NDA vs INDIA: एक तरफ जहां एनडीए गठबंधन है तो वहीं इंडिया गठबंधन है. लेकिन इन सबके पास अपनी-अपनी टेंशन भी है. कोई किसी बात के लिए मजबूर है तो किसी को अल्पसंख्यक वोटों के बंटवारे की टेंशन है. कहीं 2024 में यही सब बातें पार्टियों के लिए लेने के देने ना पड़ जाएं.
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Loksabha Election 2024: अब लोकसभा चुनाव के लिए देश की सभी पार्टियां अपने काम पर लग चुकी हैं. राज्य स्तरीय पार्टियों से लेकर देश की दो बड़ी पार्टियां बीजेपी और कांग्रेस भी एक्शन मोड में आ चुकी है. एक तरफ जहां एनडीए गठबंधन है तो वहीं इंडिया गठबंधन है. लेकिन इन सबके पास अपनी-अपनी टेंशन भी है. कोई किसी बात के लिए मजबूर है तो किसी को अल्पसंख्यक वोटों के बंटवारे की टेंशन है. कहीं 2024 में यही सब बातें पार्टियों के लिए लेने के देने ना पड़ जाएं. आइए राज्यवार तरीके से एक के बाद एक पार्टियों की चुनौतियों को समझते हैं.
अल्पसंख्यक वोटों का बंटवारा है टीएमसी की मुख्य चिंता
कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए चूंकि तृणमूल कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने पर अभी तक कोई आश्वासन नहीं दिया है, इसलिए राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी की प्रमुख चिंता राज्य के विभिन्न हिस्सों में बहुमत मतदाताओं की बढ़ती एकजुटता से कहीं ज्यादा अल्पसंख्यक वोटों में संभावित विभाजन है. ऑल इंडिया सेक्युलर फ्रंट (एआईएसएफ) के पश्चिम बंगाल में कई ऐसी लोकसभा सीटों पर स्वतंत्र रूप से उम्मीदवार खड़ा करने के फैसले से तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व की चिंताएं बढ़ गई हैं, जहां अल्पसंख्यक वोटों का प्रतिशत भाग्य का फैसला करने के लिए पर्याप्त है. पश्चिम बंगाल विधानसभा में एआईएसएफ के एकमात्र प्रतिनिधि नौशाद सिद्दीकी ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वह दक्षिण 24 परगना निर्वाचन क्षेत्र में डायमंड हार्बर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं, जहां अल्पसंख्यक मतदाताओं का प्रतिशत प्रमुख निर्णायक कारक है. यहाँ से फिलहालतृणमूल कांग्रेस के महासचिव अभिषेक बनर्जी लोकसभा सदस्य हैं.
भारी जीत का मुख्य कारण अल्पसंख्यक?
2019 के लोकसभा चुनावों में डायमंड हार्बर निर्वाचन क्षेत्र के परिणामों के विश्लेषण से पता चला कि पिछली बार बनर्जी की भारी जीत का मुख्य कारण अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में 95 प्रतिशत मतदाताओं का तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में एकजुट होना था. वहीं बहुसंख्यक प्रभुत्व वाले इलाकों में राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक मतदाताओं का आंशिक एकीकरण भी देखा गया. फिलहाल, डायमंड हार्बर के अलावा, एआईएसएफ पश्चिम बंगाल में मालदा, मुर्शिदाबाद, उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, हुगली और नादिया जिलों में कम से कम नौ अन्य लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ना चाहता है, जहां अल्पसंख्यक पर्याप्त संख्या में हैं जो किसी भी उम्मीदवार के भाग्य का फैसला करते हैं.
सिद्दीकी ने तृणमूल कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के समझौते की संभावना से इनकार किया. वह यहां तक कह चुके हैं कि अगर तृणमूल कांग्रेस 'इंडिया' गठबंधन में नहीं होती तो वह विपक्षी गुट का हिस्सा होता.
तृणमूल कांग्रेस अल्पसंख्यक वोट बैंक
एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ने कहा, “इस साल पंचायत चुनावों के बाद से अल्पसंख्यक युवाओं के बीच सिद्दीकी की आसमान छूती लोकप्रियता को देखते हुए, तृणमूल कांग्रेस के लिए 2025 में एआईएसएफ कारक को कमजोर करना मुश्किल होगा, खासकर अल्पसंख्यक वोटों में विभाजन के संबंध में. यही कारण है कि तृणमूल कांग्रेस के नेता लगातार एआईएसएफ और सिद्दीकी को पश्चिम बंगाल में बीजेपी के गुप्त एजेंट बता रहे हैं, जैसे कि असदुद्दीन ओवैसी द्वारा स्थापित ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन अन्य राज्यों में है.'' राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अल्पसंख्यक वोटों के विभाजन के संबंध में एआईएसएफ द्वारा उत्पन्न खतरे को समझते हुए, तृणमूल कांग्रेस अल्पसंख्यक वोट बैंक का एकीकरण सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस के साथ सीट-बंटवारे का समझौता करने के लिए बेताब है, जो कि सबसे पुरानी पार्टी के पीछे मजबूती से खड़ा है - खासकर मुस्लिम प्रभुत्व वाले मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों में.
ममता बनर्जी के रुख में अचानक बदलाव ?
यहां राजनीतिक विश्लेषकों ने 19 दिसंबर को इंडिया ब्लॉक की बैठक से ठीक पहले और उसके ठीक बाद तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के रुख में अचानक बदलाव देखा.
एक राजनीतिक पर्यवेक्षक ने बताया, “बैठक से पहले, तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व ने 'इंडिया' गठबंधन के चेहरे पर प्रचार शुरू कर दिया और यहां तक कि मुख्यमंत्री ने कहा कि बंगाल 'इंडिया' का नेतृत्व करेगा. हालाँकि, बैठक के दौरान, ममता बनर्जी ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम इंडिया ब्लॉक के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तावित किया.” उनके मुताबिक, ममता बनर्जी के इस बदले रुख के पीछे दो कारण हो सकते हैं. उन्होंने कहा, “पहला कारण यह है कि खड़गे के नाम का प्रस्ताव करके उन्होंने 2024 के चुनावों में भारत के पक्ष में अनुकूल परिणाम आने की स्थिति में कांग्रेस को आश्वस्त समर्थन का एक सूक्ष्म संदेश देने की कोशिश की. दूसरा कारण यह हो सकता है कि भारत के लिए किसी भी आपदा की स्थिति में, उस आपदा की जिम्मेदारी कांग्रेस के कंधों पर होगी.”
सीट-बंटवारे का विवाद महाराष्ट्र में एमवीए की एकता की कोशिशों को नुकसान पहुंचा रहा
2024 के साथ लोकसभा चुनाव वर्ष की शुरुआत होगी, जिसके लिए भारत में सभी राजनीतिक दल, चाहे वे केंद्र में या राज्यों में सत्तारूढ़ हों या विपक्ष में हों, पूरी गंभीरता से तैयारी कर रहे हैं और हर कीमत पर जीत का लक्ष्य बना रहे हैं. महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिव सेना (शिंदे गुट), भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एपी) के साथ-साथ कांग्रेस, शिव सेना (यूबीटी) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एसपी) और उनके संबंधित सहयोगियों का विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन और उनके संबंधित सहयोगी/साझीदार, एक-दूसरे की राजनीति पर वार करने और एक दूसरे को हराने के लिए उतावले हो रहे हैं. जबकि, बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक लोकसभा सीटें (80), उसके बाद महाराष्ट्र (48), पश्चिम बंगाल (42), बिहार (40), तमिलनाडु (39), मध्य प्रदेश (29), कर्नाटक ( 28), गुजरात (26), आंध्र प्रदेश और राजस्थान (25 प्रत्येक) और ओडिशा (21) निर्वाचन क्षेत्र हैं.
विपक्ष की आलोचनाओं के बीच, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष चन्द्रशेखर बावनकुले ने पहले से ही सहयोगियों के साथ यहां "48 लोकसभा सीटों में से कम से कम 45 सीटें" हासिल करने का लक्ष्य निर्धारित किया है.
भारी कमियों के बावजूद, एमवीए पार्टियां एक मजबूत मोर्चा बनाने में कामयाब रहीं?
दूसरी ओर, वर्तमान लोकसभा में केवल एक सीट (चंद्रपुर) के साथ कांग्रेस जून 2022 और जुलाई 2023 में वर्टिकल विभाजन का सामना करने के बाद अत्यधिक कमजोर सहयोगियों, एसएस-यूबीटी और एनसीपी (एसपी) के साथ 2024 की बड़ी दौड़ में शामिल हो रही है. भारी कमियों के बावजूद, एमवीए पार्टियां एक मजबूत मोर्चा बनाने में कामयाब रहीं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले ने साहसपूर्वक एसएस-यूबीटी और एनसीपी (एसपी) के साथ कम से कम 35 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा. जल्द ही होने वाले महत्वपूर्ण सीट-बंटवारे की बातचीत से पहले साझेदारों के 'आश्वासन' को देखते हुए, कुछ नेताओं ने स्वीकार कर लिया है कि कहना आसान है, लेकिन करना आसान नहीं है. उदाहरण के लिए, 48 सीटों में से कांग्रेस नेता 24 पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं, जबकि एसएस-यूबीटी सांसद संजय राउत 25 सीटों पर नजर गड़ाए हुए हैं, लेकिन एनसीपी (एसपी) ने उन सीटों पर चुप्पी साध रखी है, जिन पर वह चुनाव लड़ना चाहती है.
2024 की शुरुआत तक राष्ट्रीय स्तर पर सीट-बंटवारे को अंतिम रूप देने का फैसला?
एसएस-यूबीटी के एक नेता ने कहा कि अस्थायी फॉर्मूलों पर विचार किया जा रहा है, जैसे कांग्रेस को 18, एनसीपी-एसपी और एसएस-यूबीटी को 15-15 सीटें, या तीन शीर्ष साझेदारों को 16-16 सीटें, या 15-15 सीटों के साथ छोटी पार्टियों के लिए 3 सीटें छोड़ी जाएंगी. हालांकि, पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के हालिया नतीजों और इंडिया गठबंधन की बैठक के बाद, जिसमें साल के अंत या जनवरी 2024 की शुरुआत तक राष्ट्रीय स्तर पर सीट-बंटवारे को अंतिम रूप देने का फैसला लिया गया, ऐसा लगता है कि एमवीए जमीनी हकीकत के प्रति सचेत हो गया है. अब, भागीदार राज्य में सीटों की 'यथार्थवादी' मांग, 'प्राप्त करने योग्य' लक्ष्य निर्धारित करने और एमवीए में छोटे/कमजोर भागीदारों के प्रति 'समावेशी' रवैया अपनाने की बात कर रहे हैं. वे वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए), महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस), ऑल-इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) जैसे संभावित 'पार्टी-पूपर्स' से भी सावधान हैं, जो बड़े पैमाने पर मैदान में उतर सकते हैं और कुछ प्रमुख निर्वाचन क्षेत्रों में सिरदर्द पैदा कर सकते हैं जो बीजेपी -सहयोगियों के लिए फायदेमंद साबित होंगे.
संयोग से, जबकि मनसे बाड़ पर बैठी है, वीबीए और एआईएमआईएम ने खुले तौर पर इंडिया गठबंधन के साथ कूदने की पेशकश की है, लेकिन अभी तक उन्हें सुरक्षित दूरी पर रखा गया है. प्रकाश अंबेडकर के नेतृत्व वाली वीबीए, जिसने पिछले साल एसएस-यूबीटी के साथ गठबंधन किया था, पहले ही धमकी दे चुकी है कि अगर उसे इंडिया गंठबंधन से बाहर रखा गया तो वह सभी 48 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी. एनसीपी-एसपी के एक वरिष्ठ नेता मानते हैं कि राज्य स्तर पर छोड़ दिया जाए तो सीट-बंटवारे की बातचीत में एमवीए की एकता और चुनाव संभावनाओं पर संभावित प्रभाव के साथ बहुत खराब स्थिति हो सकती है. हालांकि, उन्होंने आशा व्यक्त की कि एमवीए सहयोगियों के मौजूदा 'रुखों' के बावजूद, आखिरकार शरद पवार, उद्धव ठाकरे और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे वरिष्ठ नेता चुनावी बिगुल बजने से पहले मतभेदों को सौहार्दपूर्ण ढंग से दूर करने में सफल होंगे.
कांग्रेस ने अपनी 'गारंटियों' का रिपोर्ट कार्ड पेश किया, बीजेपी ने जद(एस) के साथ गठबंधन पर मुहर लगाई
उधर कर्नाटक 2024 में हाई-वोल्टेज राजनीति का गवाह बनने के लिए तैयार है, जहां कांग्रेस सरकार अपनी सभी पांच चुनावी गारंटियों को लागू करके अपनी जमीन मजबूत करने का प्रयास कर रही है. उत्तर भारत के तीन राज्यों में अपनी जीत और जद (एस) के साथ गठबंधन से उत्साहित बीजेपी राज्य की सभी 28 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने की बात आत्मविश्वास के साथ कर रही है. दूसरी ओर, कर्नाटक में कांग्रेस खेमा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के जोरदार प्रचार अभियान के बावजूद तेलंगाना चुनावों में पार्टी की जीत से उत्साहित है. कर्नाटक कांग्रेस ने मुफ्त बिजली, मुफ्त 10 किलो चावल, महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा और परिवार की मुखिया महिलाओं के लिए दो हजार रुपये के मासिक भत्ते की अपनी गारंटी को लागू करने पर ध्यान केंद्रित किया. अब कांग्रेस सरकार पांचवीं और आखिरी गारंटी यानी नए स्नातकों और डिप्लोमा धारकों के लिए भत्ते को लागू करने के लिए पूरी तरह तैयार है.
राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस और विपक्ष के बीच कड़ी टक्कर का संकेत
राज्य में कांग्रेस के खिलाफ बीजेपी और जद (एस) का एक साथ आना और वरिष्ठ वोक्कालिगा नेता आर. अशोक को विपक्ष के नेता और पूर्व सीएम बी.एस. येदियुरप्पा के बेटे, बीजेपी विधायक बी.वाई. विजयेंद्र को बीजेपी आलाकमान द्वारा प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करना राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस और विपक्ष के बीच कड़ी टक्कर का संकेत मिलता है. राज्य में अगड़े समुदायों और अन्य लोगों के बीच राजनीतिक संघर्ष के लिए भी मंच तैयार है. मुख्यमंत्री सिद्दारमैया अहिंदा समूहों के हितों की वकालत कर रहे हैं और जाति जनगणना रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं, जिससे अगड़े समुदायों को निराशा हो रही है. राज्य की राजनीति में प्रभावशाली माने जाने वाले वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय के नेताओं और मठाधीशों ने सिद्दारमैया सरकार को रिपोर्ट स्वीकार न करने की चेतावनी दी है. दोनों समुदायों के मंत्रियों और विधायकों ने इस संबंध में सिद्दारमैया से मुलाकात की है और खुलकर अपनी आपत्तियां बताई हैं. काँग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में बयान दिया था कि अगड़ी जातियां जाति जनगणना का विरोध करती हैं और कर्नाटक के डिप्टी सीएम डी.के. शिवकुमार कोई अपवाद नहीं हैं. उन्होंने कहा, सभी अग्रिम समुदाय के नेताओं की सोच एक जैसी है.
लोकसभा चुनाव की बात आई तो यह हमेशा बीजेपी के पक्ष में गया
शिवकुमार को बाद में स्पष्ट करना पड़ा कि वह पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने के विचार के विरोधी नहीं हैं और आपत्ति उचित जनगणना कराने को लेकर थी. पूर्व एमएलसी और वरिष्ठ बीजेपी नेता कैप्टन (सेवानिवृत्त) गणेश कार्णिक ने आईएएनएस से बात करते हुए कहा कि पिछले 25 से 30 वर्षों में कर्नाटक की राजनीति लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए मतदाताओं की विशिष्ट प्रतिक्रिया का रुझान दिखाती है. 1991 से लेकर अब तक जब भी लोकसभा चुनाव की बात आई तो यह हमेशा बीजेपी के पक्ष में गया है. यह पहला कारक है. दूसरा, कर्नाटक के पिछले विधानसभा चुनाव में अगर कुल वोटों की गिनती की जाए तो बीजेपी ने अपना आधार नहीं खोया है. उन्होंने समझाया, “वास्तव में हमें 2018 के चुनावों की तुलना में 8.65 लाख अधिक वोट मिले. 2018 में, हालांकि बीजेपी को 110 सीटें मिलीं, लेकिन कांग्रेस को तब बीजेपी से 6.25 लाख वोट ज्यादा मिले थे. उसे कम सीटें मिलीं. पिछले चुनावों में बीजेपी ने अपना वोट आधार नहीं खोया, जैसा कि सभी ने कहा था.”
उन्होंने कहा, “हुआ यह कि 2018 में कांग्रेस को बीजेपी से 6.25 लाख वोट ज्यादा मिले. 2023 के विधानसभा चुनाव में जेडीएस के वोट 15 लाख कम हो गए हैं. इन वोटों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस को गया. सत्तारूढ़ दल को इस बार 24 लाख वोट अतिरिक्त मिले. यह जद (एस) के वोट आधार का खिसकना है जिसने नतीजों को (कांग्रेस के पक्ष में) झुका दिया. सिद्दारमैया और डी.के. शिवकुमार को आगे करना एक सोची-समझी रणनीति थी. मैसूरु क्षेत्र में जद (एस) और पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा के समर्थक कांग्रेस में स्थानांतरित हो गए. सिद्दारमैया ने चुनाव के दौरान बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने का बयान दिया था जिसे भगवा पार्टी ने प्रमुखता से उठाया था. यह माना गया था कि इससे बीजेपी को मदद मिलेगी, लेकिन इस घटनाक्रम से जद(एस) का मुस्लिम वोट कांग्रेस की ओर चला गया. अब, मतदान के छह महीने बाद, कई विकास हुए हैं, जिनमें प्रमुख है अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, जो बीजेपी के लिए एक बड़ी लहर पैदा करेगा. कार्णिक ने कहा, “गारंटी योजनाएं भ्रम के कारण कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुंचा रही हैं. शिवकुमार और सिद्दारमैया के बीच अब मतभेद पैदा हो गए हैं.'' उन्होंने कहा, “विधायक और मंत्री लोकसभा चुनाव के लिए काम करने के मूड में नहीं हैं. विकास के लिए धन नहीं होने से लोगों में विश्वासघात की भावना पैदा हुई है. तीन राज्यों में बीजेपी की जीत का असर पड़ेगा. तेलंगाना में कांग्रेस की जीत महत्वहीन है.
बीजेपी के पास पूर्व मंत्रियों को उम्मीदवार बनाने का विकल्प
“हम 20 से कम सीटें नहीं जीतेंगे. आज पूरे देश में यह अहसास हो रहा है कि बीजेपी सत्ता में आएगी. इससे दोराहे पर खड़े लोग भी बीजेपी की तरफ जाएँगे. पीएम मोदी के नाम पर वोट पड़ते हैं. फरवरी में केंद्रीय बजट पेश होगा, इसका भी असर पड़ेगा.' राजनीतिक विश्लेषक बी समीउल्ला ने कहा कि कर्नाटक की राजनीति में वोक्कालिगा और लिनागायत समुदायों के बीच ध्रुवीकरण देखा जा रहा है. कांग्रेस लोकसभा चुनाव के लिए संभावित उम्मीदवारों की तलाश कर रही है, जबकि बीजेपी के पास पूर्व मंत्रियों को उम्मीदवार बनाने का विकल्प है. पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने एक सीट जीती थी, इस बार यह छह, सात या आठ सीटों तक जा सकती है. यह देखना अभी बाकी है कि जाति जनगणना को लेकर अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़े वर्ग एक साथ आएंगे या नहीं. उन्होंने बताया कि अभी भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी. पूर्व सीएम एचडी कुमारस्वामी ने कहा था कि राज्य की राजनीति में एकनाथ शिंदे और अजित पवार हैं, जो राज्य में महाराष्ट्र जैसे नाटकीय घटनाक्रम की ओर इशारा कर रहे हैं. इस संबंध में उनके बार-बार दिए जाने वाले बयान और कम समय में कांग्रेस सरकार के गिरने की भविष्यवाणी आने वाले दिनों में भारी राजनीतिक हलचल का संकेत दे रही है. पूर्व सीएम बसवराज बोम्मई ने भविष्यवाणी की है कि गारंटी योजनाओं के कारण, कर्नाटक की अर्थव्यवस्था नष्ट हो जाएगी क्योंकि अतिरिक्त राजस्व उत्पन्न करने की कोई योजना नहीं है, जबकि अशोक ने कहा है कि ऑपरेशन लोटस को अंजाम देने की कोई आवश्यकता नहीं है और कांग्रेस सरकार अपने आप गिर जाएगी. लोकसभा चुनाव से पहले अगले कुछ महीनों में राज्य में क्या राजनीतिक घटनाक्रम सामने आएगा, यह तो समय ही बताएगा.
2024 के चुनावी और कानूनी इम्तिहानों के लिए हेमंत की पार्टी तैयार
झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली जेएमएम-कांग्रेस-राजद की गठबंधन सरकार 29 दिसंबर को अपने चार साल पूरे कर रही है. झारखंड के 23 वर्षों के इतिहास में किसी गैर बीजेपी सरकार का यह अब तक का सबसे लंबा कार्यकाल है. पांचवां साल यानी 2024, सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार के लिए कानूनी और चुनावी इम्तिहानों का बेहद चुनौतीपूर्ण साल होगा. सोरेन केंद्रीय जांच एजेंसी ईडी के रडार पर हैं. खनन घोटाले में उनसे एक दफा पूछताछ हो चुकी है. अब जमीन घोटाले से जुड़े मामले में पूछताछ के लिए उन्हें एजेंसी ने छह बार समन किया है. सोरेन इनमें से किसी समन पर ईडी के सामने पूछताछ के लिए हाजिर नहीं हुए. उन्होंने ईडी के खिलाफ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक का रुख किया, लेकिन उन्हें खास राहत नहीं मिली. बताया जा रहा है कि ईडी अब उनकी गिरफ्तारी के लिए कोर्ट से वारंट लेने की तैयारी कर रही है. सवाल यह है कि अगर सोरेन के जेल जाने की नौबत आई तो क्या उनकी गैर-मौजूदगी में मौजूदा गठबंधन की सरकार 2024 में बची रह पाएगी? अगर गठबंधन के सभी साथी इंटैक्ट भी रहे तो सोरेन के बाद सीएम की कुर्सी कौन संभालेगा? माना जा रहा है कि ऐसी स्थिति में उनकी पत्नी कल्पना सोरेन या फिर पिता शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बनाए जा सकते हैं.
'उनके जैसा झारखंडी कभी जेल से नहीं डरता'
सोरेन खुद कई बार कह चुके हैं कि उन्हें जेल भेजने की साजिश की जा रही है. वह चुनौती के लहजे में कह चुके हैं कि विपक्षी यह समझ लें कि उनके जैसा झारखंडी कभी जेल से नहीं डरता. दरअसल, उन्हें पता है कि जेल जाने की स्थिति बनी तो इससे उन्हें सियासी तौर पर शायद ही कोई नुकसान पहुंचाया जा सकेगा. ऐसी स्थिति में उनकी पार्टी केंद्र सरकार और बीजेपी के खिलाफ विक्टिम कार्ड खेलकर अपने हक में कोर वोटरों से सिंपैथी हासिल कर सकती है. अब चर्चा 2024 में सोरेन और उनकी पार्टी की चुनावी चुनौतियों की, जिसके लिए उन्होंने खुद को काफी हद तक तैयार कर लिया है. आदिवासियों और झारखंड के मूलवासियों से जुड़े मुद्दे जेएमएम की राजनीति के केंद्र में रहे हैं और 2024 में ऐसे मुद्दों को और धार देने की कोशिश में जुटी है. सरकार के कई फैसलों में उसका यह फोकस साफ तौर पर दिखता है. मसलन बीते बुधवार को सरकार ने झारखंड विधानसभा से डोमिसाइल पॉलिसी का बिल बगैर किसी संशोधन के दूसरी बार पारित कराया. इस बिल के अनुसार राज्य में स्थानीयता यानी डोमिसाइल तय करने का आधार 1932 का खतियान (भूमि सर्वे रिकॉर्ड) होगा और राज्य में थर्ड एवं फोर्थ ग्रेड की नौकरियों में झारखंड के डोमिसाइल यानी स्थानीय लोगों को शत-प्रतिशत आरक्षण मिलेगा.
हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की
इसके पहले यह बिल बीते वर्ष 11 नवंबर को झारखंड विधानसभा के विशेष सत्र में भी पारित किया गया था, लेकिन राज्यपाल ने अटॉर्नी जनरल की राय के साथ इसे लौटाते हुए पुनर्विचार करने को कहा था. सरकार ने अटॉर्नी जनरल की राय और उस पर आधारित आपत्तियों को खारिज करते हुए बिल को दोबारा हू-ब-हू पारित कराया. दरअसल, इसके जरिए हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह झारखंडी पहचान के अपने एजेंडे से पीछे नहीं हटेगी. हालांकि यह बिल केंद्र सरकार की हरी झंडी के बगैर कानून के तौर पर धरातल पर नहीं उतर पाएगा, क्योंकि राज्य सरकार ने इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव रखा है और इसे राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार को भेजने का आग्रह किया है. केंद्र सरकार जब तक इसे संसद से पारित नहीं कराती, तब तक यह कानून की शक्ल नहीं ले सकता. केंद्र सरकार इस बिल पर सहमत नहीं होती है तो झारखंड की झामुमो-कांग्रेस और राजद गठबंधन सरकार चुनावी अभियान के दौरान बीजेपी पर सीधे-सीधे तोहमत मढ़ेगी कि वह झारखंड के मूलवासियों-आदिवासियों को उनके हक से वंचित रखना चाहती है. आने वाले चुनावी अभियानों के दौरान बीजेपी को हेमंत सोरेन सरकार की इस सियासी दांव की मजबूत काट ढूंढनी होगी.
चुनौतियों के मद्देनजर पब्लिक कनेक्ट के कार्यक्रमों में पूरी ऊर्जा झोंक रहे
हेमंत सोरेन 2024 की चुनावी चुनौतियों के मद्देनजर पब्लिक कनेक्ट के कार्यक्रमों में पूरी ऊर्जा झोंक रहे हैं. सरकार की चौथी वर्षगांठ के पूर्व “आपकी सरकार आपके द्वार” अभियान के तहत राज्य की 4300 से ज्यादा पंचायतों और सभी नगर निकायों में 24 नवंबर से लेकर 29 दिसंबर तक कैंप लगाए जा रहे हैं. इस अभियान के तहत सीएम हेमंत सोरेन खुद सभी जिलों में जा रहे हैं और लोगों से सीधे कनेक्ट हो रहे हैं. पिछले 26 दिनों में उन्होंने राज्य के 24 में से 20 जिलों का दौरा किया है और दो दर्जन से भी ज्यादा जनसभाओं को संबोधित किया है. पब्लिक कनेक्ट के इस अभियान को सोरेन कितनी शिद्दत के साथ ले रहे हैं, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि इसमें अपनी व्यस्तता का हवाला देकर वे बीते 6 दिसंबर और 18 दिसंबर को इंडिया गठबंधन की कोर कमेटी की बैठकों तक में शामिल नहीं हुए. हेमंत सोरेन सीएम के साथ-साथ जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं. चुनावी वर्ष की दस्तक के पहले ही उन्होंने जिला, ब्लॉक और पंचायत लेवल के नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ बांडिंग मजबूत करने की मुहिम भी शुरू कर दी है. बीते 14 दिसंबर को उन्होंने रांची और उससे सटे सात जिलों के नेताओं-कार्यकर्ताओं को अपने आवासीय परिसर में आमंत्रित किया और उनके साथ संवाद किया. इसमें उन्होंने 2024 की चुनावी चुनौतियों को लेकर पार्टी कैडर में ऊर्जा भरी.
सोरेन ने कहा, “वर्ष 2024 चुनावी वर्ष है. हमारी विरोधी पार्टियां धर्म और समुदाय के नाम पर हमारी अखंडता और एकजुटता को तोड़ने का प्रयास करेंगी. इनसे सतर्क रहने की जरूरत है. कार्यकर्ता चुनाव के लिए कमर कस लें.” आने वाले महीनों में वह क्रमवार राज्य के बाकी जिलों के नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ भी संवाद करने वाले हैं. जनता और पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ कनेक्ट करते हुए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपना चुनावी एजेंडा भी साफ कर रहे हैं. वह राज्य के पिछड़ेपन के लिए सीधे-सीधे केंद्र और राज्य की पूर्ववर्ती बीजेपी सरकारों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. केंद्र सरकार के पास राज्य की खनिज रॉयल्टी और खदानों के लिए जमीन अधिग्रहण के एवज में एक लाख 36 हजार करोड़ के बकाया का मसला वह जनसभा में प्रमुखता के साथ उठा रहे हैं. चुनावी साल के लिए झामुमो का खास चुनावी पैकेज भी तैयार है. इसके लिए कई लोकलुभावन योजनाएं लाई गई हैं. नवंबर में राज्य में “अबुआ आवास योजना” नामक एक महत्वाकांक्षी योजना लॉन्च की गई. सोरेन सरकार इसे पीएम आवास योजना से बेहतर योजना बता रही है. इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में बेघर लाभार्थियों को तीन कमरों और एक रसोई घर वाला आवास देने का वादा किया गया है. सरकार प्रचारित कर रही है कि इसके तहत आठ लाख गरीबों को आवास दिए जाएंगे और ये आवास दो कमरे वाले पीएम आवास की तुलना में बड़़े और सुविधाजनक होंगे. इसके लिए कैंप लगाकर आवेदन लिए जा रहे हैं और आवेदकों को मोबाइल पर आवेदन प्राप्ति की सूचना दी जा रही है. इसे बड़ा चुनावी स्ट्रोक माना जा रहा है.
उच्च शिक्षा के लिए बगैर गारंटी साधारण ब्याज पर पंद्रह लाख रुपये तक का लोन
इसी तरह गुरुजी क्रेडिट कार्ड योजना के तहत 10वीं तथा 12वीं कक्षा पास गरीब विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए बगैर गारंटी साधारण ब्याज पर पंद्रह लाख रुपये तक का लोन, सीएम ग्राम गाड़ी योजना के तहत महिलाओं, बुजुर्गों और छात्रों के लिए मुफ्त बसें चलाने जैसी लोकलुभावन योजनाएं भी चुनावी वर्ष के ठीक पहले शुरू की गई हैं. राज्य में स्कूली छात्र-छात्राओं को मुफ्त साइकिल देने की योजना पिछले तीन साल से रुकी पड़ी थी. अब चुनावों की आहट होते ही सरकार ने विभिन्न सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे 4 लाख 90 हजार बच्चे-बच्चियों को साइकिल खरीदने के लिए 220 करोड़ रुपये से अधिक की राशि उनके बैंक खातों में डीबीटी के माध्यम से भेज दी है. राज्य में रिक्त पदों पर नियुक्तियों के लिए वैकेंसी निकालने, परीक्षाएं लेने के सिलसिले में भी पिछले छह महीने में सरकार ने खासी तेजी दिखाई है. सहायक शिक्षकों के 26 हजार, सिपाहियों के करीब पांच हजार, तृतीय श्रेणी के 2000 पदों पर नियुक्ति की स्नातक स्तरीय परीक्षाएं अगले दो से तीन महीनों में आयोजित करने की तारीखें घोषित की गई हैं. बीजेपी हेमंत सरकार पर रोजगार देने के मोर्चे पर नाकामी का सवाल पिछले तीन सालों से मुखर तौर पर उठा रही है. जब तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बिगुल बजेंगे, तब तक सोरेन इन नियुक्ति प्रक्रियाओं का हवाला देकर बीजेपी के आरोपों का जवाब देने के लिए अपना हिसाब-किताब एक हद तक मजबूत कर लेंगे. हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी झामुमो ने इंडिया गठबंधन के भीतर की आंतरिक चुनौतियों के लिए होमवर्क कर रखा है. गठबंधन के तहत लोकसभा चुनाव में सीटों की हिस्सेदारी में इस बार हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी का दावा 2019 की तुलना में ज्यादा बड़ा है.
बीते 19 दिसंबर को हुई इंडिया गठबंधन की बैठक में झामुमो ने राज्य में लोकसभा की 14 में से आठ सीटों के लिए दावा पेश किया है, जबकि बीते लोकसभा चुनाव में यूपीए फोल्डर के तहत झामुमो ने चार सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. बाकी सीटें कांग्रेस, राजद और जेवीएम के हिस्से में गई थीं. हालांकि यूपीए गठबंधन को 14 में से 12 सीटों पर पराजय हाथ लगी थी. केवल राजमहल सीट पर झामुमो और चाईबासा में कांग्रेस को जीत मिली थी. झामुमो 2024 के लोकसभा चुनाव में अपना स्कोर बेहतर करने की कोशिश करेगा, लेकिन उसका मुख्य फोकस अक्टूबर-नवंबर में राज्य विधानसभा चुनाव पर है. 2019 के विधानसभा चुनाव में अकेले 30 सीटों पर जीत हासिल कर झामुमो सबसे बड़ी पार्टी बनने में सफल रहा था. इस बार उसने अपनी जीती हुई सीटों पर काबिज रहने के साथ-साथ इस संख्या को बढ़ाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है. आदिवासियों-मूलवासियों को वह अपना कोर वोटर मानता है. पिछली बार राज्य की 28 आदिवासी सीटों में से 26 सीटों पर झामुमो की अगुवाई वाले गठबंधन ने जीत दर्ज की थी. एक तरफ बीजेपी राज्य में आदिवासी वोटरों को लुभाने में पूरी ताकत झोंक रही है, तो दूसरी तरफ झामुमो के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने कोर वोटरों को इंटैक्ट रखने की है.
लोकसभा चुनावों में भ्रष्टाचार मामलों के चलते द्रमुक की किस्मत पर पड़ेगा असर
भले ही इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस (इंडिया) हिंदी प्रदेशों और दक्षिण के कुछ राज्यों में सत्ता के लिए जद्दोजद्दद कर रहा है, लेकिन तमिलनाडु में 2024 के लोकसभा चुनावों में द्रमुक का वर्चस्व बरकरार रखना निश्चित है. 39 लोकसभा सीटों के साथ, तमिलनाडु का आम चुनावों में बड़ा दबदबा है और 2019 के आम चुनावों में, द्रमुक के नेतृत्व वाले मोर्चे ने इन 39 में से 38 सीटों पर जीत हासिल की. विपक्ष की ओर से एकमात्र विजेता अन्नाद्रमुक के टिकट पर थेनी लोकसभा क्षेत्र से पी. रवीन्द्रनाथ कुमार थे. जुलाई 2023 में मद्रास उच्च न्यायालय ने रवीन्द्रनाथ कुमार की लोकसभा सीट यह कहते हुए रद्द कर दी कि उन्होंने संपत्ति के बारे में जानकारी छिपाई थी. गौरतलब है कि 43 वर्षीय रवींद्रनाथ कुमार तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और अन्नाद्रमुक के संयोजक रहे ओ पनीरसेल्वम (ओपीएस) के बेटे हैं, जो अब पार्टी से निष्कासित हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों में पार्टी के मंत्रियों को अदालतों द्वारा सजा सुनाए जाने, गिरफ्तार किए जाने और जेल में डाले जाने के बाद द्रमुक नेतृत्व और पार्टी एक शर्मनाक स्थिति में है, विपक्षी अन्नाद्रमुक के एकजुट होकर काम करने में विफलता के कारण द्रमुक दूर हो गई है.
थेवर समुदाय का दक्षिण तमिलनाडु की राजनीति में बड़ा दबदबा है, द्रमुक के लिए चीजें आसान हो गई हैं
द्रमुक मंत्री और करूर के कद्दावर नेता शेंथिल बालाजी को नकदी के बदले नौकरी घोटाले से संबंधित एक मामले में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. इसके कारण क्षेत्र में पार्टी की लोकप्रियता कम हो गई. वरिष्ठ द्रमुक नेता और राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री के. पोनमुडी को जब मद्रास उच्च न्यायालय ने तीन साल कैद की सजा सुनाई, तो द्रमुक और उनका नेतृत्व फिर से शर्मिंदा हो गए. ओपीएस, वीके शशिकला और टीटीवी दिनाकरन के निष्कासन के बाद अन्नाद्रमुक एक विभाजित घर में बदल गया, ये सभी शक्तिशाली थेवर समुदाय से हैं, जिनका दक्षिण तमिलनाडु की राजनीति में बड़ा दबदबा है, द्रमुक के लिए चीजें आसान हो गई हैं. भले ही आईपीएस अधिकारी से राजनेता बने के. अन्नामलाई के आगमन से राज्य बीजेपी के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त होने के बाद तमिलनाडु में लहरें पैदा हो रही हैं, लेकिन एक मजबूत जमीनी स्तर के संगठन की कमी भगवा पार्टी को तमिलनाडु की राजनीति में उच्च स्थान पर पहुंचने से रोक रही है. मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के नेतृत्व वाली द्रमुक सरकार ने 2021 में सत्ता संभालने के बाद से सराहनीय प्रदर्शन किया है और कई कल्याणकारी उपाय शुरू किए हैं जिनका पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वादा किया था.
महिलाओं के लिए फ्री बस सेवा भी जनता के बीच बेहद लोकप्रिय
राज्य भर में लोगों के दरवाजे पर नियमित स्वास्थ्य जांच प्रदान करने वाली राज्य सरकार की 'मक्कले थेडी मरुथम' (हेल्थ टू डोर स्टेप्स) योजना राज्य के लोगों के बीच एक बड़ी हिट बन गई है और स्टालिन अधिक लोकप्रिय हो गए हैं. महिलाओं के लिए फ्री बस सेवा भी जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हो गई है. तमिलनाडु का सबसे बड़ा त्योहार 'पोंगल' जनवरी के मध्य में आ रहा है और राज्य मुफ्त किट प्रदान कर रहा है, जिसमें एक परिवार को एक महीने से अधिक समय तक रहने लायक सामग्री, साड़ी और धोती भी शामिल है, इन मुफ्त किटों को प्राप्त करने वाले परिवारों पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ेगा. द्रमुक नेता और राज्य के युवा एवं खेल मामलों के मंत्री उदयनिधि स्टालिन, जो मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे भी हैं, द्वारा सनातन धर्म विवाद को उठाने की सोची-समझी चाल ने उन्हें राज्य के दलित और ओबीसी समुदायों का प्रिय बना दिया है, जो तमिलनाडु की मतदाता आबादी हैं. तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि और द्रमुक सरकार के बीच लड़ाई, राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किए गए कई विधेयकों को रोकना राज्य के लोगों को रास नहीं आ रहा है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मामले में राज्य के राज्यपाल को कड़ी फटकार लगाई है.
सीट बंटवारे की बातचीत में कांग्रेस का दबदबा रहेगा?
चेन्नई स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी एंड डेवलपमेंट स्टडीज के निदेशक सी. राजीव ने आईएएनएस से बात करते हुए कहा, ''द्रमुक राज्य में विपक्ष से बहुत आगे है और उसकी कई जन हितैषी योजनाओं ने उसे जनता का प्रिय बना दिया है.'' हालांकि, द्रमुक द्वारा आम चुनावों में 39 सीटों की जीत दोहराने की संभावना नहीं है और 2024 के लोकसभा चुनावों में अन्नाद्रमुक के कुछ सीटें जीतने की संभावना है. नाराजगी के बावजूद नीतीश कुमार के पास 'इंडिया ब्लॉक' के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं. तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे बिहार में कांग्रेस और जदयू के लिए रियलिटी चेक साबित हुए हैं और आखिरकार इसने 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी दलों को एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया है. पटना, बेंगलुरु और मुंबई में इंडिया ब्लॉक की तीन बैठकों के बाद स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस का पलड़ा भारी है और अन्य दलों के नेता सोच रहे थे कि लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे की बातचीत में कांग्रेस का दबदबा रहेगा. इसी बीच तीन राज्यों में हार ने कांग्रेस की स्थिति कमजोर कर दी है.
जेडीयू के लिए नीतीश कुमार 2024 के लोकसभा चुनाव तक कम से कम इंडिया ब्लॉक के संयोजक पद की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन बिहार विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान महिला और दलित विरोधी बयान उनके खिलाफ चले गए. 19 दिसंबर को नई दिल्ली में हुई चौथी बैठक से वह खाली हाथ वापस लौट गए. आम धारणा है कि नीतीश कुमार परिस्थितियों के अनुसार अपना लक्ष्य बदल लेते हैं. लेकिन, इस बार उनके लिए बहुत देर हो चुकी है और उन्हें कम से कम लोकसभा चुनाव तक इंडिया गुट के साथ रहना होगा. यह वास्तव में जद (यू) और कांग्रेस पार्टी के लिए बिहार में बीजेपी को चुनौती देने के लिए 'एक सीट, एक उम्मीदवार' फॉर्मूले के साथ जाने के लिए एक आदर्श स्थिति है. जेडी (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा, "नई दिल्ली में इंडिया ब्लॉक की बैठक सफल रही और हम तीन सप्ताह के भीतर सभी राज्यों में सीट बंटवारे के फॉर्मूले को अंतिम रूप दे देंगे. काम प्रगति पर है और हम ऐसे उम्मीदवारों का चयन करेंगे, जो लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी को हराने में सक्षम होंगे." उन्होंने आगे कहा, "बीजेपी नेता कह रहे हैं कि इंडिया ब्लॉक ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार का नाम प्रस्तावित नहीं किया है, मैं बीजेपी से पूछना चाहता हूं कि क्या नीतीश कुमार ने आपको बताया था कि वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. वे बिना किसी आधार के बात करते हैं."
हालांकि, सियासी जानकारों को स्पष्ट है कि नीतीश कुमार अभी भी मानते हैं कि उन्हें इंडिया ब्लॉक की चौथी बैठक से वांछित परिणाम नहीं मिला, वह राजद और कांग्रेस के साथ कड़ी सौदेबाजी करेंगे. सूत्रों ने कहा कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने इंडिया ब्लॉक की चौथी बैठक के बाद नीतीश कुमार से फोन पर बात की. लेकिन, बातचीत का विषय सामने नहीं आया. इसी बीच आम धारणा यह है कि उन्होंने नीतीश कुमार को पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ने के लिए मनाने की कोशिश की, जैसा उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनाव में किया था. बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं. जदयू और राजद बिहार की अधिकतम सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. जदयू और राजद नेताओं ने तो कुछ नहीं कहा है. लेकिन, सूत्रों का कहना है कि जदयू बिहार में 17 से 18 सीटें चाहता है और राजद नेता भी यही सोच रहे हैं. इन दोनों पार्टियों के नेता 2015 के विधानसभा चुनाव का फॉर्मूला अपना सकते हैं, जब उन्होंने 100-100 सीटों पर चुनाव लड़ा था और बाकी 43 सीटें कांग्रेस पार्टी को दी थी. इस बार वे 17 से 18 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं और बाकी 6 या 4 सीटें कांग्रेस और वाम दलों को देना चाहते हैं. ऐसी भी संभावना है कि लोकसभा में 16 सांसदों वाली जद (यू) 16 सीटों पर सहमत हो सकती है और राजद को 16 सीटें मिलेंगी और शेष 8 सीटें कांग्रेस और वाम दलों के बीच वितरित की जाएंगी.
बिहार में तीन राजनीतिक ताकतें हैं, राजद, जद (यू) और बीजेपी
हर कोई जानता है कि जब भी दो ताकतें एक तरफ होती हैं तो वे चुनाव जीतती हैं, जब तक कि कोई कमजोर प्रदर्शन न करे या बीजेपी के लिए बल्लेबाजी न करे, जैसा कि एलजेपी ने बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में किया था. 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ने बीजेपी को आसानी से हरा दिया था, जब जदयू और राजद कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन सहयोगी थे. उस वक्त मोदी लहर अब से कहीं ज्यादा मजबूत थी. इसी तरह जब 2020 के विधानसभा चुनाव में जद (यू) और बीजेपी एक साथ थे, तो उन्होंने इसमें जोरदार जीत हासिल की. 2019 का लोकसभा चुनाव भी इसका उदाहरण था, जब जेडीयू और बीजेपी ने एलजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी. हालांकि, तीन विधानसभा चुनावों में प्रचंड जीत के बाद बीजेपी का मनोबल ऊंचा है, लेकिन उसे 2024 से पहले खासकर बिहार में सतर्क रहने की जरूरत है. बीजेपी हमेशा भ्रम पैदा करने के लिए विपक्षी खेमे में कमियां ढूंढना पसंद करती है. अगर राजद और जद (यू) 2015 के विधानसभा चुनाव की तरह एक साथ लड़ेंगे, तो बीजेपी को यहां संघर्ष करना पड़ सकता है.
बीजेपी बिहार में शराबबंदी की विफलता के कारण बढ़ते अपराध और जहरीली शराब की घटनाओं का मुद्दा उठा रही है और कह रही है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य में जंगल राज लौट आया है. बिहार बीजेपी अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने कहा, "नीतीश कुमार के शासन में, न केवल आम आदमी बल्कि पुलिस भी अपराधियों के निशाने पर है. बेगूसराय में एक एएसआई की हत्या इसका प्रमुख उदाहरण है. शराब माफिया ने उन्हें ड्यूटी के दौरान कुचल दिया." बिहार जैसे अविकसित राज्य में, जाति ही एकमात्र ऐसी चीज है, जिसे मतदाता किसी भी चुनाव के दौरान ध्यान में रखते हैं और अन्य मुद्दे जैसे नौकरियां, औद्योगीकरण, किसान और अन्य समस्याएं गौण हैं. यही कारण है कि राजद आरामदायक स्थिति में है क्योंकि सभी जानते हैं कि लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव किसी भी कीमत पर बीजेपी के खिलाफ लड़ेंगे. लालू प्रसाद ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में कभी भी बीजेपी और आरएसएस से समझौता नहीं किया और यही कारण हो सकता है कि हाल में संपन्न जाति सर्वेक्षण के अनुसार मुसलमानों और यादवों (मुस्लिम 17.7 प्रतिशत और यादव 14 प्रतिशत) का वोट निर्णायक तौर पर राजद के साथ जाएगा. अगर बिहार में 4.21 फीसदी वोटर वाले कोइरी और 2.87 फीसदी वोटर वाले कुर्मी (लव-कुश) एक हो जाएं तो बीजेपी को आसानी से हराया जा सकता है.
चुनाव का समय आ गया है और यूपी में जाति का मामला एक बार फिर गरमा गया है
उत्तर प्रदेश में जाति का मामला - जिसे सोशल इंजीनियरिंग के नाम से जाना जाता है, उबाल पर है. फर्क सिर्फ इतना है कि यह जातिवाद से उपजातिवाद तक पहुंच गया है. उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दल जाति के नेताओं को लुभा रहे हैं और 2017 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अनदेखी करते हुए बेधड़क जाति और उपजाति सम्मेलनों का आयोजन कर रहे हैं. आदेश में कहा गया है कि "धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा को चुनावी प्रक्रिया में कोई भूमिका निभाने की अनुमति नहीं दी जाएगी." अब तक हिंदुत्व को अपनी प्राथमिकता सूची में रखने वाली बीजेपी भी ओबीसी वर्ग की उपजातियों को लुभाने में लगी है. पार्टी को स्पष्ट रूप से लगता है कि सामान्य तौर पर हिंदुओं की बात करने से चुनावों में पर्याप्त संख्या नहीं मिल सकती है और इसलिए विशिष्ट जाति समूहों को सामूहिक रूप से और साथ ही अलग से ध्यान देने की आवश्यकता है. हाल के दिनों में, बीजेपी अपने ओबीसी नेताओं के नेतृत्व में लखनऊ में उप-जाति सम्मेलन आयोजित कर रही है, इसमें उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य भी शामिल हैं, जो खुद एक ओबीसी हैं.
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ओबीसी के नए स्वयंभू नेता हैं और बीजेपी के लिए पिछड़ा समर्थन जुटाने के लिए भी जोर लगा रहे हैं. संजय निषाद, जो निषाद पार्टी के प्रमुख हैं और योगी सरकार में मंत्री हैं, भी अपने समुदाय को बीजेपी के नेतृत्व वाले पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं. कुर्मी-केंद्रित पार्टी अपना दल पहले से ही यूपी में बीजेपी की प्रमुख सहयोगी है. बीजेपी समाजवादी पार्टी के वोट आधार का एक हिस्सा छीनने और अति पिछड़ी जातियों को लुभाकर बसपा की लोकप्रियता में सेंध लगाने की इच्छुक है. ओबीसी में 200 से अधिक उपजातियां हैं, जो राज्य की आबादी का 40 प्रतिशत हैं. ओबीसी आबादी में यादवों (15 प्रतिशत) का वर्चस्व है और उसके बाद कुर्मियों (9 प्रतिशत) का नंबर आता है. शेष उपजातियांं जनसंख्या का एक से दो प्रतिशत हैं. बीजेपी ने अब तक उपजातियों के लिए सम्मेलन आयोजित किए हैं, इनमें निषाद, कश्यप, बिंद, कुर्मी, यादव, चौरसिया, तेली, साहू, नाई, विश्वकर्मा, बघेल, पाल, लोध, जाट, गिरी, गोस्वामी, जायसवाल, कलवार, हलवाई शामिल हैं. पार्टी इन उप-जाति समूहों को आश्वासन दे रही है कि वह उनके हितों की रक्षा करेगी. बीजेपी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने स्वीकार किया कि पार्टी अपने वर्तमान वोट आधार को बढ़ाने के लिए उत्सुक है, क्योंकि इससे सत्ता विरोधी लहर के कारण होने वाली किसी भी कमी की भरपाई हो जाएगी. पदाधिकारी ने कहा, “यह समाज के हाशिए पर मौजूद वर्गों को पार्टी में लाने का एक सचेत प्रयास है. अगर हम अपना वोट आधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या है?”
बीजेपी को उप-जाति समूहों को लुभाने के लिए ठोस प्रयास करते देख, समाजवादी पार्टी जो अब तक अपने यादव वोट बैंक से संतुष्ट थी, उसने भी गैर-यादव ओबीसी तक पहुंच बनाना शुरू कर दिया है. पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्याक) का उसका नारा उसकी नई रणनीति का प्रकटीकरण है. हालांकि, समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता सुनील साजन इस बात से इनकार करते हैं कि समाजवादी पार्टी बीजेपी के नक्शेकदम पर चल रही है. उन्होंने कहा,“हम बीजेपी की तरह उप-जाति सम्मेलन आयोजित नहीं कर रहे हैं और दृष्टिकोण में स्पष्ट रूप से जातिवादी नहीं बन रहे हैं. हम सामान्य रूप से ओबीसी के लिए एक सामाजिक न्याय कार्यक्रम चला रहे हैं.” दूसरी ओर, बहुजन समाज पार्टी अपनी भाईचारा समितियों के माध्यम से विभिन्न दलित उपजातियों को लुभाने में लगी है. 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' (जो कि बीजेपी के 'सबका साथ सबका विकास' के समान लगता है) के नारे के साथ ब्राह्मणों को वापस जीतने की पार्टी की कोशिशों को पार्टी के सबसे बड़े ब्राह्मण नेता सतीश चंद्र मिश्रा को दरकिनार किए जाने से झटका लगा है. कांग्रेस भी ओबीसी आउटरीच कार्यक्रम आयोजित करके सोशल इंजीनियरिंग में शामिल हो गई है.
यूपी में बीजेपी अजेय, फिर भी नहीं छोड़ रही कोई कसर
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी ) अजेय बनी हुई है. मोदी की गारंटी, योगी का जादू, लाभार्थी निष्ठा, सबसे शीर्ष पर राम मंदिर निर्माण पार्टी को 2024 में लोकसभा चुनावों में सफलता का अचूक नुस्खा प्रदान करता है. 'मोदी है तो मुमकिन है' से लेकर उत्तर प्रदेश में बीजेपी अब 'योगी है तो जादू है' पर दृढ़ता से विश्वास करती है. योगी फैक्टर उप-चुनावों और हाल के नगर निगम चुनावों में बीजेपी के लिए व्यापक जीत सुनिश्चित करने के लिए ओवरटाइम काम कर रहा है. बीजेपी कार्यकर्ताओं को भरोसा है कि एक हिंदू नेता के रूप में योगी आदित्यनाथ का बढ़ता कद, एक प्रशासक के रूप में उनकी सख्त छवि और उनका सर्वव्यापी करिश्मा 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के लिए शानदार जीत सुनिश्चित करेगा.
एक खंडित विपक्ष राज्य में भगवा लहर के लिए चीजों को आसान बना देगा.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी की अब तक केवल एक ही रणनीति रही है और वह है पार्टी कैडर को चुनाव के लिए एकजुट रखना और नियमित रूप से प्रत्येक बूथ का दोबारा दौरा करना.
पार्टी के एक पदाधिकारी ने कहा,"हमारे पास मोदी और योगी जैसे करिश्माई नेता हैं और हमें बस अपने सैनिकों को आत्मसंतुष्ट होने से रोकना है. हमारे 'पन्ना प्रमुख' और 'विस्तारक' काम पर हैं और हमारे नेता उन सीटों पर काम कर रहे हैं जहां पार्टी तुलनात्मक रूप से कम मजबूत है." संगठनात्मक मोर्चे पर, बीजेपी नेता पार्टी की जीत सुनिश्चित करने और सत्ता विरोधी लहर, यदि कोई हो, पर काबू पाने के लिए कोई जोखिम नहीं उठा रहे हैं. सत्ता विरोधी लहर का मुकाबला करने के लिए बीजेपी भी उम्मीदवार बदलने की तैयारी कर रही है.
पार्टी सूत्रों का दावा है कि कुछ उम्मीदवारों को 70 से अधिक की आयु सीमा पार करने के कारण हटाया जा सकता है, जबकि अन्य को उनके निर्वाचन क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन के कारण टिकट नहीं मिल सकता है. हालांकि बीजेपी जातिगत गणित पर ध्यान केंद्रित कर रही है और प्रतिशोध के साथ ओबीसी को लुभा रही है, यह मुख्य रूप से एक ऐसे समूह पर ध्यान केंद्रित कर रही है, जो जाति वाहक से परे है.
बीजेपी की नजर लाभार्थियों के वोट बैंक पर है, इसमें अल्पसंख्यकों और दलितों का बड़ा हिस्सा है.
पार्टी पदाधिकारी ने कहा, "ये वे समूह हैं, जो केंद्र और राज्य सरकारों की योजनाओं से लाभान्वित हुए हैं और हम उन तक पहुंच रहे हैं. यह जाति या धर्म का सवाल नहीं है, बल्कि लाभ न पाने वालों का सवाल है." मध्यम वर्ग और ऊंची जातियों के लिए माफिया के खिलाफ योगी का बुलडोजर अभियान पार्टी की चुनावी रणनीति का हिस्सा है.
पदाधिकारी ने कहा, "व्यापारी और बिल्डर अब जबरन वसूली की शिकायत नहीं कर रहे हैं और माफिया द्वारा जमीन पर कब्जा नहीं किया जा रहा है. इसका इस्तेमाल अभियान में लाभ के लिए किया जाएगा." बीजेपी अन्य पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में करने के लिए चुपचाप काम कर रही है और जाति जनगणना की विपक्ष की मांग को कमजोर करने के लिए 'हिंदू फर्स्ट' कार्ड का इस्तेमाल कर रही है. दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी 2024 में सेलिब्रिटी प्रचारकों की ओर नहीं देख रही है. एक पार्टी पदाधिकारी ने सवाल किया,"जब हमारे नेता हमारे सबसे बड़े सितारे हैं, तो हमें फिल्मी सितारों तक क्यों पहुंचना चाहिए?"
इसके अलावा बीजेपी ने राम मंदिर पर पूरी मजबूती से कब्जा कर रखा है और योगी सरकार 22 जनवरी को होने वाले राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह को सदी का सबसे बड़ा आयोजन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. अयोध्या का संपूर्ण पुनरुद्धार आने वाले वर्षों में एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण होगा. पदाधिकारी ने टिप्पणी की,"मैंने आपसे कहा था कि 'योगी है तो जादू है' और मोदी एक अतिरिक्त लाभ हैं. क्या हमें और कुछ कहने की ज़रूरत है?" इसके अलावा, विपक्ष के पास ड्राइंग रूम की बकवास के अलावा कुछ भी नहीं है और यह बीजेपी है, जो जमीन पर काम करती नजर आ रही है.'' पदाधिकारी ने कहा, यह सच्चाई है कि इस बार हमारे नजदीक भी कोई नहीं है.
इंडिया गठबंधन में मायावती की एंट्री 'संभव', बयानों से लग रहे कयास
वहीं लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन में भले ही बसपा मुखिया मायावती शामिल न हों, लेकिन उनके बयान ने बसपा के इसमें शामिल होने की उम्मीद अभी भी बरकार रखी है. बीते दिनों मायावती की सपा को दी गई नसीहत के सियासी मायने भी तलाशे जाने लगे हैं. इसे मायावती की ओर से गठबंधन को लेकर खिड़की खुली रखने के संकेत की तरह देखा जा रहा है. दरअसल, मायावती ने बीते दिनों एक बयान में किसी का नाम लिये बगैर कहा कि विपक्ष के गठबंधन में बसपा सहित अन्य जो भी पार्टियां शामिल नहीं हैं, उनके बारे में किसी का भी फिजूल टिप्पणी करना उचित नहीं है. मेरी उन्हें सलाह है कि वह इससे बचें, क्योंकि भविष्य में देश में जनहित में कब किसको, किसकी जरूरत पड़ जाए, कुछ भी कहा नहीं जा सकता. बसपा प्रमुख ने कहा कि टीका-टिप्पणी करने वाले ऐसे लोगों और पार्टियों को बाद में काफी शर्मिंदगी उठानी पड़े, यह ठीक नहीं है. इस मामले में समाजवादी पार्टी खासतौर पर इस बात का जीता-जागता उदाहरण है. सियासी जानकर बताते हैं कि बसपा मुखिया मायावती सियासी दांव-पेंच खूब जानती हैं. वो भली-भांति जानती हैं, कब कौन सी बात करनी है. जिसका असर राजनीति में पड़ेगा.
समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि 28 दलों वाले विपक्षी गठबंधन में बसपा को शामिल करने के पक्ष में सपा नहीं है. क्योंकि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा व बसपा ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा था. उसमें बसपा को सपा के मुकाबले दोगुनी यानी 10 सीटें मिली थी. बसपा को फायदा हुआ था और सपा को नुकसान. उसे बसपा का वोट ट्रांसफर नहीं हो पाया था. ऐसे में इनको गठबंधन में लाने का कोई फायदा नहीं है. कांग्रेस में अक्सर कुछ नेता बसपा की इंडिया गठबंधन में एंट्री के पक्ष में नजर आए हैं. बसपा बार-बार यह जरूर कहती रही है कि हम 2024 का चुनाव अकेले लड़ेंगे. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि मायावती को लोकसभा चुनाव में किसके साथ गठबंधन करना है या नहीं, उन्होंने कुछ तय नहीं किया है. वो सारे ऑप्शन खुले रखना चाहती हैं. मायावती हर दलों से ज्यादा स्पष्टवादी हैं. इसी कारण उन्होंने सभी दलों को चेता दिया है. वो किसी भी गठबंधन में शामिल हो सकती हैं. लेकिन, वो अभी अपने पत्ते खोलेंगी नहीं.
वरिष्ठ राजनीतिक कहते हैं कि अखिलेश को इस बात का अंदाजा भी है कि बसपा के आने से उनकी केंद्रीय राजनीति फीकी पड़ सकती है. बसपा ज्यादा सीटें भी मांगेगी. यही कारण है कि बसपा को गठबंधन में शामिल करने की कोशिश में जुटी कांग्रेस अब अखिलेश के दबाव के आगे ढीली पड़ती दिख रही है. मायावती अभी फिलहाल कोई जल्दबाजी नहीं करेंगी. वह सोच समझकर गठबंधन करेंगी. वह नहीं चाहती हैं कि उनके ऊपर किसी की बी-टीम का आरोप लगे. न ही चाहेंगी कि बीजेपी से कोई ऐसा राजनीतिक विवाद हो, जिसके कारण उनके ऊपर जांच जैसी कोई मुसीबत आए. इस कारण मायावती ने कुछ मुद्दों पर विपक्ष का साथ दिया है तो कुछ मुद्दों पर वह सरकार के साथ भी खड़ी नजर आई हैं. उन्होंने भले ही बहुत कुछ कह दिया हो, लेकिन गठबंधन को लेकर अभी तक पत्ते नहीं खोले हैं. कांग्रेस के प्रवक्ता अंशू अवस्थी कहते हैं कि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है, कांग्रेस पार्टी ने दलित समाज के उत्थान के लिए अभूतपूर्व काम किए हैं. मायावती ने जो बात कही है, वह बिल्कुल सच है. हम इस बात को शुरू से कहते आ रहे हैं कि 2024 का लोकसभा चुनाव देश के संविधान को, लोकतंत्र को बचाने का चुनाव है. हम चाहते हैं कि समान विचारधारा को मानने वाले और संविधान के साथ खड़े हुए लोग एक साथ आएं, यही देश के लिए और देश के लोगों के हित में है. Agency Input