अपनी बेटियों को प्रेम से कहीं ज्यादा अधिकार दीजिए. छोटी है, तो अभी से समानता की चक्की में पिसा आटा खिलाइए और समझाइए कि वह पूज्यनीय नहीं है. न ही दान के योग्य है. वह तो बस उतनी ही श्रेष्ठ नागरिक है, जितना आपका और दूसरों का बेटा.
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यदि प्रेम की भूमिका हमारे जीवन में तर्कसंगत नहीं है, तो प्रेम आहिस्ता-आहिस्ता जीवन के मूलभूत अधिकार पर अतिक्रमण शुरू कर देता है. एकदम अनजाने में. प्रेम परिवार की धुरी है. इस पर जीवन का अस्तित्व टिका है. महिला दिवस पर डियर जिंदगी की पोस्ट 'प्रेम के चक्रव्यूह में 'शहीद' बराबरी' पर सोशल मीडिया पर मुझे बढ़ी संख्या में प्रतिक्रिया मिली है. इस पोस्ट में सबसे अधिक जोर महिला अधिकार पर प्रेम के अतिक्रमण पर दिया गया था.
इसके एक हिस्से में मैंने कहा था, 'जब तक हम कन्यादान जैसे सिंड्रोम से नहीं निकलेंगे, स्त्री पूजा के स्वांग की जगह उसे अधिकार देने की बात नहीं करेंगे, महिला दिवस बेईमानी, सार्वजनिक झूठ से अधिक कुछ नहीं साबित होगा.' इस पर पाठक सबसे अधिक मुखर रहे.
यहां यह कहना जरूरी है कि मैं किसी आस्था, विश्वास का विरोध नहीं कर रहा हूं, मैं तो केवल यह कहना चाहता हूं कि 'कन्यादान' शब्द, रिवाज बेटियों के विरुद्ध एक सामाजिक बाधा है. हम जिस चीज़ में दान शब्द का उपयोग कर देते हैं, उस पर अपने अधिकार भी छोड़ देते हैं. बेटियों के मामले में भी हमारे दिमाग में यही सोच भरी हुई है.
डियर जिंदगी: प्रेम के चक्रव्यूह में 'शहीद' बराबरी...
अब जिसे दिया, उस पर है कि वह उसका उपयोग कैसे करता है. क्या बेटी के प्रति इस सोच को जायज माना जा सकता है! लेकिन इसके बाद भी इस पर मुखर तरीके से आवाज नहीं उठाई गई है.
अगर आप अपने दिमाग से रही आ रही परंपरा में कट्टर विश्वास की जगह ज़रा सी वैज्ञानिक सोच मिला दें तो आप समझ जाएंगे कि कैसे प्रतीकों के सहारे महिलाओं को उनके मूल अधिकार से वंचित रखने के जतन किए गए हैं. पुरुषों ने इन प्रतीकों का उपयोग इस चतुराई से किया कि महिलाएं उन रिवाजों की पैरवी करते हुए नजर आएंगी जो उनके ही विरुद्ध हैं. मैं उन चुनिंदा लड़कियों, महिलाओं के आधार पर इन चीजों से मुक्त होने का दावा स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि इनकी पहुंच केवल महानगरों, शहरों तक सीमित है.
डियर जिंदगी: कितने कीमती हैं हम!
लोग अक्सर दावा करते हैं कि शिक्षा के प्रसार के साथ यह सब चीजें खत्म हो रही हैं, वह भूल रहे हैं कि विज्ञान पढ़ने और वैज्ञानिक सोच में बेहद अंतर है. हम विज्ञान को पढ़ लेते हैं, लेकिन उसे जीवन में उतारने के विचार मात्र से ही कांपने लगते हैं.
यही कारण है कि दहेज जैसी चीजें आज भी न केवल जिंदा हैं, बल्कि वह इतने गहरे तक हमारे दिमाग में घर कर गई है कि समाज उनसे अलग होने के बारे में सोच भी नहीं सकता. दहेज का विचार लड़कियों के जन्म के साथ उनके माता-पिता के दिमाग में चस्पा हो जाता है. लाख चाहकर भी वह उसकी चिंता से मुक्त नहीं हो पाते. जब तक लड़कियां खुद आर्थिक और मानसिक रूप से उस जगह नहीं पहुंच जाती, जहां वह कन्यादान जैसे शब्द, क्रिया का विरोध कर सकें. तब तक यह 'सामूहिक नींद' टूट ही नहीं सकती.
प्रेम की दीवारें बड़ी महीन और बेटियों के विरुद्ध होती हैं. अक्सर यह प्रेम बाद में अतिक्रमण करके उनके अधिकार पर कब्जा कर लेता है. बेटियों के आसपास इस दीवार को कुछ ऐसे तरीकों से बुना जाता है कि वह रहती तो अदृश्य हैं, लेकिन उनकी शक्तियों से लड़कियों को जिंदगी पर लोहा लेना पड़ता है. इसलिए, अपनी बेटियों को प्रेम से कहीं ज्यादा अधिकार दीजिए. छोटी है, तो अभी से समानता की चक्की में पिसा आटा खिलाइए. और समझाइए कि वह पूज्यनीय नहीं है. न ही दान के योग्य है. वह तो बस उतनी ही श्रेष्ठ नागरिक है, जितना आपका और दूसरों का बेटा.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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