Maidaan Movie Review: मुख्तार अंसारी या सैय्यद अब्दुल रहीम, ‘मैदान’ बताएगी कौन होना चाहिए असली नायक
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Maidaan Movie Review: मुख्तार अंसारी या सैय्यद अब्दुल रहीम, ‘मैदान’ बताएगी कौन होना चाहिए असली नायक

Maidaan Movie Review: अजय देवगन की फिल्म 'मैदान' 10 अप्रैल को रिलीज हो रही है. फिल्म रिलीज से पहले एक बार इस फिल्म का रिव्यू भी पढ़ लीजिए और जानिए कि कैसी है अजय देवगन की ये लेटेस्ट रिलीज होने वाली वाली फिल्म.

मैदान फिल्म रिव्यू

निर्देशक: अमित रवीन्द्र नाथ शर्मा

स्टार कास्ट: अजय देवगण, प्रियमणि, गजराज राव, रुद्रनील घोष, चैतन्य शर्मा, देवेन्द्र गिल, ऋषभ जोशी आधि

कहां देख सकते हैं: थियेटर में

स्टार रेटिंग: 3.5

Ajay Devgn Film Maidaan: ये मूवी ऐसे दौर में आई है, जब मुख्तार अंसारी का दौर खत्म हो चुका है और फुटबॉल का भी. फिल्म मुख्तार को मानने वालों को बिना नाम लिए भी एक मैसेज देती है कि उना असली नायक कौन होना चाहिए, वहीं भारत को याद दिलाती है कि 64 सालों में हम फुटबॉल से उम्मीदें तोड़ चुके हैं, लेकिन कभी हम विश्व की टॉप टीमों में भी गिने जाते थे, आज भी ऐसा हो सकता है अगर कोई सैय्यद अब्दुल रहीम जैसा फुटबॉल के लिए जान देने वाला कोच मिल जाए तो.

कमियों पर भारी पड़े अजय देवगन
अजय देवगन की ये फिल्म कोरोना और बाकी दिक्कतों के चलते कई बार अटकी, इसका सैट भी तीन बार अलग अलग वजहों से टूटा, ऐसे में जो परेशानियां हुईं, उसका साफ असर फिल्म की मेकिंग पर भी दिखता है. खासतौर पर स्क्रीन प्ले में, फिल्म रिलीज होगी तो तुलना चक दे इंडिया, जो जीता वही सिकंदर या गोल्ड जैसी फिल्मों से तुलना की जाएगी. लेकिन अजय देवगन की एक्टिंग और फिल्म का दूसरा हाफ बाकी सभी कमियों पर भारी पड़ गया. ऐसे में फुटबॉल और अजय देवगन के फैन के लिए तो ये मूवी मस्ट वॉच ही बन गई है.

 

 
 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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फिल्म की कहानी एकदम सच्ची है, भारत के स्पोर्ट्स इतिहास के गुमनाम नायक रहे हैं एस ए रहीम. उन्हें भारतीय मॉर्डन फुटबॉल का आर्किटेक्ट कहा जाता है, आज फुटबॉल टीम को ओलम्पिक में जगह नहीं मिलती, उनके कोच रहते 1956 के समर ओलम्पिक के सेमी फायनल में टीम पहुंच चुकी है, जबकि 1951 और 1962 के एशियाड गेम में गोल्ड मैडल जीत चुकी है. 1950 से 1963 तक भारतीय टीम के कोच बने रहना वो भी एक आम अध्यापक के लिए कोई आसान बात नहीं थी. लेकिन एस ए रहीम (अजय देवगन) ने ये सब कर दिखाया, वो भी तक जब उन्हें लंग कैंसर हो गया था.

फिल्म में उनके इसी संघर्ष को दिखाया गया है कि कैसे वो एक एक फुटबॉलर को गलियों से, छोटी छोटी टीमों से चुनते हैं और उनके लिए फुटबॉल फेडरेशन से लड़ते हैं, और ये वो दौर था जब कोई भी भारत में जूते पहनकर फुटबॉल नहीं खेलता था. उनको जूते से प्रैक्टिस शुरू करवाना, नेताओं ने उनके फंड के लिए लड़ना और अपने विरोधियों को झेलना ये सब साथ साथ होता है.

 

 
 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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चार किरदार पर टिकी फिल्म
इस मूवी में मुख्य तौर पर चार ही किरदार हैं, रहीम साब का रोल अजय देवगन ने किया है, उनकी पत्नी का रोल प्रियमणि ने किया है, विलेन के तौर पर गजराव राव एक मशहूर स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट के तौर पर दिखे हैं, तो उनका साथ देते हैं फुटबॉल फेडरेशन के नेता के तौर पर रुद्रनील घोष. हालांकि ‘चक दे इंडिया’ जैसी मूवी में तीन बातों में असली कहानी से बदलाव लाया गया था, पहाड़ी हिंदू मीर रंजन नेगी के किरदार को मुस्लिम किरदार में बदल दिया गया था, शाहरुख को मीर की तरह अधेड़ दिखाने की बजाय जवान और एनर्जी से भरपूर दिखाया गया था और म्यूजिक पर खासा ध्यान दिया गया था.

काफी लंबी फिल्म
इस फिल्म के डायरेक्टर अमित रवीन्द्र नाथ शर्मा जो बधाई हो जैसी सुपरहिट फिल्म दे चुके हैं, विज्ञापनों की दुनियां में उनका लम्बा इतिहास है, कहानी को एंटरटेनिंग बनाने के लिए ज्यादा बदलाव नहीं कर पाए. रहीम के किरदार को उन्होंने बहुत यूथफुल या धर्म बदलने के बजाय या मुस्लिम होने के चलते निशाने पर ले जाने का ‘चक दे इंडिया’ फॉर्मूला इस्तेमाल करने के बजाय रहीम साब की बीमारी यानी लंग कैंसर का इस्तेमाल किया. जिससे उनके प्रति इमोशनल लगाव तो दर्शकों को होता है, लेकिन एनर्जी का लेवल कमजोर हो जाता है. आधी फिल्म में अजय देवगन खांसते नजर आते हैं. फिल्म की लम्बाई (तीन घंटा एक मिनट) भी ज्यादा है, फर्स्ट हाफ से कुछ सीन कम हो सकते थे.  

हालांकि म्यूजिक की जिम्मेदारी ए आर रहमान और गीतों की मनोज मुंतशिर को दी गई थी, ऐसे में ‘टीम इंडिया हैं हम’ और ‘दिल नहीं तोड़ेंगे’ जैसे गीत अच्छे बन पड़े हैं, ‘जाते हैं जाने दो या ‘मिर्जा’ इमोशनल गीत हैं लेकिन अभी तक लोगों की जुबान पर उस तरह नहीं चढ़े हैं जैसे चक दे इंडिया. हालांकि कई छोटे डायलॉग्स फिल्म में तालियां बजवा सकते हैं, जैसे ‘What you don’t understand, don’t criticise it’... ‘फुटबॉल पूरी दुनियां का इकलौता ऐसा गेम है, जिसमें किस्मत हाथों से नहीं पैरों से लिखी जाती है’.. ‘मैंने फुटबॉल को पूरी जिंदगी दे दी, आप पांच मिनट नहीं दे सकते’ या फिर अजय देवगन का एक खिलाड़ी के घायल होने के बाद बाकी को ये कहना कि, ‘इसका हिसाब चाहिए मुझे’. हालांकि बंगाल के सीएम बीसी रॉय के मुंह से ये कहलवाना जमता नहीं कि रॉय चौधरी (गजराज राव) किसी भी सरकार को बना या बिगाड़ने के लिए जाने जाते हैं, क्योंकि एक स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट ऐसी हैसियत में आज तक नहीं पहुंचा.

गजराव राव बेहतरीन

बावजूद इसके गजराव राव का लुक और एक्टिंग कमाल थे. प्रियमणि और रुद्रनील घोष भी रोल में घुस ही गए हैं, वहीं पीके बैनर्जी का रोल करने वाले चैतन्य शर्मा या चुन्नी गोस्वामी, थंगराज, हकीम आदि खिलाड़ियों का रोल करने वाले एक्टर भी उम्मीद जगाते हैं, देवेन्द्र गिल भी. 1950 के दौर को दिखाना यूं भी मुश्किल था, उससे भी ज्यादा मुश्किल था उस दौर के स्टेडियम और देसी विदेशी खिलाड़ियों को तैयार करना. सो डायरेक्टर को ये सब करने में इतनी मुश्किल हुई होगी कि फिल्म में कुछ मिसिंग सा लगता है. लेकिन फर्स्ट हाफ के बाद कुर्सी की पेटी बांधने जैसा रोमांच है. फुटबॉल का पीछे करता कैमरा वाकई हैरतअंगेज था, उस दौर के एक एक गोल को उसी तरह फिल्माना, उसी तरह खिलाड़ियों की पोजीशन आदि लेना मुश्किल रहा होगा और ये भी हो सकता है कि आम दर्शकों को जिन्हें फुटबॉल पसंद नहीं फिल्म पसंद भी ना आए.

लेकिन ये मूवी इसलिए देखी जानी चाहिए ताकि आप अपने देश के एक और गुमनाम नायक के बारे में जान सकें, ये भी जान सकें कि असली नायक कौन होने चाहिए. ये भी जान सकें कि जिस फुटबॉल को हमने लगभग भुला दिया है, उस गेम में वापस लौटने की प्रेरणा इस मूवी से मिल सकती है. इसलिए भले ही मैंने 3.5 इस मूवी को स्टार रेटिंग दी है, लेकिन फुटबॉल प्रेमियों के लिए ये 4.5 की तरह ली जानी चाहिए. 

 

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