Zee News Time Machine: भारत का वो घोटाला, जिसके बाद आ गई थी फिरोज गांधी और जवाहरलाल नेहरू के रिश्ते में दरार
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Zee News Time Machine: भारत का वो घोटाला, जिसके बाद आ गई थी फिरोज गांधी और जवाहरलाल नेहरू के रिश्ते में दरार

Time Machine on Zee News: जी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में आज हम चलेंगे 64 साल पुराने जमाने में. ये साल था 1958. ये साल फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह का था. इसी साल उन्होंने जीता था अपना पहला गोल्ड. ये वही साल था जब सुपरस्टार देव आनंद के काले कोट पर कोर्ट ने बैन लगा दिया था. किसी भी सार्वजनिक जगह पर वह काला कोट पहनकर नहीं जा सकते थे. और यही वो साल था जब सड़कों पर आई देश की पहली स्वदेशी कार एम्बेसडर, जिसकी कीमत थी 14 हजार.

आज टाइम मशीन में जानिए साल 1958 के भारत की कहानी

Zee News Time Machine: जी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में आज हम चलेंगे 64 साल पुराने जमाने में. ये साल था 1958. ये साल फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह का था. इसी साल उन्होंने जीता था अपना पहला गोल्ड. ये वही साल था जब सुपरस्टार देव आनंद के काले कोट पर कोर्ट ने बैन लगा दिया था. किसी भी सार्वजनिक जगह पर वह काला कोट पहनकर नहीं जा सकते थे. और यही वो साल था जब सड़कों पर आई देश की पहली स्वदेशी कार एम्बेसडर, जिसकी कीमत थी 14 हजार.

मेक इन इंडिया की शुरुआत, एम्बेस्डर के साथ

वर्ष 1958 में हिंदुस्तान की सड़कों पर उतरी एम्बेसडर कार. शान की पहचान मानी जानी वाली एम्बेसडर कार इसलिए भी खास थी क्योंकि हिंदुस्तान मोटर्स नाम की कंपनी इसे भारत में ही बनाती थी और सही मायने में एम्बेसडर कार से मेक इन इंडिया की भी शुरुआत हुई थी. सड़क पर उतरने के साथ ही एम्बेसडर कार हिंदुस्तानियों के दिलों पर छा गई. दिखने में ये कार जितनी शानदार थी, चलने भी उतनी ही जानदार थी.

एम्बेसडर कार की शुरुआत ब्रिटिश कंपनी मॉरिस ऑक्सफोर्ड ने की थी, जिसने ब्रिटेन में इस कार को ‘लैंडमास्टर’ के नाम से लॉन्च किया था और बाद में हिंदुस्तान मोटर्स ने कुछ बदलावों के साथ इसे भारत में एम्बेसडर के नाम से लॉन्च किया था.

कुछ खास बातें

- 1958 में आई एम्बेसडर की कीमत उस वक्त 14 हजार रुपये थी
- ब्रिटिश कार से प्रेरित होने के बावजूद एम्बेसडर को हमेशा ही इंडियन कार ही कहा गया
- इसे ‘किंग ऑफ इंडियन रोड’ का दर्जा भी मिला
- राजे-रजवाड़ों और नेताओं का स्टेट्स सिंबल बन गई थी ये कार

पंडित जवाहर लाल को भी विदेशी गाड़ियों का काफी शौक था, लेकिन जब भी कोई विदेशी मेहमान आता था तो पंडित नेहरू उन्हें एम्बेसडर कार में ही बिठाते थे।

नेहरू-फिरोज गांधी के रिश्ते में दरार

आज़ाद हिंदुस्तान का पहला वित्तीय घोटाला 1958 में हुआ था,जिसने पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके दामाद फिरोज गांधी के रिश्ते में दरार ला दी. 1958 में मूंदड़ा घोटाला हुआ था. इस घोटाले को हरिदास मूंदड़ा नाम के व्यक्ति ने अंजाम दिया था इसलिए ये मूंदड़ा घोटाले के नाम से जाना गया. ये देश का पहला वितीय घोटाला था जिसमें व्यापारी, अफ़सर और नेता की तिकड़ी शामिल थी.

घोटाला सामने आने के बाद उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बड़ी किरकिरी हुई, क्योंकि इसे उजागर करने वाला और कोई नहीं बल्कि उनके दामाद फिरोज गांधी थे. घोटाला सामने आने के बाद तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. हालंकि, नेहरू का इस घोटाले से कोई संबंध नहीं था लेकिन इसकी वजह से नेहरू और फ़िरोज़ गांधी के रिश्तों में दरार आ गई.

घोटाले में हुआ ये था कि हरिदास मूंदड़ा ने सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करके एलआईसी को अपनी संदिग्ध कंपनियों के शेयर्स ऊंचे दाम पर ख़रीदने के लिए मजबूर किया था, जिसकी वजह से एलआईसी को करोड़ों का नुकसान झेलना पड़ा था.

 देवानंद के काले कोट पर लगा बैन

1958 में देव आनंद की सुपरहिट फिल्म ‘काला पानी’ रिलीज हुई थी और फिल्म की रिलीज के वक्त कोर्ट ने देव आनंद के काले कोट पर बैन लगा दिया. देव आनंद ने अपने जमाने में काले कोट को लेकर काफी सुर्खियां बटोरीं. देव आनंद जब काला कोट पहनकर पब्लिक प्लेस में निकलते थे तो उनकी एक झलक पाने के लिए लोग बेकाबू हो जाते थे.

देव आनंद का काला कोट और वॉइट शर्ट इतने पॉपुलर थे कि हर कोई उनके लुक को कॉपी करता था लेकिन देव आनंद के लुक को कोई टक्कर नहीं दे पाया. कहा तो ये भी जाता है कि देव आनंद जब काला कोट पहन कर घर से बाहर निकलते थे तो लड़कियां उन्हें घेर लेती थीं. इतना ही नहीं कई लड़कियां तो उन्हें देखने के लिए छत से कूदने को भी तैयार रहती थीं. देव आनंद के लिए लोगों की दीवानगी को देखते हुए कोर्ट ने पहली बार किसी एक्टर के पहनावे के मामले में दखल दिया था और देव आनंद के सार्वजनिक जगहों पर काला कोट पहनने पर रोक लगा दी थी।

आजादी के बाद जब ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर आए भारत

1958 में ब्रिटेन के प्राइम मिनिस्टर हैरल्ड मैकमिलन भारत आए. भारत में मैकमिलन का स्वागत प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने किया. वैसे तो मैकमिलन पहले भी भारत आ चुके थे लेकिन 1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद ये उनकी पहली भारत यात्रा थी.

मैकमिलन को रिसीव करने के लिए पंडित नेहरू खुद अपनी कार लेकर गए थे और उनको लेकर सीधे अपने आवास पहुंचे. नेहरू ने मैकमिलन और उनकी पत्नी को भारतीय पकवान भी खिलाए. भारत में मिले इस सम्मान से ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर मैकमिलन  बेहद खुश हुए और ब्रिटेन लौटने के बाद उन्होंने कहा कि 'भारत में ब्रिटेन के चर्चे जितने 1947 से पहले थे, उतने ही चर्चे 1947 के बाद भी हैं.'

'द फ्लाइंग सिख' का पहला गोल्ड

1947 में जब देश का बंटवारा हुआ, तब 18 साल का एक नौजवान अपना सब कुछ गंवाकर पाकिस्तान से भारत पहुंचा. बंटवारे ने उस नौजवान के माता-पिता और भाई-बहनों को छीन लिया. उस वक्त शायद ही किसी ने सोचा होगा कि हालात का मारा ये नौजवान एक दिन हिंदुस्तान की शान बनेगा.

ये कहानी है हिंदुस्तान के 'फ्लाइंग सिख' मिल्खा सिंह की... जिन्होंने खेलों की दुनिया में हिंदुस्तान का नाम रोशन किया था. मिल्खा सिंह की कामयाबियों की लिस्ट में सबसे अहम है 1958 के कॉमनवेल्थ गेम्स की ऐतिहासिक जीत. 1958 के कार्डिफ कॉमनवेल्थ गेम्स में मिल्खा सिंह ने 440 यार्ड की रेस में गोल्ड मेडल जीता था. ये कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत का पहला गोल्ड मेडल था.

1958 के कॉमनवेल्थ गेम्स में मिल्खा सिंह ने दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेंस को हराकर गोल्ड मेडल जीता था. मिल्खा सिंह ने 46.6 सेकंड में रेस पूरी की, जबकि स्पेंस अपनी दौड़ 46.9 सेकंड में पूरी कर पाए थे. 1969 में मिल्खा सिंह ने पाकिस्तान के बेहतरीन एथलीट अब्दुल खालिक को हराया था और तब पाकिस्तान में ही उन्हें फ्लाइंग सिख की उपाधि मिली थी।

जब आया सेना को स्पेशल पावर देने वाला एक्ट AFSPA

AFSPA यानी आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट. वैसे तो इस एक्ट को आज़ादी से पहले ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए बनाया था.लेकिन आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने भी इस क़ानून को जारी रखने का फैसला किया. 1958 में एक अध्यादेश के जरिए AFSPA लाया गया और तीन महीने बाद ही अध्यादेश को संसद की मंज़ूरी मिल गई. जिसके बाद 11 सितंबर 1958 को AFSPA एक कानून के रूप में लागू हो गया.

क्या है AFSPA एक्ट?

- इस एक्ट के जरिए सशस्त्र बलों को अशांत क्षेत्रों में शांति बनाए रखने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं
- ये एक्ट सेना को क़ानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को चेतावनी देने के बाद उस पर बल प्रयोग और गोली चलाने की भी इजाज़त देता है.
- इस एक्ट के तहत सैन्य बलों को बिना अरेस्ट वारंट के किसी व्यक्ति को संदेह के आधार पर गिरफ्तार करने, किसी परिसर में प्रवेश करने और तलाशी लेने का भी अधिकार है.
- एक्ट की बड़ी बात ये है कि जब तक केंद्र सरकार मंजूरी ना दे, तब तक सुरक्षा बलों के खिलाफ कोई मुकदमा या कानूनी कार्यवाही नहीं हो सकती है.
-देश का गृह मंत्रालय AFSPA क़ानून का इस्तेमाल ज़रूरत के आधार पर प्रभावित क्षेत्रों में करता है।

एक वोट से मदर इंडिया चूक गई थी ऑस्कर!

1957 में रिलीज हुई मदर इंडिया ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोहरत बटोरी थी. उस दौर में इस फ़िल्म ने कामयाबी, कमाई और अवॉर्डस की झड़ी लगा दी थी. 1958 में मदर इंडिया को भारत की ओर से ऑस्कर अवॉर्ड्स के लिए भेजा गया. लेकिन वहां मदर इंडिया की किस्मत ने साथ नहीं दिया और ये फिल्म सिर्फ एक वोट से Academy Award for Best Foreign Language Film की कैटेगरी में चूक गई. मदर इंडिया के निर्देशक महबूब खान ने अपनी फिल्म को ऑस्कर तक पहुंचाने के लिए उस जमाने में 12 हजार डॉलर खर्च किए थे.

मदर इंडिया अपने समय की सबसे महंगी फिल्म थी. उस वक्त इसका बजट 40 लाख रुपये रखा गया था, जो बढ़कर 60 लाख रुपये के पार चला गया था. लोगों ने मदर इंडिया की कहानी में आजादी के बाद के भारत की तस्वीर देखी. साथ ही एक सशक्त महिला के किरदार ने लोगों का दिल जीत लिया.

मदर इंडिया ही वो फिल्म है, जिसके निर्माण के दौरान नरगिस और सुनील दत्त को एक दूसरे से प्यार हुआ था लेकिन निर्देशक महबूब खान ने दोनों के इस रिश्ते को फिल्म रिलीज होने तक छुपा कर रखने को कहा था, क्योंकि इससे फिल्म पर बुरा असर पड़ने की आशंका थी क्योंकि फिल्म में नरगिस ने सुनील दत्त की मां का रोल किया था.

नेहरू ने लगाया गिफ्ट टैक्स

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1958 में बजट पेश करते हुए 1957 में वित्त मंत्री टीटी कृष्णामाचारी द्वारा लगाए गए टैक्स में कोई खास बदलाव नहीं किया. लेकिन टैक्स चोरी को रोकने के लिए 'गिफ़्ट टैक्स' नाम से नए टैक्स की घोषणा की.गिफ़्ट टैक्स के प्रस्ताव की घोषणा करते हुए नेहरू ने कहा, 'करीबी रिश्तेदारों या सहयोगियों को गिफ़्ट के ज़रिए प्रॉपर्टी ट्रांसफ़र करना ना सिर्फ एस्टेट ड्यूटी बल्कि इनकम टैक्स, वेल्थ टैक्स और एक्सपेंडिचर टैक्स से बचने का सबसे आम तरीका बन चुका है. इसे रोकने का सबसे प्रभावी तरीका गिफ़्ट पर टैक्स लगाना है. इस तरह का टैक्स अमेरिका, कनाडा, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में पहले से लागू है.'

गिफ्ट टैक्स के प्रावधानों में पत्नी को दिए गए एक लाख रुपये तक के गिफ़्ट पर टैक्स लागू नहीं था. अक्टूबर 1998 में गिफ़्ट टैक्स को खत्म कर दिया गया था और सभी तरह के गिफ़्ट पूरी तरह से टैक्स फ्री हो गए थे लेकिन 2004 में इस Tax को दोबारा लागू कर दिया गया.

 जब रोशन हुआ राजपथ

वैसे तो गणतंत्र दिवस परेड की शुरुआत 1950 में हुई थी और हर साल इस परेड में कुछ ना कुछ ऐसा जुड़ता गया, जिसने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा. इसी कड़ी में 1958 में गणतंत्र दिवस परेड के मौके पर राजधानी की सरकारी इमारतों को रोशनी से सजाने की शुरुआत हुई.

26 जनवरी को यादगार बनाने के लिए सरकार ने 1958 में आदेश जारी किया कि हर सरकारी दफ़्तर को गणतंत्र दिवस के अवसर पर रोशन किया जाए. और तब राजधानी के सभी सरकारी दफ्तरों पर लाइटें लगाई गई थीं, जिसके बाद रात में दिल्ली का नज़ारा देखते ही बनता था. सरकारी दफ्तरों को रोशन करने की ये परम्परा जो 1958 में शुरू हुई थी, वह आज भी लगातार जारी है.

अस्तित्व में आया दिल्ली नगर निगम

दिल्ली नगर निगम... आज से 64 साल पहले अप्रैल 1958 में अस्तित्व में आया था. इसका गठन DMC एक्ट यानी दिल्ली नगर निगम अधिनियम 1957 के तहत किया गया था. संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद 28 दिसंबर 1957 को राष्ट्रपति ने दिल्ली नगर निगम के गठन को मंजूरी दे दी. इसके बाद दिल्ली नगर निगम ने सात अप्रैल 1958 में काम करना शुरू किया और दिल्ली को पहला महापौर मिला. दिल्ली नगर निगम के ज़िम्मे कई काम थे, जिनमें

-सार्वजनिक सड़कों और नालियों की सफाई
-सार्वजनिक शौचालयों और मूत्रालयों की सफाई और रखरखाव
-कूड़े के उचित निस्तारण
-मृत पशुओं के शवों का निस्तारण
-जन्म और मृत्यु का पंजीकरण
- और संक्रामक रोगों की रोकथाम के उपाय शामिल थे.

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