सुरों की महफिल में सियासत की 'कालिख'
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सुरों की महफिल में सियासत की 'कालिख'

गुलाम अली साहेब की सुरों की वो महफिल याद आती है। 2009 में गुलाबी ठंड के बीच बीच गजलों की यह शानदार महफिल दिल्ली के पुराना किला में सजी थी। जगजीत सिंह के गजलों की महफिल से तो मैं कई बार सराबोर हुआ था लेकिन यह पहला मौका था जब गुलाम अली साहेब को देखने और सुनने का मौका मिला।

पुराना किला में इस आयोजन के दौरान आयोजकों ने सिर्फ चंद वीआईपी कुर्सियां रखी थी। बैठने के लिए बाकी सभी लोगों के लिए गद्देदार मखमली दरियों का इंतजाम किया गया था। देखते-देखते लोग खचाखच भर गए थे। लोग गुलाम साहेब के आने और उनके गजलों को सुनने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। लेकिन इस बीच उद्घोषक ने गुलाम अली साहेब के दिल्ली में कहीं जाम में फंसने की बात कही। वहां बैठे सभी श्रोता निराश हो गए। क्योंकि उनके देर से आने की तो घोषणा की गई थी लेकिन यह नहीं बताया गया कि वो कितनी देर से तशरीफ लाएंगे।

आयोजकों को लगा कि इस घोषणा से ज्यादा लोग कहीं उनके आने से पहले ही चले ना जाए। तो फिर महफिल का रंग श्रोताओं के नहीं होने से फीका पड़ जाएगा। लिहाजा कार्यक्रम में पहले से मौजूद गुलाम अली साहेब के चंद शागिर्दों ने श्रोताओं को सुरों की चाशनी में डुबोने की कमान संभाली। वहां मौजूद एक शख्स ने गुलाम साहेब की गजलों को गाना शुरू कर दिया। लोग वाह-वाह कर उसकी हौसलाफजाई करने लगे। यह सिलसिला चलता रहा।

लेकिन इस बीच उनके शागिर्द की एक गजल अधूरी ही रह गई । क्योंकि उदघोषक ने गुलाम अली साहेब के आने की घोषणा कर दी। लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। लोग खुशी के मारे इस कदर जोर से चिल्लाने लगे कि उनके शागिर्द को वह गजल बीच में ही रोकनी पड़ी। गुलाम अली ने आते ही कहा - 'क्या करूं बस जाम में फंस गया था लेकिन मुझे उम्मीद है कि मैं आप सबका गजलों के जरिए शायद बेहतर मनोरंजन कर सकूंगा, आप बस शांति से बैठिए , क्योंकि सुरों को छेड़ने में मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, एक बार शुरू हो गया तो फिर आपके कहने पर ही रूकूंगा ।'

गुलाम साहेब के इतना कहते ही शोरगुल सन्नाटे में तब्दील हो गया। फिजाओं में शांति छा आ गई। शोर कर रहे लोग चुपचाप बैठ गए।  वक्त रात के लगभग साढ़े आठ बज चुके थे। जब गुलाम साहेब ने देखा कि गजलों की महफिल के लायक समां बन चुका है तो उन्होंने अपनी गजलों से उसका आगाज करना शुरू किया। दो-तीन गजलों के बाद बैठे श्रोता अपने पसंदीदा गजलों की फरमाईश करने लगे। लेकिन गुलाम साहेब हर बार उसे प्यार से टालते और अपने अंदाज में गजलों को सुनाते चले जा रहे थे।

आखिर में उन्होंने श्रोताओं से कहा - 'आप जिन गजलों को सुनना चाहते हैं वह आपकी पसंदीदा गजलें है और मुझे मालूम है कि वो आपको बेहद पसंद भी है, लेकिन मैं जो गजले इस वक्त आपको सुना रहा हूं वह मेरी पसंद की है, थोड़ा वक्त दीजिए सुरों से सुकून मिलता है, मैं सुरों की मिठास को धीरे-धीरे मीठा कर रहा हूं, शर्बत में चीनी चम्मच से ही तो मिलाई जाएगी, सुरों की इस रवानगी के बाद एक वक्त आएगा जब मैं आपकी पसंदीदा गजले आपको सुनाउंगा, लेकिन अभी आपकी गजलें सुना दूंगा तो सुनकर आप घर चले जाएंगे, फिर भला मेरी पसंदीदा गजले कौन सुनेगा'। इतना सुनते ही सब लोग हंस पड़े। गजलों की इस महफिल में ठहाके का यह दौर सबको भा गया।

लोगों के समझ में आ गया कि गजलों के इस बेताज बादशाह के मुताबिक चलना ही बेहतर होगा। एक घंटे के बाद जब गुलाम साहेब ने तीन-चार गजलें पेश की उसके बाद धीरे-धीरे वह श्रोताओं की फरमाईश भी पूरी करते चले जा रहे थे। यकीनन उस दिन मैंने जाना कि गुलाम साहेब गजल की दुनिया मे सुरों ही नहीं बल्कि शब्दों के भी जादूगर है। उन्होंने बेसब्र हो रही महफिल में अपने सुरों का ऐसा जादू चलाया कि सब गजल की गुलामी की जंजीरों में जकड़े गए। सुरों के इस बेताज बादशाह ने उस दो घंटे की महफिल को कुछ यूं पिरोयो मानो वक्त बस थम सा गया हो। सुरों का यह संगम सरहद की हर दीवार को लांघकर सभी दूरियों को मिटा रहा था।

लेकिन पिछले दिनों मुंबई में जो हुआ वह ठीक नहीं था। संगीत के साथ हमारे देश में ऐसी सिसासत होगी यह मैंने नहीं सोचा था। कार्यक्रम के आयोजकों ने शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के साथ उपनगर बांद्रा में स्थित उनके घर ‘मातोश्री’ में बैठक के बाद कार्यक्रम रद्द करने की घोषणा कर दी। क्यों? फिर हम ये क्यों कहते है कि संगीत की कोई सीमा नहीं होती।’ गुलाम अली का कार्यक्रम रद्द हो गया लेकिन सबसे हैरानी की बात यह रही कि महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने इसपर ऐसा कुछ भी करने की कोशिश नहीं की जिससे यह कार्यक्रम रद्द होने से बचाया जा सके। शायद इसकी वजह शिवसेना और बीजेपी का राज्य में गठबंधन की सरकार का होना होगा भी रहा होगा।

74 वर्षीय गुलाम अली का संगीत समारोह निर्धारित था लेकिन शिव सेना ने चेतावनी दी थी कि जब तक सीमा पार से आतंकवाद नहीं रूकता तब तक पड़ोसी देश के किसी भी कलाकार को देश में प्रस्तुति देने की मंजूरी नहीं दी जाएगी। आयोजकों को भी लगा कि यह कार्यक्रम होना अब मुश्किल है लिहाजा उन्होंने शिवसेना की जिद के सामने घुटने टेक दिए। संगीत ने सियासत के आगे घुटने टेके। सियासत की आंधी में संगीत एक पेड़ की तरह उखड़ गया।

इसके बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अलावा दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल सरकार से गुलाम अली को आने और गजल गायिकी का आमंत्रण मिला जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। लेकिन इसपर हमें नए सिरे से सोचना होगा। संगीत तो दिलों और दो देशों को जोड़ने का काम करता है। लेकिन संगीत पर यह 'कत्लेआम' मचाकर क्या सियासत की रोटियां सेंकना ठीक है? क्या इन सबसे सियासत के ये नुमाइंदे वह सबकुछ हासिल कर लेंगे जो वो करना चाहते है। जरा सोचिए , संगीत के उन कद्रदानों पर क्या गुजरती होगी जो गजल को सुनने के लिए आस लगाए बैठे थे। संगीत में सियासत की यह कवायद और ऐसी ओछी राजनीति पर हमें सोचना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि आगे हमारे देश के किसी हिस्से में ऐसा नहीं हो।  

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