1971 की लड़ाई में पाकिस्तानी सेना के घुटने टेकने के बाद क्या हुआ... जानिए यहां
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1971 की लड़ाई में पाकिस्तानी सेना के घुटने टेकने के बाद क्या हुआ... जानिए यहां

1971 की लड़ाई का वह किस्सा जो भारतीय सेना के शौर्य के साथ ही साथ बताता है भारत की 'अतिथि देवो भव' परंपरा...

1971 की लड़ाई से जुड़ा एक अहम किस्सा सुना रहे हैं कर्नल (रिटायर्ड) दिलीप कुमार घोष 'विशिष्ट सेवा मैडल'

प्रमोद शर्मा, इंदौर: अतिथि देवो भव यानि अतिथि देवता के समान होता है. जी हां हमारे देश की संस्कृति ही कुछ ऐसी है कि अतिथियों को देवता जैसा सम्मान देते हैं भले ही वह हमारे दुश्मन ही क्यों न हों. अतिथि सत्कार का कुछ ऐसा ही जज्बा भारतीय सेना ने 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान भी दिखाया था. आपको बता दें कि उस युद्ध में समर्पण करने वाले पाकिस्तान पूर्वी सेना अध्यक्ष को पूरे सम्मान के साथ कलकत्ता स्थित एक फौजी अधिकारी के कमरे में रखा गया था. 3 दिसंबर 1971 को शुरू हुए और 16 दिसंबर को खत्म हुए उस युद्ध के बारे में यह रहस्योद्घाटन किसी और ने नहीं बल्कि इंदौर के महू में रहने वाले 79 वर्ष के रिटायर्ड कर्नल दिलीप कुमार घोष 'विशिष्ट सेवा मैडल' ने किया है.

  1. कर्नल घोष ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई थी
  2. युद्ध में उनको सेना के लिए असलहा सप्लाई करने का काम सौंपा गया था
  3. 16 दिसंबर को अचानक उन्हें अपना कमरा खाली करने को कहा गया था

आपको बता दें कि कर्नल घोष उस दिन की याद करते हुए बताते हैं कि युद्ध जीतने के बाद वे कलकत्ता (अब कोलकाता) स्थित सैन्य छावनी फोर्ट विलियम में ठहरे थे. 16 दिसंबर को अचानक उन्हें अपना कमरा खाली करने को कहा गया. बाद में उन्हें पता चला कि उनके कमरे में पाकिस्तान सेना के जनरल आमिल अब्दुल्ला खां नियाजी और पास के कमरे में पाकिस्तानी सेना के सैन्य सलाहकार जनरल राव फरमान अली को रखा गया था. इस घटना का जिक्र कर्नल घोष ने इसलिए किया क्योंकि वे चाहते हैं कि आज के दिन एक ओर जहां देश भारतीय सेना के शौर्य को तो याद करे ही वहीं दूसरी ओर देशवासी यह बात भी जान सकें कि हमारी सेना युद्धबंदियों के साथ भी सम्मान से पेश आती है.

उस दौर को याद करते हुए कर्नल घोष बताते हैं कि 1971 के समय आज के बांग्लादेश में आम चुनाव के दौरान मुक्ति वाहिनी संगठन के शेख मुजीबुर्र रहमान चुनाव में विजयी हुए पर वहां पकिस्तान का कब्जा था तो सरकार पर आसीन नहीं होने दिए गए. इसके बाद पाकिस्तानी सेना का पूर्वी पाकिस्तानियों (आज के बांग्लादेशियों) पर जुर्म और कत्लेआम करना शुरू कर दिया गया. लोग जान बचा कर भारत में शरण लेने लगे. वहीं दूसरी ओर मुक्ति वाहिनी का आंदोलन भी लगातार जारी था. उसी दौरान पाकिस्तान ने हमारे ऊपर भी हमला किया. सेनाध्यक्ष ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी. उस समय कर्नल घोष की पोस्टिंग मुंबई में थी लेकिन उनको फौरन 48 घंटे में बंगाल पहुंचने का आदेश दिया गया क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली बोली जाती थी. और सेना को वहां ऐसे अधिकारियों की जरूरत थी जो बंगाली जानते हों. घोष बताते हैं कि 1971 में हमारी सेना ने मुक्ति वाहिनी के जैसे दाढ़ी बढ़ाकर इंटरनली सपोर्ट करना शुरू कर दिया था. 3 दिसंबर 1971 को भारत-पकिस्तान युद्ध की शुरुआत हुई और 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने हार मान ली और बांग्लादेश को आजादी मिल गई.

कर्नल घोष आगे बताते हैं कि 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के सभी घायल सैनिकों का इलाज तो किया ही साथ ही साथ जब पाकिस्तानी सेना के 90 हजार सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया तो उनका भी सम्मान रखा. क्योंकि हमारे देश में अतिथि देवो भव वाली परंपरा का प्रचलन रहा है चाहे वह दुश्मन ही क्यों न हो. कर्नल घोष बताते हैं कि 1971 की लड़ाई के बाद जब पूर्वी पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष अमीर अब्दुल्ला खान ने अपनी सेना के साथ सरेंडर किया तो उन्हें कलकत्ता लाया गया. जहां उन्हें उनके ही कमरे में रखा गया वह भी पूरे सम्मान के साथ.

कर्नल घोष ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई थी. 1971 के युद्ध में उनको सेना के लिए असलहा सप्लाई करने का अहम काम सौंपा गया था. मूल रूप से बंगाल के घोष के पिता भी आर्मी में इंजीनियर थे. इसके अलावा कर्नल घोष ने मिशन मेघदूत में भी अहम भूमिका निभाई थी. इंदौर के महू में रहने वाले रिटायर्ड कर्नल दिलीप घोष बताते हैं कि उन्हें बचपन से ही सेना में जाने का सपना था.

आपको बता दें कि इंदौर के महू में निवारण चंद्र घोष के घर 6 जुलाई 1939 को दिलीप घोष का जन्म हुआ था. महू से पढ़ाई के बाद 1967 में उन्होंने आर्मी ज्वाइन की और लंबे समय तक देश की सेवा के बाद 1991 में सेवानिवृत्त हुए. राष्ट्रपति द्वारा 1984 में कर्नल घोष को विशिष्ट सेवा मैडल भी दिया गया था. कर्नल घोष भले ही सेना से रिटायर हो चुके हैं लेकिन उनके अंदर देश सेवा की ज्वाला अभी जल रही है. 79 साल की उम्र में भी वे अपने आप को बूढ़ा नहीं समझते. कर्नल घोष शत्रुओं से देश की रक्षा और दुश्मनों से लड़ने को अभी भी तैयार हैं. उनके आंखों में चमक और चेहरे पर देश प्रेम की भावना साफ नजर आती है.

कर्नल घोष बताते हैं कि उन्होंने 1984 में सियाचिन में ऑपरेशन मेघदूत में भी भाग लिया थी और उसे सफलता पूर्वक खत्म भी किया. कर्नल घोष यह भी कहते हैं कि उनका मन अभी देश की सेवा से नहीं भरा है. वे कहते हैं कि अगर उनको अभी भी आदेश मिले तो दुश्मनों से लड़ने की लिए तैयार हैं. कर्नल घोष का बेटा भी सेना में सेवाएं दे रहा है. वे कहते हैं कि उनके लिए देश सर्वोपरि है. सीने पर लगे मैडल को लेकर सवाल किया गया तो कर्नल घोष बोले, "यह भारत माता का प्रसाद है, गर्व होता है."

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