बिहार में क्यों हारी भाजपा और एनडीए?
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बिहार में क्यों हारी भाजपा और एनडीए?

बिहार में नीतीश-लालू-कांग्रेस के महागठबंधन की प्रचंड जीत दर्ज करने के साथ ही भाजपा-एनडीए के अंदर और बाहर इस बात पर मंथन शुरू हो गया है कि जिस पार्टी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा प्रखर वक्ता हो, अमित शाह जैसा चुनाव रणनीति बनाने वाला चाणक्य हो और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की फौज हो, उसकी इतनी बड़ी हार, कहें तो शर्मनाक हार कैसे हो गई। लोकतंत्र में हार और जीत एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। किसी एक गठबंधन को तो हारना ही था सो भाजपा गठबंधन हार गई। 

ऐसा माना जाता है कि भारत के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है बिहार जहां गरीबी और पिछड़ेपन का बड़ा कारण जाति आधारित राजनीति रही है। ये बिहार का दुर्भाग्य है कि हर राजनीतिक दल चुनाव के वक्त तो विकास की बात करता है, लेकिन जब मतदान की तारीख ज्यों-ज्यों नजदीक आता है, जातिवादी राजनीति में सब कुछ गोल हो जाता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह जातिवादी राजनीति के इस गणित को समझने में धोखा खाकर बिहार को हासिल करने का मौका गंवा बैठे।

महागठबंधन की जीत का चाणक्य कौन? जानने के लिए Click करें

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार चुनाव को जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा थी। भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद यह पहला मौका था जब किसी प्रांतीय चुनाव में कोई प्रधानमंत्री 40 से अधिक चुनावी सभाएं की हो। मोदी की पूरी कैबिनेट, भाजपा के 50 सांसद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हजारों कार्यकर्ता बिहार के चुनावी मैदान में दिन रात सक्रिय रहे। कुल मिलाकर मोदी ने बिहार के इस चुनाव को नीतीश बनाम मोदी का मुकाबला बना दिया था। फिर भी चुनाव हार जाना भाजपा के लिए यक्ष प्रश्न जैसा लगता है।

बिहार के डीएनए और जंगलराज पर हमला
बिहार का डीएनए, लालू को शैतान की उपाधि देना, भाजपा हारी तो पाकिस्तान में छूटेंगे पटाखे, चारा चोर लालू ये कुछ तथ्य हैं जिसने भाजपा की जीत पर मतगणना से पहले ही ग्रहण लगा दिया था। बिहार में विवादित बयानों की शुरूआत 25 जुलाई 2015 को मुजफ्फरपुर में पीएम मोदी के बयान से हुई। मुजफ्फरपुर में एक कार्यक्रम में पहुंचे पीएम मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने ही उनके राजनीतिक डीएनए पर सवाल उठा दिया था। उनके इस बयान को नीतीश ने मुद्दा बनाते हुए पूरे राज्य में अभियान छेड़ दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को 50 लाख बिहारियों का डीएनए जांच के लिए भेज दिया। 

उसके बाद पीएम मोदी ने अब तक की सभी परिपाटियों को बदलते हुए लालू को शैतान तक कह दिया। मोदी ने कहा कि आपके गांव में, शरीर में कभी शैतान आ सकता है? लेकिन लालूजी ने जैसे रिश्तेदार आते हैं, उस शैतान को पहचान लिया है। मेरे मन में सवाल है इस शैतान को यही पता कैसे मिला जिसका पता शैतान ने ढूंढ लिया है। बिहार उसकी तरफ कभी नहीं देखेगा। हम समझते थे हमारी लड़ाई इंसान से है, लेकिन शैतान हमारे पीछे पड़ा हुआ है।'

27 अक्तूबर को बेतिया में एक चुनाव रैली के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि अगर भाजपा बिहार में चुनाव हारी तो जेल में बैठा शाहबुद्दीन खुश होगा और पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। उससे पहले अमित शाह ने एक अक्तूबर को बेगूसराय में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री तथा राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चारा चोर हैं। उन्होंने कहा कि चारा चोर लालू की वजह से ही बिहार बदनाम हुआ। दरअसल, इन बयानों से लालू, नीतीश के मतदाता बहुत ज्यादा आहत हुए। मोदी और भाजपा की नकारात्मक राजनीति के उदाहरण हैं जिसकी वजह से भाजपा को नुकसान हुआ।

आरक्षण को लेकर मोहन भागवत का बयान
बिहार में चुनाव की शुरूआत होने से ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने बयान दिया कि संविधान में आरक्षण के प्रावधान की समीक्षा किये जाने की जरूरत है। मोहन भागवत को चुनाव से ठीक पहले इस तरह के बयान देने की जरूरत क्यों पड़ी, भाजपा के किसी भी नेता के पास इसका स्पष्ट जवाब नहीं था। भागवत ने बैठे-बिठाये महागठबंधन के नेता लालू और नीतीश कुमार को मौका दे दिया। इस मुद्दे को पिछड़ी जातियों के मतदाताओं के बीच लेकर पहुंचे लालू ने यहां तक कह डाला कि आप लोग ये जान लो कि अगर बिहार में भाजपा की सरकार बनी तो आरक्षण छीन लिया जाएगा। इसका जबरदस्त असर हुआ और परिणाम आपके सामने है।     

दादरी हत्याकांड, बीफ प्रकरण और असहिष्णुता
बिहार चुनाव में भाजपा और एनडीए की बुरी हार के पीछे दादरी हत्याकांड और गोमांस व बीफ प्रकरण पर शर्मनाक बयानबाजी का बड़ा हाथ रहा। दादरी में जिस तरह से गोमांस की आड़ में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई और जिस तरह से उसमें भाजपा के कुछ छुटभैये नेताओं के नाम सामने आए उसकी गूंज बिहार तक पहुंच गई। यह प्रकरण हिन्दू वोट को तो ध्रुवीकृत नहीं कर पाया, लेकिन मुस्लिम मतदाताओं में डर जरूर पैदा हो गया और वो सब एकजुट होकर महागठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में वोटिंग कर दी। उसके बाद चुनाव के दौरान दादरी हत्याकांड और कलबुर्गी हत्याकांड की आड़ में असहिष्णुता को बहाना बनाकर साहित्यकारों, लेखकों द्वारा अवॉर्ड वापसी ने भाजपा की नकारात्मक छवि को पेश किया।

विकास को छोड़ जातीय राजनीति में फंसना
पीएम मोदी और अमित शाह की भाजपा ने बिहार में विकास का एजेंडा छोड़कर जातीय राजनीति में कूद जाना आत्महत्या करने जैसा साबित हुआ। बिहार की राजनीति को भाजपा के चाणक्य समझ नहीं पाये और लालू के बिछाये जाल में उलझकर अपने विकास के आजमाये फार्मूले को छोड़कर जातिवाद के चंगुल में फंस गए। लालू यादव के मुस्लिम-यादव समीकरण को तोड़ने के लिए भाजपा ने भारी संख्या में यादव उम्मीदवार उतारे ताकि यादवों का वोट बंट जाए। लेकिन इसका असर बिल्कुल उलटा हुआ। वह ऐसे कि भाजपा के अहम दावेदारों की सीट काटकर यादव उम्मीदवारों को तरजीह दी गई जिससे यादव वोट तो नहीं ही मिले, वो वोट भी अंतरकलह में छिटक गए जो भाजपा का असली वोट बैंक था। भमिहार और ब्राह्मणों को कम सीट देना भी भाजपा के लिए काफी नुकसानदेह रहा। 

नेता का संकट और टिकट बंटवारे में गड़बड़ी
बिहार चुनाव में भाजपा गठबंधन की बड़ी हार के पीछे एक सबसे बड़ी वजह नेता का संकट भी रहा। नीतीश कुमार की बिहार में अच्छी साख है। महाराष्ट्र, हरियाणा या झारखंड के विपरीत यहां कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं थी। चुनाव-पूर्व कई सर्वेक्षणों में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का अच्छा उम्मीदवार बताया गया। हर व्यक्ति इस बात पर सहमत था कि मुख्यमंत्री के रूप में वे सबसे बेहतर विकल्प हैं। इस बात का ध्यान रखते हुए महागठबंधन ने शुरू में ही नीतीश कुमार को अपना नेता घोषित कर दिया था। एनडीए ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी उम्मीदवार को पेश नहीं कर गलती की। भाजपा के चाणक्य इस बात को समझ नहीं पाये कि बिहार की सियासी जमीन अन्य राज्यों (महाराष्ट्र) से काफी अलग है। नीतीश के मुकाबले कौन? बिहार के मतदाता इस बात को जानने के लिए उत्सुक थे। ताकि ये समझ में आए कि भाजपा को जो चेहरा होगा वह बिहार के लिए कितना मुफीद होगा। भाजपा ऐसा नहीं कर सकी और इसका नुकसान उसे चुनाव में बड़ी हार के रूप में उठाना पड़ा।

ऐसा माना जा रहा है और चुनाव के दौरान भी भाजपा के अंदर इस बात को लेकर बेहद असंतोष था कि टिकट बंटवारे में हाईकमान ने बिहार के मतदाताओं पर उम्मीदवार ऊपर से थोपे। भाजपा के चाणक्य को ये लगा कि जो लोग राजद या जेडीयू में चुनाव जीतते आ रहे हैं उनको पार्टी में शामिल कर टिकट दे दिए जाएंगे तो हम महागठबंधन को काफी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस मतिभ्रम में भाजपा बुरी तरह से फंस गई और टिकट के असली दावेदार पार्टी से नाराज हो गए। पार्टी को इसकी कीमत भाजपा में अंतरकलह के रूप में चुकानी पड़ी। शत्रुघ्न सिन्हा, आरके सिंह जैसे दिग्गज भाजपा नेता की उपेक्षा भी भाजपा की हार का प्रमुख कारण बनी।   

इसके अलावा शुरुआती उम्मीदों के विपरीत सपा, बसपा, एनसीपी, एआईएमआईएम के उम्मीदवार और पप्पू यादव का ज्यादा प्रभाव नहीं बना पाना, बिजली मिली कि नहीं को लेकर मोदी की गलत बयानबाजी, महिलाओं का नीतीश सरकार से अथाह प्रेम आदि मुद्दे ऐसे रहे जिसने भाजपा की लुटिया डुबोई। लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच की केमिस्ट्री और गणित दोनों ने उस भाजपा की तुलना में बेहतर असर पैदा किया जो जंगलराज की बात तो करती है लेकिन 'अपराधियों और डॉन को टिकट भी देती है। 

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