बिहार चुनाव : राजनीति की अग्निपरीक्षा
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बिहार चुनाव : राजनीति की अग्निपरीक्षा

राजनीति जब चारा चोर, नरभक्षी, महास्वार्थबंधन, शैतान और ब्रह्मपिशाच के चक्रव्यूह में फंस जाए तो उससे निकलने के लिए उसे अग्निपरीक्षा देनी ही पड़ती है। कोई कह रहा है बिहार चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अग्निपरीक्षा है तो कोई कह रहा है कि बिहार चुनाव नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की की अग्निपरीक्षा है। लेकिन सियासी सच्चाई यह है कि बिहार विधानसभा का यह चुनाव राजनीति की अग्निपरीक्षा है। अग्निपरीक्षा इस मायने में कि राजनीति जनकल्याण के लिए होती है और जिस तरह की राजनीतिक लड़ाई बिहार के इस चुनाव में लड़ी जा रही है उससे बिहार की जनता का कितना भला होगा इसके दूर-दूर तक कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।

देश और समाज का सर्वाधिक क्रियाशील एवं गतिशील पहलू होता है 'राजनीति' जो हर तरीके से जाने-अनजाने में जीवन को प्रभावित करती है। कहते हैं, सामाजिक प्राणी होने के नाते कोई भी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में राजनीति से बेअसर नहीं रह सकता है। महान दार्शनिक प्लूटो तो यहां तक कह गए हैं कि राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा भुगतना पड़ता है कि आपको घटिया लोगों के हाथों शासित होना पड़ता है। मैं प्लूटो की बातों से विरोध नहीं जता रहा, लेकिन जब आप राजनीति का हिस्सा बनने के लिए तैयार हों और 'आगे कुआं-पीछे खाई' जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़े तो फिर क्या करेंगे। 

महान साहित्यकार फरणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी एक कविता में भारतीय राजनीति पर जबरदस्त कटाक्ष किया था जिसकी दो पंक्तियों का जिक्र करना यहां इसलिए जरूरी है ताकि यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हो कि हमारे देश की राजनीति किस तरफ जा रही है--

'जनता के नामे गद्दी चढ़ बैठे झुट्टन के सरताज
गांधी के सत्य अहिंसा रोए, रोवत राम के राज।'

मुझे नहीं मालूम कि रेणु ने यह कविता कब और किस परिस्थिति में लिखी थी, लेकिन इस बात का दावा तो किया ही जा सकता है कि ये दो पंक्तियां बिहार ही नहीं, पूरे देश की राजनीति के संदर्भ में आज भी प्रासंगिक है। देश में इस बात को लेकर बड़ी-बड़ी बहस चलाई जा रही है कि इस बार के बिहार चुनाव के परिणामों से देश में राजनीतिक बदलाव आएगा। डेढ़ साल होने को हैं जब 2014 में देश ने बड़े राजनीति बदलाव को देखा। उसके बाद सियासी पंडितों की राय में बिहार चुनाव पहला ऐसा पड़ाव है जो भारतीय राजनीति की आगे की दिशा तय करेगा। शायद इसीलिए देश ही नहीं, पूरी दुनिया की नजरें बिहार विधानसभा के इस चुनाव पर टिकी हैं।

बात जब बिहार चुनाव में राजनीति की अग्निपरीक्षा को लेकर उठी है तो इसके कुछ अहम किरदारों पर बात ना करना बेमानी होगी। हालांकि तीन चरणों के चुनाव में 131 सीटों पर वोटिंग हो चुकी हैं और बाकी दो चरणों में 112 सीटों पर मतदान होने हैं, लेकिन किरदार जोर-शोर से अभी भी मैदान में डटे हैं। दशहरा और दिवाली के बीच चुनावी लीला अपने उफान पर है। इस पृष्ठभूमि में यदि बारीकी से देखा जाए तो बिहार विधानसभा के वर्तमान चुनाव दोस्त से दुश्मन एवं दुश्मन से दोस्त बने राजनेताओं का भी दंगल है जो अब एक-दूसरे को फना करने के लिए कमर कसे हुए हैं।

बिहार विधानसभा के इस चुनाव में अगर राजनीतिक दलों की बात करें तो आप गिन नहीं पाएंगे कि कितनी पार्टियां मैदान में हैं, लेकिन अगर नजदीक से अध्ययन करें तो इसमें कोई दो-राय नहीं कि जमीन पर लड़ाई महागठबंधन और एनडीए के बीच ही है। और इसमें भी नरेंद्र मोदी, अमित शाह, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव यही चार सियासी चेहरे हैं जिसके इर्द-गिर्द पूरी की पूरी चुनावी राजनीति घूम रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात करें तो उनके लिए यह चुनाव जीतना इसलिए अहम है क्योंकि इससे उन्हें एक नैतिक बल मिलेगा। साथ ही आने वाले कुछ वर्षों में राज्यसभा में बहुमत की संभावना बनेगी ताकि मेक इन इंडिया समेत कई महत्वाकांक्षी योजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने के लिए जरूरी विधेयकों को पारित कराने में मोदी सरकार सक्षम होगी। इस जीत से केंद्र सरकार के शेष कार्यकाल को संजीवनी मिलेगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता का डंका बजाकर अन्य राज्यों के चुनावों में भी जीत की उड़ान भर सकेंगे। वर्तमान राजनीति के 'चाणक्य' कहे जाने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के लिए यह चुनाव इसलिए अहम है क्यों कि इसके परिणाम पर ही आने वाले दिनों में पार्टी में उनकी हैसियत तय होनी है, इस शोर के बीच कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बिहार चुनाव और भाजपा संगठन पर पैनी नजर है।

जहां तक महागठबंधन (नीतीश-लालू-कांग्रेस) की बात है तो इसमें नीतीश और लालू दोनों के लिए यह चुनाव 'करो या मरो' जैसी है। कांग्रेस के पास इस चुनाव में गंवाने जैसी कोई चीज नहीं है। लेकिन नीतीश और लालू अगर यह चुनाव हारते हैं तो दोनों के लिए यह 'राजनीतिक मौत' जैसी होगी क्योंकि इसके बाद बिहार की राजनीति में इनके लिए कोई काम ही नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर महागठबंधन यह चुनाव जीत जाता है तो लालू का राजनीतिक भविष्य जो भी हो, नीतीश कुमार जरूर राष्ट्रीय राजनीति पर सितारे की तरह चमकेंगे और 2019 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को टक्कर देंगे।          

बहरहाल, पांच चरणों में होने वाला यह चुनाव 5 नवंबर को संपन्न हो जाएगा। उसके तीसरे दिन 8 नबंबर 2015 को यह तय हो जाएगा कि बिहार पर राज कौन करेगा और उसके तीसरे दिन किसकी दिवाली मनेगी। लेकिन विकास के मुद्दे से शुरू हुई बात आर्थिक पैकेज के रास्ते किस तरह से बीफ और अंतत: जाति व मंडल-2 पर आकर अटक गई किसी को समझ में नहीं आया। अब इस जातिवाद और मंडलवाद की राजनीति के गुना-भाग में जो बीस पड़ेगा, तय मानिए वह सत्ता की चादर ओढ़ेगा, लेकिन क्या इस बात की कोई गारंटी दे सकता है कि बिहार के दिल में जो है वह उसे मिल पाएगा? क्या  'राजनीति' अपनी 'अग्निपरीक्षा' में बेदाग होकर निकल पाएगी?

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