राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अधिकारों की जंग को लेकर अब दिल्ली और केंद्र सरकार आमने-सामने आ गई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच आईएएस अधिकारी शकुंतला गैमलिन को कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त करने को लेकर पैदा गतिरोध अब इतना बढ़ गया है कि फिलहाल इसका पटाक्षेप होता नजर नहीं आ रहा है।
Trending Photos
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अधिकारों की जंग को लेकर अब दिल्ली और केंद्र सरकार आमने-सामने आ गई है। नौकशाहों की पदस्थापना व स्थानांतरण के मुद्दे को लेकर सत्ता प्रतिष्ठानों में तकरार ने गंभीर रूप अख्तियार कर लिया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच आईएएस अधिकारी शकुंतला गैमलिन को कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त करने को लेकर पैदा गतिरोध अब इतना बढ़ गया है कि फिलहाल इसका पटाक्षेप होता नजर नहीं आ रहा है। नियुक्ति को लेकर हो रहे इस विवाद ने अब क्षेत्रवाद को भी अपने में समेट लिया है। इसे यूं समझा जा सकता है, बीते दिनों केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने आम आदमी पार्टी की सरकार पर पूर्वोत्तर की महिला आईएएस अधिकारी का चरित्र हनन करने और संविधान का अनादर करने का आरोप जड़ा। जबकि नौकरशाह की नियुक्ति को लेकर इस तरह के प्रसंग नहीं उठने चाहिए। बेहतर होता कि इस मामले को युक्तिसंगत तरीके से वार्ता के जरिये सरकारों के बीच निपटा लिया जाता।
कार्यवाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति पर आम आदमी पार्टी सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल के बीच गतिरोध तब और बढ़ गया, जब केजरीवाल ने जंग से संविधान के दायरे में काम करने के लिए कहा। केजरीवाल सरकार की आपत्तियों के बावजूद गैमलिन को दिल्ली का मुख्य सचिव बनाया गया। इसके बाद केजरीवाल सरकार की ओर से गैमलिन की नियुक्ति का विरोध शुरू कर दिया गया, इसके बावजूद उन्हें मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। विवाद तब और बढ़ गया जब दिल्ली के उपराज्यपाल के साथ अपनी लड़ाई को एक कदम और आगे ले जाते हुए दिल्ली सरकार ने प्रमुख सचिव (सेवा) अनिंदो मजूमदार के कार्यालय पर ताला लगा दिया। इस पर केजरीवाल सरकार ने यह काम अब मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव राजेंद्र कुमार को दे दिया। जिसके बाद जंग ने प्रमुख सचिव के पद पर राजेंद्र कुमार की नियुक्ति को खारिज की दी। दिल्ली सरकार का इस पर तर्क यह है कि केंद्र शासित क्षेत्र में तबादले और नियुक्ति का अधिकार उनके पास है। मजूमदार ने राज्य सरकार के आदेश की अवहेलना की है। उपराज्यपाल के पास भी यह अधिकार नहीं है कि वह दिल्ली सरकार का आदेश निरस्त करे। बता दें कि मजूमदार ने ही उपराज्यापल की संस्तुति के बाद शकुंतला गैमलिन की नियुक्ति का आदेश जारी किया था। इससे नाराज दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने शनिवार को मजूमदार को पद से हटाने का आदेश जारी किया। इसके बाद दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने दिल्ली सरकार के आदेश को निरस्त करते हुए मजूमदार को उनके पद पर यथावत रखा।
वहीं, केजरीवाल सरकार का कहना है कि उपराज्यपाल ने निर्वाचित सरकार, मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री (जो सेवा विभाग के प्रभारी मंत्री के रूप में काम करते हैं) की अनदेखी की है। संविधान के तहत उप राज्यपाल के पास ऐसी असाधारण शक्ति नहीं है कि वह निर्वाचित सरकार की अनदेखी करें और सीधे सचिव को निर्देश जारी करें, भले ही कोई भी अनिवार्यता क्यों न हो। जंग ने असाधारण तरीके से सचिव (सेवा) को सीधे निर्देश जारी कर दिया कि मुख्य सचिव का अतिरिक्त प्रभार शकुंतला को सौंपा जाए। जबकि सरकार ने कहा कि उसे शकुंतला के आचरण को लेकर कुछ आपत्ति है जिनके चलते वह उन्हें अतिरिक्त प्रभार देने को लेकर हिचक रही थी। अब ऐसे में यह सच्चाई सामने आनी चाहिए ताकि इस टकराव के असल कारणों को सामने लाया जा सके। अन्यथा सभी अपने-अपने तर्कों को गढ़ते रहेंगे और वृहत रूप में इसका खामियाजा जनता को ही भुगतना पड़ेगा। बीते दिनों दिल्ली के बिजली मंत्री सत्येंद्र जैन की ओर से केजरीवाल को लिखा गया एक पत्र सामने आया। इसमें जैन ने गैमलिन पर रिलायंस के मालिकाना हक वाली बिजली कंपनियों के हितों को बढ़ाने के लिए सरकार के भीतर लाबिंग करने का आरोप लगाया और केजरीवाल से उन्हें प्रधान सचिव (बिजली) के पद से मुक्त करने का अनुरोध किया था।
गौरतलब है कि दिल्ली के मुख्य सचिव केके शर्मा निजी यात्रा पर अमेरिका गए हुए हैं, जिसके चलते सरकार को एक कार्यवाहक मुख्य सचिव तैनात करना था। गैमलिन वर्तमान समय में ऊर्जा सचिव के रूप में कार्यरत हैं। केजरीवाल सरकार ने इस पूरी निर्णय प्रक्रिया को असंवैधानिक करार दिया है। वहीं, केंद्र सरकार ने इस मामले में दखल देने से सीधे तौर पर साफ इनकार किया और केंद्रीय गृह सचिव का कहना था कि ये मामला एलजी और दिल्ली सरकार के बीच है। केजरीवाल और एलजी के बीच टकराव अब इतना सियासी रंग ले चुका है कि उपमुख्यमंत्री ने नजीब जंग पर तख्तापलट तक का आरोप लगा दिया। इससे समझा जा सकता है कि इस टकराव को यदि शीघ्र खत्म नहीं किया गया तो दीर्घकालिन हित में इसके बेहतर नतीजे सामने नहीं आएंगे। इस तरह के टकराव का सीधा असर किसी राज्य के विकास व अन्य गंभीर मसलों पर पड़ता है। साथ ही, इस पूरे प्रकरण से देश के अधिकारियों के बीच भी गलत संदेश जा रहा है।
बता दें कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक बार कहा था कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। एलजी के पास काफी अधिकार हैं। टकराव से दिल्ली का ही नुकसान होता है और ये राष्ट्रीय राजधानी के साथ खिलवाड़ है। एलजी और सीएम में तालमेल नहीं रहेगा तो दिल्ली का सबसे ज़्यादा नुकसान होगा। वहीं, अब आम आदमी पार्टी दिल्ली के अंदर चुनी हुई सरकार का मुद्दा उछाल रही है। उनका तर्क है कि चुनी हुई सरकार को अपनी पसंद का अफसर चुनने का हक है। उनका यह दावा भी है कि एलजी चुनी हुई सरकार को अनदेखा नहीं कर सकते। विवादों के बीच ऐसा प्रतीत हो रहा है कि दिल्ली के असली मुद्दे कहीं गुम हो गए हैं। इस तनातनी में दिल्ली की जनता पिस रही है। साथ ही अफसरों के बीच भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
इस टकराव पर गहराई से गौर करने पर यह सवाल भी उठता है कि क्या उपराज्यपाल का निर्वाचित सरकार एवं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अनदेखी करना उचित है। क्या किसी नौकरशाह की नियुक्ति को लेकर जो भी कदम उठाए गए हैं, वो संविधान, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार कानून तथा कामकाज संचालन नियमों के विरुद्ध हैं। हालांकि ये सवाल तकनीकी तौर पर संविधान से जुड़े हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसे देखें तो इतना जरूर साफ होता है कि अच्छी नीयत से उठाए गए कदम पर कोई सवाल नहीं उठता है। बहरहाल ये टकराव तो अब केंद्र और राज्य सरकारों के बीच जा पहुंची है, लेकिन इसका खामियाजा कुछ हद तक नौकरशाह भी भुगत रहे हैं। जंग के अनुसार, भारत के संविधान के अनुच्छेद 239 एए के तहत उपराज्यपाल दिल्ली में राज्य प्राधिकारी का प्रतिनिधि होता है। वैसे भी दिल्ली के विधान के तहत दिल्ली में मुख्य सचिव, गृह सचिव और भूमि सचिव की नियुक्ति केंद्र सरकार की सहमति से होती है। वहीं कार्यवाहक मुख्य सचिव, उपराज्यपाल मुख्य प्रशासनिक जिम्मेदारी संभाल रहे सचिवों में से वरिष्ठ को बनाते हैं। दोनों ही नियुक्तियों में दिल्ली सरकार की अनुशंसा को प्राथमिकता दी जाती है।
वैसे भी उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच जारी तनातनी का असर यह है कि दिल्ली सरकार से संबंधित फाइलें राजनिवास नहीं भेजी जा रही हैं। संवैधानिक प्रावधानों के मद्देनजर सरकार के स्तर पर ऐसा किया जाना सरासर गलत है। एक तरफ मुख्यमंत्री कार्यालय से अधिकारियों को ये निर्देश दिए गए हैं कि वे दिल्ली सरकार से संबंधित फाइलों का निपटारा मुख्यमंत्री के स्तर पर ही कर दें जबकि उपराज्यपाल का कहना है कि दिल्ली विधानसभा में लाए जाने वाले किसी भी मामले की मंजूरी उनसे अवश्य ली जानी चाहिए। ऐसे में टकराव का और बढ़ जाना कोई हैरत वाली बात नहीं होगी। जबकि होना तो यह चाहिए कि जनहित के मद्देनजर इस विवाद को तुरंत निपटा लिया जाए। ज्ञात हो कि साल 1993 में दिल्ली में पहली बार सरकार बनने के बाद से यह पहला मौका है जब किसी मुख्यमंत्री ने उपराज्यपाल को फाइल भेजने से इनकार किया है। चर्चा यह भी हो रही है कि केंद्र में भाजपा और दिल्ली में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद ऐसा टकराव नहीं देखने को मिला। ऐसा पहली बार हो रहा है कि राजनिवास और दिल्ली सचिवालय के बीच टकराव सार्वजनिक तौर पर हो रहा हो। बहरहाल, देखना यह है कि इस पूरे विवाद का पटाक्षेप कब तक हो पाता है, लेकिन इस तरह के टकराव से नुकसान तो दिल्ली का ही हो रहा है।