कभी-कभी जिंदगी और मौत के बीच सिर्फ एक पतली सी डोर बचती है और वही डोर होती है डॉक्टरों का हौसला और उनका जज्बा. ऐसा ही एक दिल दहला देने वाला मामला सामने आया, जब एक मरीज का दिल पूरी तरह रुक गया.
Trending Photos
कभी-कभी जिंदगी और मौत के बीच सिर्फ एक पतली सी डोर बचती है और वही डोर होती है डॉक्टरों का हौसला और उनका जज्बा. ऐसा ही एक दिल दहला देने वाला मामला सामने आया, जब एक मरीज का दिल पूरी तरह रुक गया. सांसें थम चुकी थीं और मौत ने लगभग अपना दावा ठोक दिया था. लेकिन डॉक्टरों ने हार मानने से इनकार कर दिया. आधुनिक चिकित्सा, टीमवर्क और अदम्य साहस के दम पर उन्होंने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया. मौत के मुंह से खींचकर मरीज की जान बचाने की इस कहानी ने न केवल मेडिकल वर्ल्ड को चौंका दिया, बल्कि यह साबित किया कि उम्मीद और मेहनत से किसी भी चुनौती को हराया जा सकता है. आइए जानते हैं इस अद्भुत और प्रेरणादायक घटना की पूरी कहानी.
टीओआई की एक खबर के अनुसार, मुंबई के एक अस्पताल में 1990 के दशक में घटी एक घटना ने मेडिकल दुनिया को झकझोर दिया. 51 वर्षीय आईएएस अधिकारी पृथ्वीराज मोहन सिंह बयास को एंजियोप्लास्टी के दौरान गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा. उनका दिल 30 मिनट तक बंद रहा, न कोई धड़कन, न ब्लड प्रेशर. दो वरिष्ठ सर्जनों ने सर्जरी से इनकार कर दिया, लेकिन एक डॉक्टर ने उम्मीद नहीं छोड़ी.
डॉक्टर ने बताया कि दिल के बिना शरीर में खून का फ्लो रुकने से दिमाग तीन मिनट में स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है. मुझे पता था कि मरीज के बचने की संभावना एक प्रतिशत से भी कम थी, लेकिन मैंने हार नहीं मानी. हर मरीज को जीने का अधिकार है. परिवार को पूरी स्थिति समझाने के बाद सर्जरी के लिए मंजूरी ली गई. चुनौती यह थी कि ऑपरेशन थियेटर तक मरीज को ले जाने और तैयारी में जो समय लगता है, वह बेहद सीमित था. दिल-फेफड़े की मशीन तैयार नहीं थी और ऑपरेशन के लिए जरूरी सभी प्रक्रियाएं 10 मिनट में पूरी करनी थीं.
ऑपरेशन शुरू होते ही दिल धड़कना बंद
जब डॉक्टर ने ऑपरेशन शुरू किया तो दिल धड़कना बंद कर चुका था. नर्स ने 15 मिनट तक हाथ से दिल को दबाकर खून के फ्लो को बनाए रखा. जैसे ही दिल-फेफड़े की मशीन तैयार हुई, मरीज को जोड़ा गया और ब्लॉकेज हटाने के लिए बाईपास सर्जरी की गई. यह सर्जरी उस समय नई तकनीक थी, और बहुत कम डॉक्टर ऐसी स्थिति में ऑपरेशन करने में सक्षम थे.
रंग लाई मेहनत
सर्जरी के बाद भी मरीज की स्थिति गंभीर रही. तीन महीनों तक 24 घंटे देखभाल की गई. लेकिन डॉक्टरों की मेहनत रंग लाई. पृथ्वीराज बयास न केवल पूरी तरह से ठीक हुए, बल्कि बाद में बृहन्मुंबई नगर निगम के संयुक्त आयुक्त के रूप में सेवा भी दी. आज, तीन दशक बाद, वह अपने बच्चों, पोते-पोतियों और परिवार के साथ खुशहाल जीवन जी रहे हैं. यह कहानी न केवल मेडिकल जगत में उम्मीद की मिसाल है, बल्कि डॉक्टरों की अटूट मेहनत और मरीजों के प्रति समर्पण का अद्भुत उदाहरण है.