत्‍नी उनसे फोन पर नहीं, आमने-सामने बात करना चाहती हैं. वह दूसरों की फिटनेस का खूब ख़्याल रखते हैं. दूसरों को चेतावनी देते रहते हैं, देखो तुम्‍हारा पेट निकल रहा है. देखो तुम आदतों में बदलाव ले आओ. वह मित्रों में खूब लोकप्रिय हैं. ऑफिस में भी लोकप्रियता के मामले में सुपरहिट हैं. इतने ज़्यादा कि अपने बारे में सोचने,‍ विचार करने का ख़्याल ही नहीं. बच्‍चों के लिए वह सारे साधन उपलब्‍ध करवाने को ही अपना कर्तव्‍य पूरे करने से जोड़ देते हैं.

डियर जिंदगी : आ अब लौट चलें…

इस तरह वह केवल अपने से ही नहीं कट रहे हैं, बल्‍कि 'अपनों' से भी कट रहे हैं. अब सवाल यह है कि वह किससे प्रेम करते हैं. उनकी लोकप्रियता एक ऐसे व्‍यक्ति के रूप में है, जो लोगों से स्‍नेह रखता है. उनका ख़्याल रखता है. लेकिन अपने और अपनों के प्रति उनका रवैया मानो किसी दूसरी दुनिया के व्‍यक्ति की तरह है. ख़ुद से इस तरह का अलगाव कई बार स्‍थायी दूरी का भी कारण बन जाता है.

मोबाइल, गैजेट्स ने हमारी जिस सबसे क़ीमती चीज़ पर कब्‍ज़ा किया है, वह है 'समय और सुकून.' हमारा न केवल समय कम हुआ है, बल्कि ज़िंदगी से इत्‍मिनान, सुकून ग़ायब हो गया. हर वक्‍त हम किसी बाहरी आहट की प्रतीक्षा में हैं. यह बाहरी आहट कभी मोबाइल है, तो कभी फ़ेसबुक का लाइक. इनको ही हमने अपने होने से जोड़ दिया है. इनसे ही हम ख़ुद को मान्‍यता देने लगे हैं. लोग हमारे बारे में क्‍या कहते हैं, इसे हमने अपने होने से सीधे तौर पर जोड़ दिया है. इसलिए हम बाहरी मान्‍यता को ही असली प्रेम, स्‍नेह समझ बैठे हैं. जबकि अंत में लौटना हमें अपने पास ही है. जो अंतर्मन से जितना दूर निकल गया, असल में उसके भटकने, उलझने की आशंका उतनी ही गहरी है. दूसरे किसी के पास होने से कहीं अधिक अच्‍छा अपने पास होना है.

डियर जिंदगी : हमारी 'अनचाही' सोच

'डियर ज़िंदगी' को संभवत: पहली बार एक बच्‍चे ने अपने परिवार के बारे में कुछ लिखा है. इस बच्‍चे ने लिखा है, 'पिता एक मल्‍टीनेशनल कंपनी में बढ़िया पद पर हैं. स्‍वस्‍थ हैं, युवा हैं. परिवार से प्रेम करने वाले हैं. मित्रों और उनके कामकाज से जु़ड़े लोगों में उनकी प्रतिष्‍ठा है. लेकिन मां के मुकाबले उनका रंग सांवला है. मां के अनुसार उनकी जोड़ी 'ठीक' नहीं है. पहले हमने देखा कि इन बातों का असर नहीं होता था. लेकिन धीरे-धीरे पापा ने इसे गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. इसका असर यह हुआ कि उन्‍होंने अपनी अनदेखी कर दी. उन्‍हें लगने लगा कि वह परिवार के लिए मूल्‍यवान नहीं हैं. उन्‍होंने अचानक अपना समय हमारे लिए कम कर दिया. मैं ऐसा चाहता नहीं था, लेकिन ख़ुद को बेहतर मानने के उनके रवैए से हमारे अच्‍छे भले संसार में कैक्‍टस आ गए.'

आपको नहीं लगता कि इस तरह के कथित सौंदर्यबोध/अहंकार बेहद आम हैं. हम अपने सहज, सुलभ का मोल नहीं जानते. जो नहीं है, उसे अनमोल समझते हैं और जो है, उसे इतना साधारण कि उसकी कद्र ही नहीं करते. देश में तेज़ी से बिखरते रिश्‍तों, तनाव और अवसाद का यह एक बड़ा कारण है. कस्‍तूरी की तलाश में निकलना बुरा नहीं है, अगर पहले यह तय हो कि वह आपके पास नहीं है!

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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