डियर जिंदगी : हमारी 'अनचाही' सोच
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डियर जिंदगी : हमारी 'अनचाही' सोच

नागरिक आजादी, समानता के मामलों में जितनी जड़ता अनपढ़ और ग्रामीण समाज में है. उतना ही दुराग्रह साक्षर और शहरी समाज में है. हम साक्षर हैं, इसके मायने यह नहीं कि हम शिक्षि‍त भी हैं. शिक्षा , साक्षरता में वही अंतर है, जो रात और दिन में ,जमीन और आसमां में है.

 

डियर जिंदगी :  हमारी 'अनचाही' सोच

'कन्‍याभोज' के दिनों में मंदसौर से बेटियों का नाम 'अनचाही' रखने की खबर यह बताने के लिए पर्याप्‍त है कि एक समाज के रूप में हम स्‍त्री-पुरुष समानता से कितने 'प्रकाशवर्ष' दूर हैं.  बेटों की लालसा की खबरों से गूगल लबालब है. बेटियों को मनहूस, कमतर मानने वालों के किस्‍से भी कम नहीं हैं. लेकिन एक पिता, परिवार अपनी बेटी का नाम ही अनचाही रख दे. अनचाही बीएससी प्रथम वर्ष की छात्रा है. सोचिए, अब तक उसका कितना मजाक उड़ाया गया होगा. इतना ही नहीं इस पिता की देखादेखी इसी गांव में एक दूसरे परिवार ने भी अपनी बेटी का नाम अनचाही रख दिया. वह छठवीं कक्षा की छात्रा है.

इस 'प्रगतिशील' गांव में मौजूद जनता, सरकारी महकमे और पंचायत का ध्‍यान कभी इस ओर न जाना यह बताता है कि किसी को भी मोटे तौर पर खटका नहीं. दोनों की बेटियों के पिता का कहना है कि उन्‍होंने यह नाम इसलिए रखा ताकि बेटे की चाहत पूरी हो सके. इसके मायने यह भी हैं कि बेटे की इच्‍छा कितनी प्रबल है. मप्र में 'लाड़ली लक्ष्‍मी' जैसी योजनाओं के गांव-गांव तक प्रसार के बाद भी हमारी सोच के दरवाजे कितने बंद हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है.

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लड़कियों को लेकर भारतीय समाज के दोगलेपन और पाखंड के दो रूप हैं. पहला है, जिसमें सार्वजनिक जीवन में एक आडंबर का निर्माण किया गया है कि हमने बराबरी का हक दे दिया है. हम बराबर हैं. दूसरा है, निजी जीवन. जिसमें घर की खिड़कियों, सुराखों तक को यह इजाजत नहीं कि वह समानता के सवाल पर विचार भी कर सकें. इस मामले में शिक्षा का प्रदर्शन एकदम निराशाजनक है.

नागरिक आजादी, समानता के मामलों में जितनी कट्टरता अनपढ़ और ग्रामीण समाज में है. उतना ही दुराग्रह साक्षर और शहरी समाज में भी है. हम साक्षर हैं, इसके मायने यह नहीं कि हम शिक्षि‍त भी हैं. शिक्षा, साक्षरता में वही अंतर है, जो रात और दिन में, जमीन और आसमां में है. 

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साक्षरता का संबंध केवल जानकारी से है. साक्षरता एक परिचय है, शब्‍दों से, उनके उपयोग से. जबकि शिक्षा एक किस्‍म का संस्‍कार है. उसका संबंध, उदार, सृजनशील, समावेशी, मनुष्‍य और मनुष्‍यता में यकीन होने से अधिक है, बजाए अक्षरों से परिचय के. मुझे बहुत कम ऐसे लोग मिले जो शिक्षा का अर्थ जानते हैं. शिक्षित हैं, हालांकि साक्षर नहीं हैं. लेकिन ऐसे लोग बड़ी संख्‍या में मिलते हैं, जो साक्षर तो हैं, लेकिन अनपढ़ हैं, शिक्षित नहीं हैं.

अपनी बेटियों का नाम अनचाही रखने वाला समाज असल में केवल साक्षर है. उसे शिक्षित, सभ्‍य कहना, उसके साथ ही अन्‍याय होगा. इस खबर को अगर आप केवल यह कहकर खारिज कर रहे हैं कि यह बस गांव की समस्‍या है, तो और भी बड़ी गलती कर रहे हैं.

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मुझे बेहद दुख होता है, जब बड़े से बड़े धनवान, कथि‍त रूप से शिक्षित लेकिन भारी रूप से साक्षर लोग महिला, पत्‍नी के प्रति एकदम संकुचित दृष्टिकोण के साथ मिलते हैं. उनके दिमाग में महिलाओं की भूमिका अनचाही बेटियों के पिता जैसी ही है. अनचाही के पिता तो गरीब हैं, हो सकता है, उन्होंने दुनिया भी बहुत अधिक न देखी हो. लेकिन यह जो दुनिया देखे लोगों की समझ है, जो महिलाओं को केवल किचन,  घर की चाहरदीवारी तक देखना चाहते हैं, वह कहीं अधिक खतरनाक है.

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'अनचाही' के नाम पर मत जाइए, यह तो एक विचार है, जो समाज के दिल में घर किए बैठा है. एक ओर हम चांद पर जाने के लिए पांव उठाए हैं, तो हमारा दूसरा पांव बेटियों के हक, अधिकार पर मिट्टी डालने में लगा है. यह अकेले मंदसौर का संकट नहीं है. अपने आसपास ऐसे लोगों की पहचान कीजिए, अगर संभव हो तो उनसे संवाद कीजिए, इससे ही हम बेटियों को बचा पाएंगे. दूसरा कोई रास्‍ता नहीं है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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