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करीब साढ़े चार साल जेल में बिताने के बाद कट्टरपंथी अलगाववादी नेता मसरत आलम को बीते दिनों मु्फ्ती सरकार ने रिहा कर दिया। इस फैसले से देशवासी न केवल हैरान रह गए बल्कि पूरे देश में इस फैसले के खिलाफ गुस्से का माहौल बन गया। मसरत की रिहाई के बाद विवाद इतना बढ़ गया कि बीजेपी को कुछ करते नहीं सूझ रहा। वहीं, जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन बीजेपी के लिए गले की हड्डी बनता जा रहा है। इस मामले में बीजेपी के लिए अब जवाब देना भारी पड़ता दिखाई दे रहा है। खासकर तब जब जम्मू कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार को बने अभी महज चंद दिन ही हुए हैं, लेकिन इस अल्प अवधि में ही मुफ्ती सरकार की ओर से जिस तरह के फैसले लिए गए और बयानबाजी हुई, उससे कई सवाल उठने लगे हैं। आखिर ऐसी कौन सी नौबत आ गई थी कि संगीन आरोपों का सामना कर रहे मसरत को जेल से रिहा करना पड़ा।
बता दें कि इस अलगाववादी नेता को अक्टूबर, 2010 में गिरफ्तार किया गया था। मसरत के खिलाफ 27 आपराधिक मामले दर्ज हुए, जिनमें हत्या की साजिश, षडयंत्र, देशद्रोह, गैरकानूनी गतिविधियां आदि शामिल हैं। कश्मीर में 2010 में हुए उग्र प्रदर्शनों में मसरत की बड़ी भूमिका थी। फरवरी, 2010 से उसे आठ बार हिरासत में लिया गया। हालांकि, अपनी सहयोगी बीजेपी के निशाने पर आई पीडीपी ने यह कहकर अपने कदम का बचाव किया कि अलगाववादियों के साथ बातचीत के लिए रचनात्मक माहौल पैदा करने के मकसद से उठाया गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी अलगाववादी को रिहा किए बिना घाटी में रचनात्मक माहौल नहीं बन सकता। यदि गहराई से देखें तो मसरत की रिहाई का कदम जम्मू-कश्मीर के शांतिपूर्ण माहौल में व्यवधान डालने की कोशिश है। जिस घाटी में आतंकवाद को बड़ी मशक्कत के बाद काबू पाया गया है, उस पर ये फैसला ये कुठाराघात के समान है। घाटी की शांति को बनाए रखने के लिए सभी सरकारों को बेहद सतर्कता से कदम उठाना चाहिए।
जिक्र योग्य है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ ही देर बाद अपने एक बयान में राज्य में चुनाव सुचारू रूप से संपन्न होने का श्रेय पाकिस्तान, हुर्रियत कांफ्रेंस और आतंकी संगठनों को दिया था। जबकि होना तो यह चाहिए था कि मुख्यमंत्री इस बात का श्रेय राज्य के लोगों, सुरक्षा बलों और चुनाव आयोग को देते। इस बयान से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ किस तरह का ये खिलवाड़ है। इसके अलावा, पीडीपी विधायकों की ओर से संसद हमले के दोषी अफजल गुरु के अवशेष की मांग करना यह दर्शाता है कि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी जम्मू कश्मीर को किस ओर ले जाना चाहती है।
कश्मीर घाटी में मसरत आलम की पहचान देश विरोधी कट्टरपंथी नेता की है। मसरत को पुलिस ने अक्टूबर 2010 में श्रीनगर के गुलाब बाग इलाके से 4 महीने की मशक्कत के बाद गिरफ्तार किया गया था। पुलिस एवं केंद्रीय एजेंसियों ने उसे पकड़ने के लिए एक सघन अभियान चलाया था। अलगाववादी मसरत पर 2008 से 2010 के बीच पत्थरबाजी के 'आतंक' की साजिश रचने का आरोप लगाया था और जम्मू-कश्मीर पुलिस ने 10 लाख का इनाम भी घोषित किया था। बता दें कि घाटी में पत्थरबाजी की घटना में आतंक का एक अलग चेहरा प्रस्तुत किया था, जिसमें सुरक्षा बालों के जवान सहित 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे और हजारों अन्य लोग घायल हुए थे। आलम की मुस्लिम लीग गिलानी के नेतृत्व वाले हुर्रियत के कट्टरपंथी धड़े का हिस्सा है। उसे उस राष्ट्र विरोधी प्रदर्शनों को हवा देने में कथित भूमिका के लिए गिरफ्तार किया गया था। केंद्र और प्रदेश सरकार उसे रोकने में नाकामयाब रही थी। मसरत राष्ट्रविरोधी प्रदर्शनों का मास्टरमाइंड रहा है। मसरत पर संवेदनशील इलाकों में भड़काऊ भाषण के आरोप भी लग चुके हैं। 2010 में उस पर सात बार पब्लिक सेफ्टी एक्ट भी लगाया गया। मसरत मुस्लिम लीग से संबंध रखता है और वह गिलानी का करीबी इसीलिए बन गया क्योंकि जब 2010 में हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी हड़ताल की कॉल देते थे तब मसरत के कहने पर नौजवान लड़के सड़कों पर आकर खूब पत्थरबाजी करते थे। पिछले चार साल से कश्मीर में शांति की एक बड़ी वजह यही थी कि मसरत जेल में था। हालांकि, ये कोई संयोग नहीं था कि उसकी गिरफ्तारी के बाद ये प्रदर्शन खत्म हो गए थे। अब चूंकि मसरत जेल से बाहर आ गया है, अब ये तो वक्त ही बताएगा कि घाटी में उत्पात नए सिरे से अपना पांव पसारती है या नहीं। हालांकि, अलगाववादियों की रिहाई का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ है बल्कि इसे मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद के उस एजेंडे की शुरुआत बताया जा रहा है, जिसे उन्होंने वर्ष 2005 में कांग्रेस को सत्ता सौंपने के साथ ही अधूरा छोड़ दिया था। वे खुद कई बार कह चुके हैं और यही कारण है कि यह माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में जेलों से और अलगाववादी नेता रिहा हो सकते हैं।
निश्चित तौर पर मुख्यमंत्री सईद का यह भारत विरोधी रुख है और इसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। कुछ राजनीतिक जानकारों का तो यह भी मानना है कि मौजूदा परिस्थिति को भांपते हुए बीजेपी को गठबंधन से निकल जाना चाहिए। वैसे भी आलम जैसे अलगाववादी की रिहाई और दूसरे फैसले देश की जनता के लिए चिंता का सबब बन गए हैं। यही वजह है कि इस गंभीर मुद्दे पर घिरी केंद्र सरकार को यह कहना पड़ा कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कुछ भी न्यौछावर करने को तैयार है और यह माना कि बीजेपी एवं पीडीपी के बीच वैचारिक मतभेद हैं। पथराव के मुख्य साजिशकर्ता आलम की रिहाई के कारण जम्मू कश्मीर में प्रतिबद्ध लोगों के साथ ही सुरक्षा बलों की ओर से बहुत कठिनाई से जम्मू कश्मीर में हासिल शांति को खतरा हो सकता है।
पीडीपी सरकार ने उन गैर आपराधिक आरोपों वाले राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की नीति अपनाई है, जिसके तहत घाटी की शांति निश्चित ही भंग होने का खतरा है। आलम को एक समय कट्टरपंथी नेता सैयद अली शाह गिलानी का करीबी समझा जाता था। साल 2010 में जब वह हड़ताल और पथराव आंदोलन की रूपरेखा तय कर रहा था उसी समय उस पर नकद इनाम घोषित किया गया था। पुलिस ने जब राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के लिए उसकी तलाश शुरू कर दी तो वह भूमिगत हो गया था। भूमिगत रहने के कारण आलम सीमा पार के अपने आकाओं के करीबी संपर्क में था और उसने गिलानी को हाशिये पर डालते हुए कट्टरपंथी अलगाववादी राजनीति में मुख्य भूमिका निभानी शुरू कर दी। अब इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि मसरत जैसे लोग इतनी आसानी से रिहा किए जाएंगे तो अलगाववादियों और आतंकियों को हौसला तो बढ़ेगा ही। जो कभी भी घाटी में अमन चैन को बिगाड़ने के लिए अपनी साजिश को अमलीजामा पहना सकते हैं।
हालांकि बीजेपी ने इस कदम का कड़ा विरोध किया है, लेकिन मुफ्ती सरकार इसी तरह के फैसले को आगे बढ़ाते रहे तो जम्मू कश्मीर में सत्ताधारी गठबंधन को खतरा पैदा हो सकता है। यदि ये गठबंधन टूटता भी है तो किसी को इस पर अफसोस नहीं होना चाहिए। चूंकि ये राष्ट्रहित और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा होगा। देश भर में आलम की रिहाई पर लोगों में आक्रोश है और देश की सुरक्षा के साथ यह एक खिलवाड़ है। सभी का मानना है कि इससे जम्मू-कश्मीर की शांति खतरे में पड़ सकती है। इसमें कोई संशय नहीं है कि मशरत आलम जैसे अलगाववादी नेता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है क्योंकि वह कोई राजनीतिक कैदी नहीं बल्कि उसकी कार्यशैली एक आतंकी की तरह है। ऐसे ही राष्ट्रद्रोही, पाकिस्तान समर्थक नेताओं को रिहा किया जाता रहा तो बीजेपी को इस गठबंधन पर जरूर सोचना चाहिए। बीजेपी खुद भी कह रही है कि राष्ट्रद्रोही नेताओं की रिहाई उस न्यूनतम साझा कार्यक्रम का उल्लंघन है, जिस पर गठबंधन सरकार बनाने को लेकर सहमति बनी थी। आतंकियों की रिहाई और उनका पुनर्वास इसका हिस्सा नहीं था। बीजेपी को इस तरह के घातक फैसलों पर सख्त स्टैंड लेना चाहिए।
इस बात की आशंका गहराती जा रही है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बने आलम की रिहाई से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद बढ़ सकता है। पूरे घटनाक्रम को गहराई से देखें तो आलम आतंकियों से भी ज्यादा खतरनाक है। सुरक्षा बलों ने भी आलम की रिहाई से जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा को खतरा बताया। कश्मीर घाटी की शांति के लिए यह बड़ा जोखिम होगा जहां आलम ने पत्थरबाजी से लैस दो बड़े प्रदर्शन कराए और जिसमें कई लोगों की जानें गईं। घाटी के जानकारों का तो यह भी मानना है कि वह गिलानी से भी ज्यादा ताकतवर नेता है और उसके पास पत्थरबाजों एवं युवाओं की बड़ी फौज है।
होना तो यह चाहिए कि मशरत आलम को फिर से सलाखों के पीछे भेज देना चाहिए ताकि राज्य में आतंकवाद को और बढ़ावा ने मिले। सरकार को किसी भी सूरत में ऐसे लोगों को रिहा नहीं करना चाहिए। कोई भी शख्स जो भारत विरोधी जहर फैलाता है, उसका खुले में घूमना देश को गंभीर मुश्किल में डाल सकता है। इस तरह के लोगों को बिना शर्त यदि ऐसे ही छोड़ा जाता रहा तो आने वाले समय में इसके भीषण दुष्परिणाम सामने आएंगे।