Gangubai Kathiawadi Review: 3 हीरोज के बीच 'माफिया क्‍वीन' का किस्‍सा, जहां सब है बस क्‍लाइमेक्‍स नहीं!
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Gangubai Kathiawadi Review: 3 हीरोज के बीच 'माफिया क्‍वीन' का किस्‍सा, जहां सब है बस क्‍लाइमेक्‍स नहीं!

बॉलीवुड एक्ट्रेस आलिया भट्ट (Alia Bhatt) की नई फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' (Gangubai Kathiawadi) रिलीज हो गई है. फिल्म देखने से पहले इस रिव्यू को जरूर पढ़ें.

आलिया भट्ट

कास्ट: आलिया भट्ट, शांतनु महेश्वरी, वरुण कपूर, विजय राज, सीमा पाहवा, इंदिरा तिवारी, जिम सर्भ और अजय देवगन
निर्देशक:  संजय लीला भंसाली
स्टार रेटिंग: 2.5
कहां देख सकते हैं: थिएटर्स में

  1. गंगूबाई काठियावाड़ी हुई रिलीज
  2. जानें कैसी है आलिया की ये मूवी?
  3. फिल्म देखने से पहले पढ़ें ये रिव्यू

नई दिल्ली: एक आम बॉलीवुड मसाला मूवी में कुछ फैक्टर जरूरी होते हैं. एक हीरो, एक हीरोइन, एक विलेन और अच्छा सा क्लाइमेक्स. क्लाइमेक्स पर फोकस इसलिए क्योंकि पूरी फिल्म बुनते-बुनते डायरेक्टर अक्सर गलती करते हैं कि क्लाइमेक्स पर ध्यान नहीं देते, जो पूरी मूवी का निचोड़ होता है और दर्शक के लिए एक तरह का ‘टेक अवे’, यानी वो क्लाइमेक्स देखने के बाद अपनी अंतिम राय मूवी के बारे में बनाता है और अपने मिलने वालों को बताता है कि मूवी कैसी थी. संजय लीला भंसाली की इस मूवी में तीन-तीन हीरो होने के बावजूद कोई हीरो नहीं है, आलिया भट्ट ही हीरो हैं और वही हीरोइन. दूसरे कोई विलेन भी नहीं है, विजय राज पहले विलेन लगते हैं, लेकिन वो छोटे स्तर के विलेन साबित होते हैं, तीसरे मूवी का कोई क्लाइमेक्स ही नहीं है, था भी तो सेंसर बोर्ड ने एक ऐसा सीन काट दिया, जिसकी लोग चर्चा करते. यूं भी ये मूवी संजय लीला भंसाली के लिए एक बड़ा रिस्क है, क्योंकि कहां वो 'बाजीराव मस्तानी', 'पद्मावत' और 'रामलीला' जैसी मूवीज रणवीर-दीपिका जैसे सुपरस्टार कपल के नाम पर बनाते रहे और कहां बिना हीरो के अकेली आलिया भट्ट.

कैसा है गंगूबाई का किरदार?

मान लीजिए कि गंगूबाई कोई असली किरदार नहीं थी, बल्कि एक काल्पनिक किरदार थी. अब सोचिए कि जिस किरदार को आप मुख्य पात्र बना रहे हों, वो इतना कमजोर साबित होता है कि सैकड़ों लड़कियों के बीच उसके घर में कोई उसका बुरी तरह रेप करके चला जाता है और वो कुछ नहीं कर पाती, अंडरवर्ल्ड के डॉन के दरवाजे पर जाती है. फिर रजिया के रोल में अकेला विजय राज उसकी पूरी गैंग के सामने खाने में शराब मिलाकर चला जाता है, वो फिर भी कुछ नहीं कर पाती. पुलिस उसके ठिकाने पर रेड डालकर लड़कियों को पीटती है, बेबस होकर उसे पैसे देने पड़ते हैं, स्कूल वाले उसके कोठे पर चढ़ आते हैं, फिर भी वो कुछ नहीं कर पाती. कहने का मतलब ये है कि जिसे आप नायक की तरह पेश कर रहे हो, वो कई बार पिटने के बाद एक बार तो आक्रामक मोड में आकर बदला लेता है, लेकिन गंगूबाई ऐसा कुछ नहीं करती. वो बस डायलॉग मारती है. 

खटकती है ये बात

ऐसे में दर्शकों की नजर में वो नायिका के तौर पर, एक दमदार किरदार के तौर पर नहीं उभरती. फिर बार-बार ये बताया गया है कि वो कमाठीपुरा की लड़कियों के भले के लिए इतने बड़े काम कर रही है कि प्रधानमंत्री तक उसके बारे में जानते थे. व्यक्तिगत तौर पर चुनाव जीतने के लिए उसने दो या तीन लड़कियों की मदद की, मूवी में बस यही दिखाया गया. कमाठीपुरा की प्रेसीडेंट होने के नाते स्कूल वालों ने उसे निशाना बनाया और उसने केवल बोलकर विरोध किया, लेकिन ना कोई प्रदर्शन किया, ना ही कोई मोर्चा निकाला और ना ही कोई वकील किया, जो कोर्ट में उनका केस लड़ सके, तो ऐसे क्या उसने काम किए जिससे पीएम उसे जान गए थे, किसी के निमंत्रण पर एक कार्यक्रम में भाषण के सिवा. अपने कोठे की कुछ बच्चियों को स्कूल में एडमिशन दिलाते और कुछ का बैंक खाता खोलने की तैयारी करते जरूर दिखाया था.

आलिया के कंधों पर टिकी फिल्म

ऐसे में जो काम दीपिका, रणवीर और शाहिद के जिम्मे था, वो अकेली आलिया के कंधों पर डाल दिया गया, वो भी तब जब किरदार दमदार नहीं लगता. या तो असलियत के ज्यादा करीब लाने के लिए भंसाली ने उसे ताकतवर नहीं दिखाया. लेकिन आपने 'बाजीराव मस्तानी' में बाजीराव को योद्धा कम रोमांटिक ज्यादा दिखाया था, आपने गंगूबाई का ड्रग पैडलर रूप गायब करके उसे बस शराब स्मगलर ही दिखाया. ऐसे में गंगूबाई को दमदार दिखाने में क्या बुरा था? जाहिर है ऐसे में संजय लीला भंसाली के लिए ये मूवी बड़ा रिस्क है. जो हसन जैदी की किताब ‘माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई’ पर बनाई गई है.

ऐसी है फिल्म की कहानी

मूवी की कहानी है मुंबई के बदनाम इलाके कमाठीपुरा की, जहां कोठे चलाने वाली मौसी (सीमा पाहवा) के यहां 60 के दशक में एक लड़की कोई बेच जाता है, जो काठियावाड़ के एक बैरिस्टर की बेटी गंगा (आलिया भट्ट) थी. जो उसी लड़के के प्रेम में गिरफ्तार थी और हीरोइन बनने के लालच में अपने घर से उसके साथ भाग आई थी. धीरे धीरे वो उस कोठे पर ही जम जाती है, मौसी को ही चुनौती देने लगती है. जब रहीम लाला (असली में कभी मुंबई का डॉन करीम लाला) यानी अजय देवगन का एक आदमी उसके साथ कोठे पर बुरी तरह रेप करता है तो वह रहीम लाला के दर पर गुहार लगाती है और वो अगली बार उस आदमी को वहीं आकर बुरी तरह मारता है. इससे गंगूबाई की भी धाक जम जाती है. फिर मौसी की मौत के बाद गंगूबाई ही उस कोठे की मालकिन बन जाती है.
फिर उसे चस्का लगता है कमाठीपुरा की प्रेसीडेंट बनने का, उसके रास्ते में आती है रजिया (विजय राज), कमाठीपुरा की सालों से प्रेसीडेंट. उनके आपसी टकराव के बाद उसकी रास्ते में दूसरी बड़ी दिक्कत बनकर सामने आता है उस इलाके का 40 साल पुराना गर्ल्स स्कूल. जो चाहता है कि कमाठीपुरा से कोठे हटा दिए जाएं, वहीं कुछ लोग बिल्डर्स से भी उस इलाके को विकसित करने के लिए हाथ मिला लेते हैं. ऐसे में पत्रकार सैफी (जिम सर्भ) उसकी मदद करता है और एक दिन वो प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मुलाकात करके अपनी मांग रखने में कामयाब हो जाती है.

बनावटी लगता है सेट 

मूवी का सबसे दमदार पक्ष है कि हमेशा की तरह संजय लीला भंसाली ने पुराने जमाने को अच्छी तरह ढालने की कोशिश की है, कुछ सीन्स, सेट वाकई में बेहद अच्छे बन पड़े हैं. लेकिन एक ही गली में थिएटर, डेंटिस्ट, उसके लवर टेलर का घर, रजिया का कोठा आदि होने से लगने लगता है एक ही गली की कहानी है, फिर हर खम्भे, हर नुक्कड़ पर पुरानी फिल्मों के पोस्टर की भरमार उसे किसी बॉलीवुड थीम रेस्तरां जैसा लुक भी देती है, सो कई बार वो सेट बनावटी भी लगता है.

आलिया की एक्टिंग ने जीता दिल 

मूवी का दूसरा और बड़ा दमदार पक्ष है, आलिया भट्ट की एक्टिंग. हालांकि उनकी रॉयलनेस, उनका अभिजात्य रंग ढंग वो छुपा नहीं पातीं, फिर भी डायलॉग डिलीवरी और अपने इमोशंस को उड़ेलने में उनका जवाब नहीं, सो वो कमजोर नहीं पड़तीं. कई सीन्स में वह बेहतरीन लगी हैं. असल दिक्कत पहले ही पैराग्राफ में लिख दी है कि जब किरदार ही कमजोर रचा गया हो, जो जवाब नहीं देता हो, बदले नहीं लेता, हर बात के लिए डॉन के दरबार में दिखता हो, उस किरदार में कितनी जान डालतीं आलिया भट्ट. फिर हर बार लगता है कि ये किरदार इस मूवी में आगे जाएगा, दर्शक उससे जुड़ने लगता है, जैसे कभी टेलर के बेटे अफसान (शांतनु माहेश्वरी) के साथ, कभी रजिया तो कभी रमणीक लाल के किरदार के साथ, कभी रहीम लाला तो कभी पत्रकार सैफी के किरदार के साथ, लेकिन ये सब किरदार कब अचानक से गायब या साइड लाइन कर दिए जाते हैं, पता ही नहीं चलता. 

फिल्म के गाने हैं दमदार

संजय लीला भंसाली की लड़ाई खुद से ही है, जैसे लार्जर दैन लाइफ फिल्में उन्होंने बनाई हैं. उनसे उम्मीद और भी ज्यादा बढ़ जाती है. लेकिन वो लार्जर दैन लाइफ गंगूबाई नहीं लगती. उसकी कहानी कई बार तो ऐसे लगती है, जैसे कोई बड़ा मोड़ आना चाहिए, जो आता नहीं है, फिर क्लाइमेक्स में नेहरू का गंगू के बालों में गुलाब लगाने वाला सीन भी सेंसर बोर्ड ने कटवा दिया. क्लाइमेक्स पहले ही कुछ खास नहीं था. इसके बाद और भी बेकार हो गया. म्यूजिक कर्णप्रिय है, गाने अच्छे से शूट हुए हैं, लेकिन वो उनकी पुरानी मूवीज के आगे कहीं नहीं ठहरते, रणवीर-दीपिका जैसी ऊर्जा गायब ही लगती है. ऐसे में ये कहना कि ये मूवी केवल आलिया भट्ट के कंधों पर डालकर संजय लीला भंसाली ने बड़ा रिस्क लिया है तो ये कहना वाकई में सच है.

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