मानव तस्करी से बचने के बाद भी सर्वाइवर्स का मेंटल हेल्थ क्यों नहीं हो पाता है नॉर्मल? जानिए उनकी जिंदगी कैसे बन जाती है नर्क
Advertisement
trendingNow12475623

मानव तस्करी से बचने के बाद भी सर्वाइवर्स का मेंटल हेल्थ क्यों नहीं हो पाता है नॉर्मल? जानिए उनकी जिंदगी कैसे बन जाती है नर्क

ह्यूमन ट्रैफिकिंग किसी भी इंसान के लिए एक बड़ा सदमा होता है, लेकिन उससे भी बड़ा ट्रामा तब महसूस होता है, जब आस पास के लोग आपको बुरी नजर से देखने लग जाएं, ऐसे में जिंदगी को नॉर्मल बना पाना मुश्किल हो जाता है.

मानव तस्करी से बचने के बाद भी सर्वाइवर्स का मेंटल हेल्थ क्यों नहीं हो पाता है नॉर्मल? जानिए उनकी जिंदगी कैसे बन जाती है नर्क

Human Trafficking Survivors and Their Mental Health: मानव तस्करी एक बड़ा अपराध है जिसके कारण काफी बच्चे, बूढ़े और जवान लोगों की जिंदगी पूरी तरह बदल जाती है. कुछ विक्टिम्स तो पूरी उम्र इसी दलदल में फंसे रहते हैं, जहां उनके साथ जानवरों जैसा सलूक किया जाता है, या फिर उन्हें किसी क्राइम की दुनिया में धकेल दिया जाता है. कुछ खुशकिस्मत लोगों को पुलिस तो बचा लेती है, लेकिन घर लौटने के बाद भी मुश्किलें दूर नहीं होतीं. सर्वाइवर्स को उनकी सोसाइटी के लोग ही बुरी नजर से देखते हैं, और तरह-तरह के इल्जाम लगाते हैं, जिसका उसर उनके मेंटल हेल्थ पर पड़ता है. कुछ लोग इतने परेशान हो जाते हैं कि उन्हें खुदकुशी का ख्याल आने लगता है. हम यहां उन 2 घटनाओं के बारे में जानेंगे जिसमें ह्यूमन ट्रैफिकिंग से रेस्क्यू किए लोगों के संघर्ष को समझने का मौका मिलेगा

ह्यूमन ट्रैफिकिंग से बदल जाती है जिंदगी

पूजा (बदला हुआ नाम) याद करती है, "जब मैं जागी, तो मैं घर से बहुत दूर ट्रेन में थी," जिसे 17 साल की छोटी सी उम्र में एक दोस्त ने तस्करी करके लाया था, जिससे वो कुछ महीने पहले ही ऑनलाइन मिली थी. उसे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि जिस इंसान पर वह भरोसा करती थी, वो उसे इतनी बेरहमी से धोखा देगा. उसके दोस्त ने उसे कॉल सेंटर में नौकरी दिलाने का वादा किया था, ये दावा करते हुए कि इससे उसे अपनी फैमिली को सपोर्ट करने में मदद मिलेगी, लेकिन सफर के दौरान उसे नशीला पदार्थ खिलाकर पश्चिम बंगाल से अहमदाबाद ले जाया गया.

मेंटल हेल्थ पर पड़ता है बुरा असर

इस खौफनाक तजुर्बे ने पूजा के मेंटल हेल्थ बहुत बुरा असर डाला. बचाए जाने के बाद भी, वो फ्लैशबैक, बुरे सपने और हद से ज्यादा एंग्जाइटी से जूझती रही. जिस शख्स पर उसने भरोसा किया था, उसके द्वारा विश्वासघात ने उसे बहुत अधिक साइकोलॉजिकल डिस्ट्रेस में डाल दिया, जिससे वो खौफ और चिंता की स्थिति में आ गई. तस्करी, शोषण और धोखे से होने वाले ट्रॉमा ने न सिर्फ उसके भरोसे को तोड़ दिया, बल्कि उसके इमोशनल वेल बीइंड पर भी असर डाला, जो लॉन्ग टर्म मेंटल हेल्थ स्ट्रगल के तौर पर सामने आया.

बढ़ते जा रहे हैं मानव तस्करी के मामले

वह अकेली नहीं है, जिसके साथ ऐसी वारदात पेश आई,  लेकिन कई  रिपोर्ट्स बताती हैं कि रेस्क्यू होने के बाद, सर्वाइवर्स को अक्सर रिहैबिलिटेशन के दौरान काउंसिलिंग या मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल तक पहुंच की कमी का सामना करना पड़ता है. सपोर्ट के मामले में ये गैप उनके द्वारा सहे जाने वाले ट्रॉमा को बढ़ा सकता है, जिससे उनका ठीक होना और भी चैलेंजिंग हो जाता है. 2022 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 में मानव तस्करी के कुल 2,250 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 में दर्ज किए गए 2,189 मामलों से 2.8% अधिक है. रिपोर्ट किए गए मामलों के 6,036 पीड़ितों में 2,878 बच्चे और 3,158 वयस्क थे.

रेस्क्यू के बाद भी होती है परेशानी

पूजा की जद्दोजहद 4 महीनों तक चली, जिसके दौरान उसे आंध्र प्रदेश, मुंबई और फिर कोलकाता ले जाया गया. साल 2017 में, कई महीनों की यातना के बाद, उसे आखिरकार पश्चिम बंगाल से बचाया गया, जहां उसके अपहरणकर्ताओं ने उसे छिपा दिया था, ये सोचकर कि उसका परिवार उसे कभी नहीं ढूंढ पाएगा. फिर भी जब वो घर लौटी, तो समाज के फैसले ने उसके दुख को और बढ़ा दिया. 

नॉर्मल लाइफ में लौटना आसान नहीं

अपने रेस्क्यू के बाद, पूजा ने कोलकाता में अपनी मौसी के साथ छह महीने बिताए, जहां उसे अपने समुदाय के कलंक और कठोर आरोपों से जूझना पड़ा. उसे ऐसी घटनाओं के लिए लेबल किया गया और दोषी ठहराया गया जो उसके नियंत्रण से बाहर थीं. इस इमोशनल ट्रॉमा ने उसे खुदकुशी के कगार पर धकेल दिया. फिर भी अपने  परिवार के अटूट सपोर्ट से, पूजा ने धीरे-धीरे अपनी ताकत और साहस को वापस पा लिया. मानसिक पीड़ा के महीनों के बाद, उसने आखिरकार अपने समुदाय में लौटने और अपने जीवन को फिर से बनाने का इरादा किया.

ट्रॉमा के बाद भी जिंदगी रुकती नहीं

पूजा ने उम्मीद नहीं छोड़ी. उसने एक ऐसे इंसान से शादी की जिसने हर कदम पर उसका साथ दिया. आज, उनकी शादी को 8 साल हो चुके हैं और उनका 6 साल का बेटा है. पूजा अब समाजशास्त्र में अपनी डिग्री हासिल कर रही है, जिससे वो अपना सपना पूरा कर रही है जिसे वो कभी खोया हुआ समझती थी. वो 'आईएलएफएटी' (ILFAT) की एक सक्रिय सदस्य भी है, जो तस्करी से बचे लोगों द्वारा संचालित एक राष्ट्रीय मंच है, और वो पश्चिम बंगाल में स्थानीय सामूहिक बिजॉयनी के साथ मिलकर स्कूलों, पंचायतों और गांवों में मानव तस्करी के बारे में जागरूकता बढ़ाती है. एक बार अपने जीवन को समाप्त करने के कगार पर पहुंचने के बाद, वो अब अपनी जानकारी के जरिए तस्करी से बचे लोगों को सलाह देती हैं, अपनी कहानी का इस्तेमाल दूसरों को ठीक करने में मदद करने के लिए करती हैं.

बच्चे की तस्करी भी चिंता का विषय

सुनील कुमार (बदला हुआ नाम) का अनुभव कई मायनों में पूजा से मिलता-जुलता है. 14 साल की उम्र में उसे बिहार के बोर्डिंग स्कूल से काम का झूठा वादा करके बहला-फुसलाकर जयपुर ले जाया गया और उसे चूड़ी बनाने वाली फैक्ट्री में दिन में 12 से 18 घंटे काम करने के लिए मजबूर किया गया. फैक्ट्री में बिताए गए चार महीने सुनील को पूरी जिंदगी के जैसे लगे क्योंकि उसे और अन्य बच्चों को क्रूरता सहनी पड़ी, उन्हें कम खाना दिया गया और उन्हें बहुत कम आराम दिया गया. एक दिन पुलिस ने फैक्ट्री पर छापा मारा और उन्हें छुड़ाया, और सुनील को चार महीने के लिए बाल संरक्षण में रखा.

मेंटल ट्रॉमा देता है दुख

वापस लौटने पर उसे नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. उसके समुदाय ने उसे अपराधी करार देते हुए कहा, “जेल से निकल के आया है, कैदी है ये”. 14 साल की उम्र में, सुनील यह समझने के लिए बहुत छोटा था कि उसके साथ क्या हुआ था और वो कंफ्यूज था और शर्मिंदा महसूस कर रहा था, और अपने खुद के उत्पीड़न के कारण अपराध बोध महसूस कर रहा था. मानसिक रूप से थका हुआ, उसे लगा कि उसका जीवन खत्म हो गया है.

साल 2020 में, बिहार में 'विजेता' नामक एक स्थानीय समूह ने सुनील को ढूंढा और उसे बहुत जरूरी सहायता प्रदान की. 2021 में, वो 'आईएलएफएटी' में शामिल हो गया और मानव तस्करी, बाल श्रम और बाल विवाह से बचे लोगों के अधिकारों की वकालत करने लगा. अब, 19 साल की उम्र में, सुनील बचाए गए बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने में मदद करता है और मानव तस्करी के खतरों के बारे में स्कूलों और गांवों में जागरूकता बढ़ाने के लिए पुरजोर कोशिशें करता है.

जिंदगी जीने का नाम है

पूजा और सुनील दोनों की कहानिया. न सिर्फ तस्करी से बचे लोगों द्वारा झेले गए शारीरिक शोषण को उजागर करती हैं, बल्कि उन गहरे भावनात्मक और मानसिक घावों को भी बताती हैं जो उनके बचाए जाने के बाद भी लंबे समय तक बने रहते हैं. उनके अनुभव हमें तस्करी से बचे लोगों के मानसिक स्वास्थ्य संघर्षों को संबोधित करने और ये सुनिश्चित करने के महत्व की याद दिलाते हैं कि उन्हें अपने जीवन को फिर से बनाने के लिए जरूरी मिले.

Trending news