डियर जिंदगी : बच्‍चे, कहानी और सपने…
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डियर जिंदगी : बच्‍चे, कहानी और सपने…

‘कहानी खत्‍म हो गई है, क्‍या! कहीं मिलती नहीं. बच्‍चे जिद करते हैं कि कहानी सुनाओ, लेकिन हम तो सारी कहानियां भूल गए हैं, बच्‍चों को कहां से सुनाएं.’

डियर जिंदगी : बच्‍चे, कहानी और सपने…

‘कहानी खत्‍म हो गई है, क्‍या! कहीं मिलती नहीं. बच्‍चे जिद करते हैं कि कहानी सुनाओ, लेकिन हम तो सारी कहानियां भूल गए हैं, बच्‍चों को कहां से सुनाएं.’

छत्‍तीसगढ़ के रायपुर से ‘डियर जिंदगी’ को दिनेश तिवारी के ईमेल में कभी नींद की सहेली रही कहानियों के गायब होने पर चिंता जताई गई है. 

वह लिखते हैं, ‘हम तो कहानियां सुनकर बड़े हुए थे, लेकिन हमारे पास बच्‍चों को सुनाने के लिए कहानी खत्‍म हो गई. हम दोनों कामकाजी हैं, ऑफिस से लौटते-लौटते हमारी सारी ऊर्जा खत्‍म हो जाती है. उसके बाद बच्‍चों का होमवर्क, घर के काम. ऐसे में किस्‍से, कहानी के लिए ‘जगह’ ही नहीं बचती. बच्‍चों की तरफ से फरमाइश आती है लेकिन हम उसे पूरा नहीं कर पाते. इसका बच्‍चों पर क्‍या असर पड़ेगा?’

दिनेश जी ने ऐसी बात कही है, जो आज 'कहानी घर-घर' की है. असल में कहानी तो दादा-दादी, नाना-नानी के आंगन की गौरैया थी. वह जितना हमारा ख्‍याल रखते उतना ही कहानी का. इस ख्‍याल से ही कहानी की खुशबू हमारे दिल, दिमाग से होते हुए अंतर्मन तक पहुंचती थी. 

हमें दो तरह की कहानी सुनाई जाती थीं...

पहली वह जो उन्होंने कभी सुनीं थीं. अपने बड़ों से. दोस्‍तों से. दूसरी जो उन्होंने पढ़ीं थीं. अपने स्‍कूल की किताबों में, साहित्‍य के माध्‍यम से. यहां इस बात को भी समझना जरूरी है कि पढ़ी चाहे जहां से हों, लेकिन हर रात को वह कहानी के साथ हाजिर होते थे.

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दिनेश जी ने लिखा कि हम दिनभर की भागदौड़ में इतना ‘पक’ जाते हैं कि कहानी सुनाने की शक्ति ही नहीं रहती. इसी बात की जांच हमें बेहद कठोरता से करनी होगी.

हम सारा संघर्ष जिनके लिए कर रहे हैं, उनके सपनों में रंग भरने काम भी तो हमें ही करना है. जैसे बच्‍चे के लिए आप कितनी जतन करते हैं, उसका स्‍कूल चुनने में. उसकी उन मांगों को पूरा करने में भी आप कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते, जिससे कई बार आप सहमत नहीं होते लेकिन बच्‍चे चाहते हैं. देर तक कार्टून देखना, हर दूसरे हफ्ते मॉल जाना, वॉटर पार्क जाते रहना जैसी बातें.

इन सब बातों, चीजों के लिए भी ‘समय’ लगता है. वही समय जिसे दंपति दिनभर की भागदौड़ के बीच बचाते हैं, बच्‍चों के लिए. ऐसे में हम कम से कम इस बात पर तो समहत हो सकते हैं कि कहानी का संबंध कम से कम समय से उतना नहीं है, जितना हमारे उसे ‘प्रायोरिटी’ लिस्‍ट से बाहर कर देने से है. हमें लगने लगा कि कहानी अब बीते जमाने की बात है.

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हमें यह भी समझना होगा कि बच्‍चे, कहानी और सपने के बीच गहरा संबंध है. बच्‍चों के कोमल, शांत और सबकुछ आसानी से ग्रहण कर लेने वाले मन पर कहानी का गहरा असर होता है. बच्‍चे आसानी से उस नैतिक शिक्षा, मूल्‍य को ग्रहण कर लेते हैं जिसे उनको बाद में मोटी-मोटी किताबों से रटाने की तैयारी की जाती है.

इस तरह हम आसान रास्‍ता, काम को छोड़कर मुश्किल रास्‍ते से चलने की कोशिश करते हैं. जो बच्‍चों के साथ हमारे लिए भी परेशानी पैदा करता है.

अब इसके बाद आते हैं, सपने! वैसे तो हमारे अपने विशुद्ध भारतीय अनुभव ही इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्‍त हैं कि कहानी सुनते-पढ़ते हुए अच्‍छे से नींद आ जाती है, लेकिन अब इसके समर्थन में विश्‍व के अनेक देशों में रिसर्च हो चुके हैं. जो कहानी, सपने और नींद के बीच गहरा अंतर्संबंध बनने की बात बार-बार कह रहे हैं.

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बच्‍चे कहानी की दुनिया के भीतर अपनी एक दुनिया बना लेते हैं. ठीक वैसे ही जैसे कार्टून के भीतर बनाते हैं, जहां अब हिंसा, छल और अपशब्‍द बहुत हद तक उनके दिमाग में ठूसे जा रहे हैं. कार्टून धीरे धीरे बाजार के नए प्रोडक्‍ट को बेचने का तरीका बनते जा रहे हैं. इसलिए उस दुनिया में बच्‍चों को सीमित टहलने दीजिए.

बच्‍चों के लिए समय बचाइए. उन्‍हें कहानी की दुनिया में ले चलिए. जहां वह आपकी कहानी के हिसाब से अपने लिए जगह, दुनिया बुन सकें. न कि उन्हें ऐसी जगह छोड़ दीजिए, जहां सपने बुनने में उनकी कोई मदद ही न कर सके.

फैसला आप पर है, क्‍योंकि बच्‍चे, उनके सपने और नींद से आपको भी मेरे ही जितना प्रेम है...

ईमेल : dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com 

पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र)
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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