बापू का 150वां जयंती वर्ष और 21वीं सदी का सेवाग्राम
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बापू का 150वां जयंती वर्ष और 21वीं सदी का सेवाग्राम

महात्मा गांधी की बातें और उनकी स्मृतियों के पास जाने के लिए करीब 100-150 लोग महात्मा गांधी के सेवाग्राम पहुंचे. इनमें पत्रकार, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, गांधीवादी, यूनिवर्सिटीज के छात्र और विदर्भ के किसान नुमाइंदे भी शामिल थे. पढ़िए सेवाग्राम की स्पेशल रिपोर्ट.

वर्धा स्थित महात्मा गांधी का आश्रम सेवाग्राम

नई दिल्ली: नागपुर से वर्धा की तरफ रास्ता बढ़ा जा रहा है. हाइवे का निर्माण चल रहा है, इसलिए कहीं फोर लेन तो कहीं दो लेन में सिमटा रास्ता आपका हमसफर है. बगल में डंफर, रोड रोलर और गर्म कोलतार की गंध. रिमझिम फुहार और चारों तरफ छायी हरियाली. सोयाबीन और कपास के खेत. क्षितिज को धरती से काटती पहाड़ियों की लड़. दृश्य मनोहारी है. शायद दशकों पहले इससे भी सुहावने मौसम और इससे भी भयानक समय में महात्मा गांधी पहली बार वर्धा से पहले एक छोटी सी नदी को पार कर बाईं तरफ मुड़कर सेवाग्राम गए होंगे.

बापू के उस पुराने रास्ते, उनकी बातें और उनकी स्मृतियों के पास जाने के लिए 17 से 19 अगस्त तक करीब 100-150 लोग महात्मा गांधी के सेवाग्राम पहुंचे. इनमें पत्रकार, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, गांधीवादी, यूनिवर्सिटीज के छात्र और विदर्भ के किसान नुमाइंदे भी शामिल थे. भोपाल के गैर सरकारी संगठन विकास संवाद के बैनर तले यहां तीन दिन तक ‘महात्मा गांधी: माध्यम या संदेश’ विषय पर विमर्श होना था. विमर्श बहुत लाजमी भी था, क्योंकि यह महात्मा गांधी का 150वां जयंती वर्ष जो ठहरा.

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सर्वोदय की छाप
सेवाग्राम पहुंचे तो यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि यह अब तक ग्राम ही है. एक बड़ा सा परिसर चहारदीवारी से घिरा है और दीवार बापू के चित्र और सूत्रवाक्य लिखे हैं. बाहर बकरियां चराते स्थानीय निवासी हैं, तो भीतर ‘नई तालीम’ के तहत चलने वाला स्कूल है. लड़के-लड़कियां स्कूल यूनिफॉर्म में पढ़ भी रहे हैं और उछल-कूद भी कर रहे हैं. कभी इस स्कूल का जिम्मा डॉ जाकिर हुसैन संभाला करते थे, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने. आश्रम के हर हिस्से पर विनोवा भावे और सर्वोदय की छाप है.

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अहाते में बापू, कस्तूरबा, महादेव देसाई की कुटिया हैं. मीरा बेन की कुटिया भी है, जो सबसे पहले 1932 में यहां रहने आईं और उनके पीछे-पीछे बापू यहां तक पहुंचे. यानी गांधी की नैतिक सत्ता का दरबार बनने वाला सेवाग्राम उसी समय तैयार हुआ, जब नई दिल्ली में अंग्रेजी राज की रईसी का प्रतीक कनॉट प्लेस बनकर तैयार हो रहा था. और फिर यहां से देश के मुस्तकबिल के फैसले हुए. इसी दूरदराज के गांव में पंगडंडियां नापते हुए कभी वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो आए थे. लंगोटी वाले फकीर ने गांव में खुले आसमान के नीचे खटिया पर रात बिताने का उन्हें न्योता दिया था. यहीं पंडित नेहरू को गांधी का उत्तराधिकारी तय किया गया था. यहीं भारत छोड़ो आंदोलन का फैसला हुआ था. और गांधी की हत्या के बाद पंडित नेहरू ने यहीं से घोषणा की थी कि मुल्क के विकास का उनका रास्ता क्या होगा.

किसानों का संकट
आज यहीं विकास संवाद हमें लाया था. सोचने-विचारने वाले बहुत से लोग थे. सबसे महत्वपूर्ण भाषण वरिष्ठ पत्रकार और मौजूदा परिदृश्य में सामाजिक कार्यकर्ता पी साईनाथ का था. साईनाथ ने घंटे भर से ज्यादा चले भाषण में समझाया कि किसानों की मौजूदा दशा की वजह ऊपर से दिखने वाला कृषि संकट यानी बाढ़ और सूखा नहीं है. किसानों का संकट यह है कि उनके नाम पर एक बड़ा माफिया पल रहा है. उनकी आड़ में उद्योगपति पल रहे हैं. वे किसानों के हिस्से की हर सुविधा चट कर जाते हैं. वे अपने हिसाब से पॉलिसी बनवाते हैं और किसानों को इस हाल में नहीं छोड़ते कि वे खेती कर सकें. भारतीय खेती के संकट को उन्होंने व्यापक मेक्रोइकनॉमिक षड़यंत्र के तौर पर पेश किया.

‘जल थल मल’ पुस्तक के लेखक सोपान जोशी ने धरती पर जीवन की उत्पत्ति के समय से लेकर अब तक के कूड़े के इतिहास को समझाया. उन्होंने बताया कि प्रकृति में कूंड़े जैसी कोई चीज नहीं होती. एक प्राणी अपना जो प्राकृतिक कूड़ा फैंकता है, दूसरा प्राणि उसी से जीवन पाता है. इस तरह जीवन का चक्र चलता है और कोई चीज बेकार नहीं होती. इस कायनात में ‘कूड़ा’ मनुष्य की विशेष देन है.

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सादगी से स्वराज
वरिष्ठ प्रत्रकार अरविंद मोहन और पत्रकार पुष्यमित्र ने महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह को लेकर बातचीत की. वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने गांधीजी पर बनाई गई विशेष फिल्म का प्रदर्शन किया. वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी, दयाशंकर मिश्र, सचिन जैन, पशुपति शर्मा, चंदन शर्मा, विनीत कुमार, बाबा मायाराम, अजीत सिंह, सेवाग्राम के संचालकगण और दूसरे पत्रकार और सामाजिक कार्यकताओं ने विमर्श को संबोधित किया और बातचीत में हस्तक्षेप किया. सामाजिक कार्यकता चिन्मय मिश्र ऐतिहासिक संदर्भों और वर्तमान हालात के बीच पुल बनाते हुए संचालक की भूमिका में रहे.

पूरे कार्यक्रम की खासियत यह रही कि सब कुछ बहुत सादा था. वह पगडंडी जिस पर चलकर बापू यहां तक पहुंचे थे, अब इतने चौड़े रोड में बदल चुकी है कि वाहन आसानी से यहां आ-जा सकें. इसके बावजूद आश्रम में सादा भोजन मिलता है और भोजन करने वालों को अपनी-अपनी थाली राख से मांजनी पड़ती है. यहां मनुष्य से मनुष्य की चाकरी कराने की कुप्रथा अब तक नहीं पहुंची है. यह अब भी महात्मा गांधी के उस आदर्श आत्मनिर्भर गांव का मॉडल है, जहां सब कुछ भीतर से ही पैदा होता है. भोजन-तरकारी से लेकर यहां बनने वाली खादी भी यहीं पैदा हुए कपास से बनाई जाती है.

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यहां रोशनी भी आश्रम की सोलर लाइट से आती है. शायद गांधी की दुनिया और बाहर की दुनिया में यही फर्क है, क्योंकि गांधी की रोशनी भीतर से आती थी. यहां जमा हुए सौ-डेढ़ सौ लोग अपने भीतर की रोशनी को पाने की लालसा लेकर उन्हीं हरी-भरी पहाड़ियों से घिरे रास्ते से लौट गए. देश भर में बिखरे अपने-अपने ठिकानों पर शायद वे कोई दीया जलाएं. हमें ऐसी उम्मीद करनी चाहिए क्योंकि यही सेवाग्राम की परंपरा है.

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