डियर जिंदगी : अनचाही ख्‍वाहिश का जंगल होने से बचें...
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डियर जिंदगी : अनचाही ख्‍वाहिश का जंगल होने से बचें...

मनुष्‍य बने रहने के लिए. जिंदगी को ख्‍वाहिश का जंगल बनने से बचाना होगा. हमेशा ख्‍वाहिश के पीछे दौड़ते रहने से जिंदगी का स्‍वाद कैसे मिलेगा, जिसके लिए पचास तरह के प्रयास किए जा रहे हैं.

डियर जिंदगी : अनचाही ख्‍वाहिश का जंगल होने से बचें...

ख्‍वाहिश. इच्‍छा, सपना. इनमें से वह शब्‍द जो आपको प्रिय हो. उसे चुनि‍ए. चुनने के बाद उसके साथ कुछ वक्‍त बिताइए. अंतर्मन जब आपके चुने हुए को 'अपना' मान ले, तो वहां से उस यात्रा को आरंभ करना होगा, जहां जीवन के अर्थ, प्रसन्‍नता का ठिकाना और जीवन संवाद रहते हैं.

हम बंद और खुली, दोनों आंखों में सपने बुनते हैं. जैसे दो तरह की आंखे हैं. ठीक वैसे ही दो तरह के मन हैं. चेतन और अवचेतन. 

दो मन और आंखें. तो इस तरह यह 'चार' हैं. तो हम बुनने का काम करते हैं. यह चारों मिलकर हमारा आर्किटेक्चर बनाते हैं. कभी दूसरों को देखते हुए. कभी दूसरों को सोचते हुए. कभी बचपन से हमारे दिमाग में ठूसे हुए शब्‍दों, सपनों से हम ख्‍वाहिशों का जंगल अपने भीतर उगाते रहते हैं.

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ग़ालिब कितनी मीठी जुबान में चेतावनी दे गए हैं. लेकिन हम क्‍या किसी की सुनते हैं...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले

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हम किसी की नहीं सुनते. किसी को नहीं गुनते. दूसरों को तो छोडि़ए. जब हम अपने अंतर्मन की नहीं सुन रहे हैं, तो किसी और की बात सुनना कहां तक संभव होगा.

इस तरह हम अपने मन, दिमाग और सहज बुद्धि को निरंतर असहज करते जा रहे हैं. हम खुद को जानने, अपनी अभिरुचि को सहेजने, संवारने और स्‍वयं से संवाद की जगह ऐसी ख्‍वाहिशों में उलझे हैं, जो थोपी हुई हैं. जिनका हमारे स्‍वभाव, योग्‍यता और समझ से कोई सरोकार नहीं है.

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जैसे ही हम अपनी रुचि को छोड़कर मन में उपजी 'खरपतवार' ख्‍वाहिश के अनुसार चीज़ों का चयन करने लगते हैं. हम अपने दिल-दिमाग को उल्‍टी दिशा में दौड़ाने के काम में जुट जाते हैं. हम स्‍मार्ट होने के भ्रम में कोल्‍हू के बैल बनते जाते हैं. क्‍योंकि 'खरपतवार' इच्‍छा के साथ दूसरी पूरक 'खरपतवार' ख्‍वाहिशें दोगुनी तेजी से हमसे लिपटती जाती हैं.

ख्‍वाहिश के इस संवाद में मेरा विनम्र निवेदन है कि इसे करियर, महत्‍वाकांक्षा से अलग करके देखिए. महत्‍वाकांक्षा अलग चीज़ है और इच्‍छा अलग. महत्‍वाकांक्षी होने में कुछ भी गलत नहीं है. महत्‍वाकांक्षा का बीज योग्‍यता के गर्भ से जन्‍म लेता है. जैसे गर्भस्‍थ शिशु को उचित देखभाल, वैक्‍सीनेशन की जरूरत होती है. ठीक वैसा ही महत्‍व उस सपने को देना होता है. 
महत्‍वाकांक्षा, सपने से एक सीढ़ी ऊपर की बात  है. वह सपना जिसे हम महत्‍व देते हैं, वही महत्‍वाकांक्षा में बदलता है. बाकी सपनों की तरह ही आते-जाते रहते हैं. इसलिए हमें इस बात को अपने भीतर अच्‍छे से तय करने की जरूरत है कि हमारी महत्‍वाकांक्षा है क्‍या?

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अब फि‍र लौटिए, ख्‍वाहिश की ओर...

ख्‍वाहिश, जिसे अक्‍सर हम इच्‍छा के नाम से पुकारते हैं. दो तरह की होती हैं. एक, समय के अनुसार बदलने वाली. दूसरी कोई ऐसी चीज़ जो हमारे दिमाग ने बुन रखी है. हो सकता है, उसका कोई आधार भी न हो. लेकिन ख्‍वाहिश है. ख्‍वाहिशों का तर्क से कोई वास्‍ता नहीं होता.

मिसाल के लिए, किसी की इच्‍छा हो सकती है कि वह हर शनिवार किसी फाइव स्‍टार होटल में भोजन करे. अब उसकी जेब इसकी अनुमति देती है कि नहीं यह अलग बात है. तो इच्‍छा ऐसी होती है, जिसका कोई आधार नहीं होता. वह अक्‍सर दूसरों की देखकर, उनसे प्रभावित होकर पनपती है. इसलिए जैसे ही एक इच्‍छा पूरी होती है, हम दूसरी की ओर मुड़ जाते हैं. इसीलिए हमारे इच्‍छा के जंगल में भटकने की आशंका निरंतर बनी रहती है. स्‍कूटर के बाद, छोटी कार, फि‍र बड़ी और पहले एक बेडरूम का घर, फि‍र चार बेडरूम की इच्‍छा. निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. इसका कोई अंत नहीं.

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मनुष्‍य बने रहने के लिए. जिंदगी को ख्‍वाहिश का जंगल बनने से बचाना होगा. हमेशा ख्‍वाहिश के पीछे दौड़ते रहने से जिंदगी का स्‍वाद कैसे मिलेगा, जिसके लिए पचास तरह के प्रयास किए जा रहे हैं. हम सुकून, शांति और प्रेम की कीमत पर ख्‍वाहिश की फसल नहीं उगा सकते. उगाना भी नहीं चाहिए.

हर किसी को पता होना चाहिए कि उसे कहां तक जाना है. कहां जाकर ठहरना, थमना और मुड़ना है. ध्‍यान रहे यह सब केवल अंतर्मन की डायरी में दर्ज हैं. इसका पता किसी गूगल मैप में नहीं है.

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पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र) 
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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