एससी-एसटी एक्टः परवान चढ़ती दबाव की राजनीति
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एससी-एसटी एक्टः परवान चढ़ती दबाव की राजनीति

समय के साथ दलित समुदाय ने शासन और समाज के विभिन्न हिस्सों में अपनी दखल बढ़ाई है. उनकी सत्ता की चाह ने गैर-दलितों के साथ संघर्ष को जन्म दिया है. यह गैर-दलितों के वर्चस्व को तोड़ने या चुनौती देने की कहानी है. इसलिए आज के दलित को 30 साल पूर्व वाला दीन-हीन दलित नहीं माना जा सकता.

 एससी-एसटी एक्टः परवान चढ़ती दबाव की राजनीति

दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सीलिंग की कार्रवाई चल रही है, लेकिन यहां की राजनीति में दखल रखने वाली कोई भी पार्टी (आम आदमी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस) इसके समर्थन में बोलने का साहस नहीं दिखा पा रही है. कारण, व्यापारियों का दबाव, जिनके पास संख्या भी है और धन भी. इसी प्रकार एससी-एसटी (उत्पीड़न निवारण) अधिनियम, 1989 का दुरुपयोग रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश के पक्ष में कोई भी पार्टी बोलने को तैयार नहीं है. कारण, दलितों का दबाव, जिनकी आबादी सोलह-सत्रह प्रतिशत है. दोनों ही घटनाओं में राजनीतिक दल एक पायदान पर खड़े हैं, तो सुप्रीम कोर्ट अलग पायदान पर. आखिर भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में ऐसा क्यों हो रहा है कि इन फैसलों के पक्ष में कोई राजनीतिक दल खड़ा नहीं हो रहा है? क्या भारतीय राजनीतिक दल कुछ दबाव समूहों के हाथों में बंधक बनते जा रहे हैं? क्या यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र के हित में है?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि दलित सदियों से हिन्दू समाज के उपेक्षित हिस्से रहे हैं. इस नाते उनके लिए भारतीय राज्य व्यवस्था में आरक्षण का प्रावधान किया गया, उनके उपर जुल्म न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाया गया. पर कानून यथावत रहा, लेकिन समाज बदलता गया. समाज की प्रकृति स्थिर रहने की नहीं होती, उसमें परिवर्तन होता रहता है, भले ही उसकी गति धीमी हो. दलितों की सामाजिक अवस्था में भी सुधार हुआ. यह और बात है कि कुछ लोगों द्वारा उनकी सामाजिक स्थिति का चित्रण इस तरह किया जाता है, मानो समाज में कोई बदलाव ही न हुआ हो. अगर कोई बदलाव ही नहीं हुआ, फिर तो उनके लिए बनाए गए सारे कानून फिजूल माने जाएंगे.

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समय के साथ दलित समुदाय ने शासन और समाज के विभिन्न हिस्सों में अपनी दखल बढ़ाई है. उनकी सत्ता की चाह ने गैर-दलितों के साथ संघर्ष को जन्म दिया है. यह गैर-दलितों के वर्चस्व को तोड़ने या चुनौती देने की कहानी है. इसलिए आज के दलित को 30 साल पूर्व वाला दीन-हीन दलित नहीं माना जा सकता. उसने संघर्ष से अपने लिए नए मुकाम हासिल किये हैं. उनके द्वारा आयोजित भारत बंद को इसी रूप में देखा जा रहा है. पर साथ ही यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके उपर होने वाले जुल्म पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं, अब भी उनके प्रति जुल्म होते हैं. दलितों के प्रति समाज के नजरिये में बदलाव की जरूरत अब भी है.

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इस परिप्रेक्ष्य में अगर एससी-एसटी कानून की प्रासंगिकता पर विचार किया जाए, तो इसका जमीन पर दोतरफा असर दिखता है. यह कानून न केवल दलितों को अवांछित जुल्म से बचाता है, बल्कि उनके लिए एक हथियार की तरह काम करता है. इसी कानून के कारण गैर-दलित जातियां न केवल उनको तंग नहीं करतीं, बल्कि उनसे दूरी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझती हैं. दूसरी ओर इन्हें इस बात का भय सताता रहता है कि कहीं उन्हें एससी-एसटी कानून में फंसा न दिया जाए. 

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अगर राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों का सहारा लिया जाये, तो कहा जा सकता है कि कभी-कभी दलित समुदाय के लोग दूसरी जातियों के लोगों के खिलाफ उसका बेजा इस्तेमाल करने पर उतर आते हैं. इससे समाज में सद्भाव को क्षति पहुंचती है. कई मर्तबा ऐसा देखा जाता है कि गैर-दलित जातियां उनसे किसी किस्म के आदान-प्रदान में परहेज रखती हैं, जिससे उनको नुकसान पहुंचता है. उदाहरण के लिए भूमि बंदोबस्त में गैर-दलित जातियां उन्हें जमीन देने में कतराती हैं.

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कानून अपने वांछित लक्ष्य में तभी सफल हो सकता है, जब संपूर्ण समाज की नैतिक शक्ति उसके साथ हो. एससी-एसटी समुदाय को सुरक्षा प्रदान करने का मतलब यह नहीं हो सकता कि वह दूसरे समुदाय पर जुल्म ढाने का हथियार बन जाए. इस नाते सुप्रीम कोर्ट का यह कहना गलत नहीं है कि इसका दुरुपयोग होता है. ऐसे में देश-काल की बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर इसके दुरुपयोग को रोकने की पहल में कोई बुराई नहीं है. बस इस बात को सुनिश्चित करने की जरूरत है कि इस पहल से दलितों पर जुल्म न बढ़े, क्योंकि कानून का भय ही उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है. इसलिए इसका दुरुपयोग रोकने के बारे में फिर से विचार किया जा सकता है. 

सुप्रीम कोर्ट मनमानी गिरफ्तारी, प्राथमिकी दर्ज करने, धारा 498ए आदि के बारे में इसके पहले ही दिशा-निर्देश दे चुका है, लेकिन उनको लेकर ऐसा बावेला नहीं मचा था. इस कानून को लेकर इतना शोर मच रहा है, तो इसके पीछे एक समाज खड़ा है और वह समाज है दलितों का. निचले स्तर पर कइयों को यह गलतफहमी पैदा हो गई है कि एससी-एसटी कानून ही खत्म कर दिया गया है, जबकि सच्चाई ऐसी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने यही कहा है कि दलित उत्पीड़न की कथित शिकायत आने पर पुलिस मामला दर्ज करने और गिरफ्तारी के पहले सात दिन के भीतर जांच पूरी कर ले. 

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केंद्र की मोदी सरकार ने दलित समाज की भावना के अनुरूप सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है. सरकार द्वारा ऐसा कदम उठाने के पीछे दो कारण हैं- एक तो उसकी पार्टी के दलित नेताओं और गठबंधन के सहयोगी दलों का दबाव है और दूसरे यह कि गैर-दलित वोटर संगठित नहीं हैं, जिससे भाजपा को ज्यादा खतरा महसूस हो. विपक्षी पार्टियां इसी ताक में हैं कि मोदी सरकार दलितों की भावना के खिलाफ जाए, ताकि उसे दलित विरोधी दिखा सकें, जैसी कि उनकी अब तक की रणनीति दिख रही है.

इस पूरी राजनीति में न्याय की बात दब जा रही है. अन्याय किसी के भी साथ हो, चाहे वह दलित के साथ हो या गैर-दलित के साथ, इस पर चिंता का अभाव दिख रहा है. यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि लोकतांत्रिक राजनीति दबावों के साये में काम करती है. यह दबाव कभी जाति-धर्म आधारित होता है, तो कभी वर्गीय हितों पर आधारित. इसकी भूमिका कभी सकारात्मक होती है, तो कभी नकारात्मक. दलित समाज का मौजूदा दबाव अपने तात्कालिक उद्देश्य में सफल है. लेकिन यह व्यवस्था में संतुलन बनाने में सहायक मात्र है, उसमें आमूल परिवर्तन लाने में नहीं. अब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में उठ गया है, तो संभव है समाज में इसी बहाने दलित समाज और आंदोलन के कई दबे या अनछुए पहलुओं पर भी बहस खड़ी हो जाए. 

अगर दलित समाज और उसका नेतृत्व इस मसले पर उग्र रवैया अपनाएगा, तो गैर-दलितों में उनके प्रति विरोध भाव बढ़ेगा, जो अंततः दलितों के हित में नहीं होगा. यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अगड़ी जातियों की ही तरह पिछड़ी जातियों और मुसलमान का भी उनसे कहीं न कहीं टकराव होता रहता है. 

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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