'फांसी' पर न हो सियासत
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'फांसी' पर न हो सियासत

मुंबई में सीरियल बम ब्‍लास्‍ट के दोषी याकूब मेमन को फांसी दे दी गई, लेकिन उसकी सजा-ए-मौत के ऐलान से लेकर फांसी के तख्‍ते तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान जिस तरह की सियासत देश के अंदर देखने को मिली, वह कतई उचित नहीं है। देश के सामाजिक ताने-बाने, एकजुटता, सामाजिक सदभाव व समरसता एवं शांति के मद्देनजर किसी भी दोषी शख्‍स की फांसी को लेकर देश के अंदर माहौल ऐसा होना चाहिए ताकि किसी समुदाय विशेष को निशाना न बनाया जा सके।

बिमल कुमार

मुंबई में सीरियल बम ब्‍लास्‍ट के दोषी याकूब मेमन को फांसी दे दी गई, लेकिन उसकी सजा-ए-मौत के ऐलान से लेकर फांसी के तख्‍ते तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान जिस तरह की सियासत देश के अंदर देखने को मिली, वह कतई उचित नहीं है। देश के सामाजिक ताने-बाने, एकजुटता, सामाजिक सदभाव व समरसता एवं शांति के मद्देनजर किसी भी दोषी शख्‍स की फांसी को लेकर देश के अंदर माहौल ऐसा होना चाहिए ताकि किसी समुदाय विशेष को निशाना न बनाया जा सके। वैसे भी आतंकवाद को किसी खास धर्म या समुदाय से जोड़ना बिल्‍कुल गलत है। चूंकि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और इस तरह के जघन्‍य व बर्बर कृत्‍य में शामिल होने की इजाजत दुनिया का कोई धर्म नहीं देता।

सुप्रीम कोर्ट में याकूब की याचिका खारिज होने के बाद उसकी फांसी की सजा को लेकर सियासत ने खासा जोर पकड़ लिया। मेमन को मिली मौत की सजा को लेकर विवाद पैदा करते हुए एक पार्टी के प्रमुख और लोकसभा सांसद ने सवाल उठाया था कि क्या अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराए जाने, मुंबई और गुजरात में सांप्रदायिक दंगों तथा दूसरे ऐसे सनसनीखेज मामलों में भी इसी तरह की सजा दी जाएगी। मुस्लिम नेता तो यहां तक कह गए कि राजीव गांधी और बेअंत सिंह के हत्यारों को कुछ राजनीतिक दलों का समर्थन मिला हुआ है, इसलिए उन्‍हें मौत की सजा नहीं दी गई। इसके अलावा, कुछ अन्‍य मुस्लिम नेता भी याकूब की फांसी के विरोध में असार्थक बयानबाजी करने लगे। कुछ नेताओं ने यह भी कहा कि मेमन को फांसी की सजा उसके धर्म के कारण दी गई। दरअसल, टाडा अदालत की ओर से याकूब का डेथ वारंट जारी होने के बाद ही सियासत गर्मा गई। एक राष्‍ट्रीय पार्टी के नेता एवं वरिष्ठ वकील ने इसे जल्दबाजी में उठाया गया कदम बताते हुए सरकार की मंशा पर सवाल उठाया। वहीं, मुंबई के एक विधायक ने याकूब मेमन को बेगुनाह बताया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आतंकवाद के मुद्दे पर साम्प्रदायिक राजनीति करना उचित है? क्‍या ऐसे मामलों को धर्म से जोड़ना भी उचित है? जबकि आतंकवाद के मुद्दे पर सांप्रदायिक राजनीति करने बदतर कुछ नहीं हो सकता। देश में यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनेता किसी मौके या मुद्‌दे का लाभ उठाने की कोशिश से बाज नहीं आते। महज स्‍वार्थ और वोट बैंक की राजनीति देश को कभी एकसूत्र में पिरोने नहीं देगी। सभी राजनीतिक दलों को आतंकवाद और न्याय व्यवस्था से जुड़े मसलों पर समान रुख अपनाना चाहिए ताकि कानून के प्रति आस्‍था बनी रहे और शासन व्यवस्था की भी साख बनी रहे।

दूसरी ओर, कुछ हिंदू नेताओं और सांसदों ने इन बयानों पर पलटवार करते हुए यहां तक कह डाला कि याकूब का समर्थन करने वालों को पाकिस्‍तान चले जाना चाहिए। जाहिर ऐसे बयानों से लोगों के बीच नफरत ही पनपेगी। एक हिंदू नेता ने अपनी विवादास्पद टिप्पणी में यह आरोप भी जड़ दिया कि कुछ दलों के मुसलमान नेता भारत को धमकाने के लिए आतंकियों के संरक्षक’ की तरह काम कर रहे हैं। निश्चित ही नेताओं के अपने ऐसे बयानों पर संयम बरतना चाहिए। चूंकि वे न सिर्फ जनता के नुमाइंदे हैं बल्कि देश के अंदर भाईचारा बनाए रखने की जिम्‍मेदारी पर बहुत हद तक उनके कंधों पर भी है। इन्‍हें पूर्व के कुछ वाकयों से जरूर सीख लेनी चाहिए कि अनर्गल बयानों से किस तरह समुदाय के बीच हिंसा की भावना बलवती होती है। हालांकि मौत की सजा देने का फैसला सुप्रीम कोर्ट करती है और सरकार इसमें प्रक्रियागत रूप से शामिल होती है। तो इसमें यह भी विशेष तौर से ध्‍यान रखना चाहिए कि फांसी जैसे अत्‍यंत गंभीर मसले पर पूरी तरह गोपनीयता बरती जाए। याकूब के मृत्युदंड को लेकर महज कुछ लोगों की ओर से इसका राजनीतिकरण करना और इसे सांप्रदायिक रंग देना पूरी तरह गलत है, चाहे वो किसी भी पार्टी के हों या किसी भी समुदाय से।

53 साल के याकूब को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद नागपुर केंद्रीय कारागार में फांसी दे दी गई। इस तरह पिछले चार सालों में केवल आतंकी मामलों में यह तीसरा मामला है, जब किसी को फांसी दी गई हो। मेमन से पहले संसद पर हमला मामले के दोषी मोहम्मद अफजल गुरु को नौ फरवरी 2013 को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी। इस समय भी धर्म के आधार पर फांसी दिए जाने की शिकायतों ने जोर पकड़ लिया था। वहीं, 26/11 हमले में एकमात्र जीवित पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब को 21 नवंबर 2012 को पुणे के येरवदा जेल में फांसी दी गई थी। अफजल गुरु और कसाब को फांसी दिए जाने के समय काफी गोपनीयता बरती गई थी लेकिन याकूब मेमन के मामले में ऐसा नहीं हुआ। किसी जघन्‍य मामले में कानूनन दिए गए फैसलों को सांप्रदायिक चश्मे से देखा जाएगा तो समस्याएं उत्‍पन्‍न होती हैं। इस प्रवृत्ति पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।

हालांकि, याकूब की फांसी की सजा पर अंतिम मुहर लगने तक कानूनी तौर पर  कुछ अतिरिक्‍त समय जरूर लगा और कानूनी क्षेत्र से मिश्रित प्रतिक्रियाएं जरूर आईं लेकिन आतंकवाद के मामलों में कानूनन लिए गए फैसलों पर कोई सवाल नहीं उठने चाहिए। हालांकि कुछ लोगों ने डेथ वारंट जारी करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया पर सवाल उठाए, लेकिन यह होना नहीं चाहिए था। हमें शीर्ष न्यायालय के फैसले का सम्‍मान करना चाहिए। देश की शीर्ष अदालत ने भी माना कि अपने गुनाह के लिए याकूब कठोरतम दंड यानी सजा-ए-मौत का हकदार है। 1993 में मुंबई में हुए सीरियल बम ब्‍लास्‍ट एक जघन्‍य आतंकी कार्रवाई थी और 257 लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी थी। इस आतंकी कार्रवाई में और जो भी अन्‍य शामिल थे, उन्होंने इंसानियत के खिलाफ गुनाह किया। याकूब के अलावा उन्‍हें भी कठोरतम दंड मिलना चाहिए। वहीं, राजनीतिक दलों, नेताओं, संगठनों को सजा-ए-मौत जैसे मामलों पर गंभीरता और संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। किसी दोषी को फांसी की सजा का फैसला न्‍यायालय करती है। ऐसे में हमें महज राजनीतिक स्‍वार्थ के चलते ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए कि देश के अंदर सांप्रदायिकता को हवा मिले। यह हर भारतीय में होना चाहिए कि हम हिंसा और आतंकवाद वाले धार्मिक कट्टरपंथ से दूर रहें। हमें उदारवादी होकर धर्मनिरपेक्ष के मूल का खुद में समावेश करना चाहिए।

बम ब्‍लास्‍ट जैसे मामलों में दोषी व्‍यक्ति के धर्म का ध्यान रखे बिना आतंकवाद के सभी मामलों में पूरी तत्‍परता दिखाई जानी चाहिए ताकि देश के अंदर सांप्रदायिक सदभाव बना रहे। जिस तरह याकूब मेमन के मामले में न्यायपालिका और सरकार की तरफ से प्रतिबद्धता दिखाई गई, वैसे ही जाति और धर्म का ध्यान रखे बिना सभी मामलों में होना चाहिए। केवल सांप्रदायिकता की राजनीति पर जरूर लगाम लगाना चाहिए। इस बात की अपेक्षा हम ही नहीं बल्कि तकरीबन सभी देशवासी करते हैं।

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