अकेले पड़े अखिलेश! 2022 में जबरदस्त चुनौतियां; साथ देने वाला कोई नहीं
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अकेले पड़े अखिलेश! 2022 में जबरदस्त चुनौतियां; साथ देने वाला कोई नहीं

अखिलेश को चुनावी प्रचार की कमान खुद ही संभालनी पड़ रही है और इसी वजह से उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. अगर मुलायम सिंह यादव की सेहत उनका साथ देती तो वह अखिलेश के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने में अहम भूमिका निभा सकते थे.

अखिलेश यादव (फाइल फोटो)

लखनऊः उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव की चुनावी सभाओं में जोरदार भीड़, उत्साही कार्यकर्ता, बढ़ता जमीनी जनाधार और बहुत ही सोच समझकर किया गया गठबंधन पार्टी की जीत के लिए अहम साबित हो सकता है लेकिन वर्ष 2022 में उन्हें चुनावी चुनौतियों से रूबरू होना पड़ेगा. अखिलेश को अपने दो दशक पुराने चुनावी करियर में पहली बार इस साल अकेले ही चुनाव प्रचार अभियान की कमान संभालनी पड़ रही है और उनके पीछे कोई साथ देने वाला भी नहीं खड़ा है क्योंकि पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव अपनी बढ़ती उम्र के कारण चुनावी सभाओं से नदारद रहते हैं और वह एक या दो बैठकों से अधिक संबोधित नहीं कर पाते हैं.

  1. सपा में नेताओं की कमी
  2. अकेले पड़े अखिलेश
  3. मुलायम की सेहत नहीं दे रही साथ

मुलायम भी नहीं दे पा रहे अखिलेश का साथ

अखिलेश को वर्ष 2012 में शानदार जीत मिली थी क्योंकि उस समय श्री मुलायम सिंह यादव उनके साथ मजबूती से खड़े थे और उन्होंने पूरे राज्य का दौरा किया था. लेकिन इस बार अखिलेश को चुनावी प्रचार की कमान खुद ही संभालनी पड़ रही है और इसी वजह से उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. अगर मुलायम सिंह यादव की सेहत उनका साथ देती तो वह अखिलेश के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने में अहम भूमिका निभा सकते थे.

अपनी पार्टी के एकमात्र प्रचारक

मुलायम अपने कार्यक्रम को सावधानीपूर्वक तैयार करते थे, उनके साथ आने वाले नेताओं की पहचान करते थे और उन मुद्दों पर भी निर्णय लेते थे जिन्हें विभिन्न क्षेत्रों में संबोधित किया जाना था. इस बार, अखिलेश अपनी पार्टी के एकमात्र प्रचारक और स्टार आकर्षण हैं और यह स्वाभाविक रूप से चुनौतियों को और बढ़ा रहा है. एक यह भी बात है कि अखिलेश ने जब से 2017 में पार्टी अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाला है,पार्टी में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व विकसित नहीं होने दिया है. आज, वह अकेले ही चुनाव कार्यक्रम मे हिस्सा ले रहे हैं और उनके साथ उनके अपने चचेरे भाई-बहन भी नहीं दिख रहे हैं.

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समाजवादी पार्टी में नेताओं की कमी

राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि समाजवादी पार्टी में ऐसे नेताओं की भी कमी है जो अखिलेश की अनुपस्थिति में स्थितियों से निपट सकते हैं या फिर किसी भी तरह के राजनीतिक संकट को संभाल कर पार्टी की छवि को नुकसान नहीं होने देते. पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह के सहयोगी बेनी प्रसाद वर्मा, भगवती सिंह जैसे पार्टी के दिग्गजों का निधन हो गया है और अन्य नेता पूरी तरह से किनारे हो गए हैं. दूसरी ओर, भाजपा के पास स्टार प्रचारकों की पूरी फौज है जो विभिन्न अभियानों में एक साथ हिस्सा लेते हैं और जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहे हैं राज्य में कम से कम छह भाजपा नेता सभाओं को संबोधित कर रहे हैं.
अखिलेश के सामने एक और चुनौती अति उत्साही पार्टी कार्यकर्ताओं पर लगाम लगाने की है क्योंकि इनकी कार्यशैली के चलते अखिलेश को अक्सर शमिर्ंदगी उठानी पड़ी है.

मुस्लिम नेता बन रहे परेशानी का सबब

मिसाल के तौर पर कानपुर में पार्टी कार्यकर्ताओं के एक समूह को मंगलवार को प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान हंगामा करने के प्रयास में बुधवार को गिरफ्तार किया गया था. भाजपा ने इस घटना को 'सपा की गुंडागर्दी' के उदाहरण के रूप में रेखांकित पेश किया और इसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी की छवि को बचाने के लिए अखिलेश को पांच कार्यकर्ताओं को निष्कासित करने के लिए मजबूर होना पड़ा. अखिलेश को अपने मुस्लिम और हिंदू समर्थकों के बीच बेहतर संतुलन बनाने की चुनौती का भी सामना करना पड़ता है क्योंकि समाजवादी पार्टी का रूझान शुरू से ही मुस्लिम समुदाय की तरफ रहा है और इसी वर्ग की बदौलत पार्टी जीतती भी रही है लेकिन इस बार भाजपा ने उन्हें मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को छोड़ने के लिए मजबूर किया है. वह अब खुलकर इसके बारे में नही बोल रहे हैं. कई बार तो कुछ मुस्लिम नेता ही उनके लिए परेशानियों का सबब बनते जा रहे हैं. हाल ही में सपा सांसद शफीकुर-रहमान बरक और एस.टी. हसन ने सपा की अपने बयानों से इतनी किरकिरी कराई कि अखिलेश को अपने ही सांसदों के बयानों से अलग होने को मजबूर होना पड़ा.

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पार्टी के भीतर असंतोष

जैसे-जैसे टिकट बंटवारे का समय नजदीक आता जा रहा है, अखिलेश को भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा, जब उन्हें अपनी ही पार्टी के भीतर असंतोष को संभालना होगा क्योंकि गठबंधन सहयोगियों को अगर कुछ सीटें दी जाती हैं तो इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में असंतोष होगा. ये कार्यकर्ता पिछले पांच वर्षों से पार्टी को मजबूत करने का काम करते रहे हैं और ऐसे में अब टिकट नहीं दिए जाने से उनमें अंसतोष पैदा होना स्वाभाविक ही है. इस स्थिति से निपटने के लिए अखिलेश के लिए यह परीक्षा का समय होगा क्योंकि सपा नेता चुनाव लड़ने के लिए अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में पांच साल से काम कर रहे हैं.
अखिलेश ने कभी भी गठबंधन की राजनीति को नहीं अपनाया था लेकिन इस बार ओम प्रकाश राजभर जैसे उनके नए सहयोगी राजनीति में कड़ी सौदेबाजी कर सकते हैं. इसके अलावा वह अपने सभी सहयोगियों को किस प्रकार खुश रखते हैं, यह देखना बाकी है.

मुलायम ने फोन पर संभाली कमान

अखिलेश की एक और समस्या यह भी है कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं और मीडिया के लिए ज्यादातर उपलब्ध नहीं रहते है और पार्टी में कोई भी उनकी तरफ से मीडिया को कोई बयान जारी नहीं कर सकता है. अखिलेश के विपरीत, मुलायम सिंह यादव अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद अभी भी कईं बार टेलीफोन पर उपलब्ध हो जाते हैं और वरिष्ठ पत्रकारों तथा कार्यकर्ताओं विशेष रूप से पुराने समय के कार्यकर्ताओं से बात करते हैं. उनकी यही वह शैली है जो मुलायम को जमीनी हकीकत से जोड़े रखती है और वह जमीनी हकीकत से परिचित भी होते रहते हैं.

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