जानें, भगत सिंह और सावरकर के रिश्तों का क्या है सच, बहुत कम लोगों को है पता
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जानें, भगत सिंह और सावरकर के रिश्तों का क्या है सच, बहुत कम लोगों को है पता

भगत सिंह और सावरकर को लेकर सोशल मीडिया पर अलग-अलग बातें देखने को मिलती हैं. ये लोग इस बात पर चर्चा करते है कि दोनों के बीच कैसा रिश्ता था?

जानें, भगत सिंह और सावरकर के रिश्तों का क्या है सच, बहुत कम लोगों को है पता

स्वतंत्रता सेनानी विनायक सावरकर की आज पुण्यतिथि है. 26 फरवरी, 1966 को उनका निधन हुआ था. वीर सावरकर को लेकर कई लोगों के अपने-अपने मत हैं. भगत सिंह से भी उनकी काफी तुलना की जाती है, लेकिन सच्चाई से बहुत कम लोग ही वाकिफ हैं. लेखक विष्णु शर्मा ने प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित अपनी किताब 'इतिहास के 50 वायरल सच' में उनकी जिंदगी के कई पहलुओं पर प्रकाश डाला है, जिसमें एक अध्याय सावरकर और भगत सिंह के संबंधों पर भी है. लेखक विष्णु शर्मा ने किताब में लिखा है-

हम आपके साथ उनकी किताब का ये अंश ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं...

जब भी भगत सिंह और सावरकर की जयंती या पुण्यतिथि जैसे मौके आते हैं, ऐसे में तमाम लोग सावरकर और भगत सिंह की तुलना करना शुरू कर देते हैं. उनका मकसद ये बताना होता है कि भगत सिंह कितने महान थे. जबकि भगत सिंह का कद इतिहासकारों ने इतना कद्दावर बना दिया है कि सावरकर को पसंद करने वाले लोग उनके समर्थन में भगत सिंह की आलोचना भी नहीं कर पाते. जो लोग ये तुलना करते हैं उन्हें शायद ये पता नहीं है कि भगत सिंह और सावरकर के बीच क्या रिश्ता था? क्या वे भी ऐसे ही लड़ते थे जैसे उनके चाहने वाले लड़ते हैं?

आप इतिहास खंगालेंगे तो न तो आपको भगत सिंह का कोई बयान सावरकर के विरोध में मिलेगा ना ही सावरकर का बयान भगत सिंह के विरोध में मिलेगा. हालांकि, गांधीजी के तौर तरीकों के बारे में दोनों की राय एक जैसी थी. दोनों ने अलग-अलग तरीकों से गांधीजी की नीतियों से असहमति जताई थी. दोनों के समर्थकों का मानना है कि न गांधीजी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने की पैरवी की थी और ना ही सावरकर के काला पानी की सजा रुकवाने या कम करवाने के लिए कुछ किया था. सावरकर को भी फांसी हो जाती तो ये तुलना भी नहीं होती. जेल से आने के बाद सावरकर ने ज्यादातर काम हिंदुत्व के लिए किया, 'हिंदुत्व' शब्द भी उन्हीं द्वारा दिया गया था, और ये एक बड़ी वजह बन गई, जिसके चलते लोग आजादी के लिए उनके संघर्ष की बजाय उनकी हिंदुत्व वाली विचारधारा पर चर्चा करते हैं और गाहे बगाहे सावरकर के मुकाबले भगत सिंह को खड़ा कर देते हैं. 

एक और वजह थी, हिंदू महासभा के एक और अध्यक्ष पंडित मदनमोहन मालवीय गांधीजी के करीबी थे, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय खोलने के बावजूद, हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बावजूद न तब और न अब लोगों ने कभी उन्हें निशाने पर नहीं लिया, लेकिन चूंकि हैदराबाद में 90 फीसदी हिंदुओं के होते हुए भी सरकारी नौकरियों की 85 फीसदी सीटों पर मुसलमान काबिज थे, इसके खिलाफ सावरकर के आंदोलन को गांधीजी ने समर्थन नहीं किया था, इसलिए उनकी गांधीजी से बिगड़ गई. दोनों में पहले से भी मतभेद थे. वैसे भी सावरकर आजादी के बाद किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल होने के पक्ष में नहीं थे, कांग्रेस से ही नहीं जनसंघ से भी दूर रहे, मालवीयजी की तरह गांधीजी के करीब भी नहीं रहे. ये भी बड़ी वजहें हैं कि सावरकर को भगत सिंह के मुकाबले कमतर दिखाया जाता रहा. 

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जबकि हकीकत में इन दोनों शख्सियतों का आपस में कभी कोई विवाद रहा ही नहीं. बल्कि उल्टे भगत सिंह ने वीर सावरकर की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी किताब '1857 का स्वातंत्र्य समर' का तीसरा एडीशन छपवाया और संगठन के लिए धन इकट्ठा करने के लिए उसकी कीमत भी ज्यादा रखी. इसके लिए उन्होंने बाकायदा रत्नागिरी में जाकर वीर सावरकर से मुलाकात की और उनसे उनकी पुस्तक को छापने की अनुमति ली. उससे भी ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य ये है कि सावरकर की लिखी यही पुस्तक भगत सिंह की बायोग्राफी में जिन पुस्तकों को उन्होंने जेल या जेल से बाहर पढ़कर प्रेरणा ली, उन पुस्तकों में भी शामिल है. लेकिन आपको हर कोर्स किताब या भगत सिंह से जुड़ी फिल्मों, सीरियल्स में बताया जाएगा कि फांसी वाले दिन भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. तो बाकी किताबें भगत सिंह की आधिकारिक सूची में क्या कर रही थीं और भगत सिंह ने पढ़ी भी थीं, तो उनके बारे में क्यों नहीं बताया जाता? भगत सिंह ने अलग- अलग भाषाओं की जो देसी या विदेशी पुस्तकें पढ़ी थीं, उनकी सूची आप लुधियाना की शहीद भगत सिंह रिसर्च कमेटी के वेब पेज http://www.shahidbhagatsingh.org/index.asp?linkid-32 पर भी पढ़ सकते हैं और तस्दीक कर सकते हैं कि भगत सिंह खाली लेनिन की ही किताब नहीं पढ़ रहे थे बल्कि तिलक की 'गीता रहस्य', 'राजा महेंद्र प्रताप की जीवनी', सचींद्रनाथ सान्याल की 'बंदी जीवन' के साथ वीर सावरकर की '1857 का स्वातंत्र्य समर' भी पढ़ रहे थे.

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आजादी से पहले के तौर में पंजाबी की एक मशहूर पत्रिका थी 'कीर्ति', जिसमें खुद भगत सिंह भी लिखा करते थे. 18 अप्रैल, 1928 को इस पत्रिका में एक लेख छपा था "The Significance of May 10th' यानी 10 मई की महत्ता. 10 मई यानी 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला दिन, इस लेख में 10 मई के बहाने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बात की गई थी. इसे लोग सिपाही विद्रोह या मुगलों का सत्ता पाने की छटपटाहट या राजाओं की बगावत बताते रहे. वो सावरकर ही थे, जिन्होंने उसे भारत की आजादी की पहली लड़ाई बताया और क्यों थी, वो आजादी की पहली लड़ाई इसको साबित करने के लिए कई तथ्यों को अपनी किताब में बारीकी से पिरोया भी. इस लेख में साफ-साफ लिखा था कि भगत सिंह और उनके साथियों ने इस किताब को और सावरकर के बारे में विस्तार से पढ़ा था.

सावरकर की इस किताब के प्रति भगत सिंह के लगाव की कहानी उनके एक करीबी सहयोगी राजा राम शास्त्री ने विस्तार से 'अमर शहीदों के संस्मरण' में लिखी है, वे लिखते हैं, ''वीर सावरकर द्वारा लिखित '1857 का स्वातंत्र्य समर' पुस्तक ने भगत सिंह को बहुत अधिक प्रभावित किया था. यह पुस्तक भारत सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी. मैंने इस पुस्तक की प्रशंसा सुनी थी और इसे पढ़ने का बहुत ही इच्छुक था. पता नहीं कहां से भगत सिंह को ये पुस्तक प्राप्त हो गई थी. वह एक दिन इसे मेरे पास ले आए. जिससे ली है, उसे देनी होगी, इसलिए वे मेरे बहुत कहने पर भी देने को तैयार नहीं हो रहे थे. जब मैंने इसे जल्द-से-जल्द पढ़कर उसे अवश्य लौटा देने का वायदा किया तब उन्होंने वो पुस्तक मुझे बस 36 घंटे के लिए पढ़ने के लिए दी.'' जैसे-तैसे जल्दी पढ़कर राजा राम शास्त्री ने ये किताब जब भगत सिंह को वापस कर दी तो एक दिन भगत सिंह उनसे बोले, “यदि तुम कुछ परिश्रम करने के लिए तैयार हो जाओ और थोड़ी मदद करने के लिए तैयार हो जाओ तो इस पुस्तक को गुप्त रूप से प्रकाशित करने का उपाय सोचा जाए."

राजाराम शास्त्री लिखते हैं कि वे फौरन राजी हो गए थे, वे आगे लिखते हैं, “भगत सिंह ने किसी प्रेस में प्रबंध कर दिया था. वह प्रतिदिन रात को कुछ मैटर मुझे प्रूफ देखने के लिए दे जाते थे. मैं रात में उसे देखकर प्रूफ ठीक करके रख छोड़ता था. दूसरे दिन भगत सिंह उसे ले जाते थे. कुछ दिनों तक बराबर यह सिलसिला चलता रहा. इस पुस्तक को दो खंडों में प्रकाशित किया गया, प्रत्येक खंड की कीमत आठ आना रखी गई, फिर गुप्त रूप से इसे बेचने का प्रबंध किया गया. मुझे याद है मैंने इस पुस्तक को सबसे पहले पुरुषोत्तम दास टंडन के हाथ बेचा था. इसके प्रकाशन से टंडनजी बहुत प्रसन्न हुए थे. इसे बेचने में सुखदेव ने बहुत अधिक परिश्रम किया था. इतना ही नहीं भगत सिंह ने इस प्रकाशन की दो प्रतियां सावरकर को भी भेजी थीं. 

बाद में लालकृष्ण आडवाणी ने 10 मई, 2007 को इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा, '150 years of Heroism Via Kala Pani'. उसमें भी लगभग उन्हीं तत्थों के बारे में लिखा गया, इस लेख का भी हवाला दिया गया. दरअसल यह वो दौर था जब भारतीयों के पास पढ़ने के लिए ज्यादा साहित्य था ही नहीं. बख्तियार खिलजी के नालंदा लाइब्रेरी में लाखों किताबों के जलकर नष्ट कर देने के बाद जो किताबें कहीं कहीं थीं भी तो वो आम लोगों की पहुंच में नहीं थीं. यहां तक कि चाणक्य का अर्थशास्त्र भी 1909 में जाकर मैसूर की एक लाइब्रेरी में मिला था. ऐसे में 1907 में आई तिलक की 'गीता रहस्य' और सावरकर '1875 का स्वातंत्र्य समर' के साथ-साथ आनंद मठ जैसी गिनती की किताबें थीं, जो युवाओं में देश और संस्कृति के प्रति जोश का भाव भर सकती थीं. भगत सिंह जैसे ज्यादातर युवा ऐसे में काफी विदेशी साहित्य पढ़ते थे, रूस की क्रांति के नायकों से प्रेरणा लेते थे. 

जब अमेरिका में गदर पार्टी बनाई गई तो उसका उद्देश्य रखा गया, भारत की अलग-अलग छावनियों में विद्रोह करवाकर 1857 जैसा गदर कला और देश को आजाद करना. ऐसे में 1857 की जंग से युवा प्रेरणा ले सकें, उसके लिए यूनिवर्सिटी ऑफ केलीफोर्निया, बर्कले के प्रोफेसर लाला हरदयाल ने तय किया कि वीर सावरकर की किताब को अमेरिका में पब्लिश करवाया जाएगा. उनको ये आइडिया सावरकर के संगठन में महाराष्ट्र में काम कर चुके विष्णु गणेश पिंगले ने दिया था, जो उन दिनों अमेरिका में गदर पार्टी के प्रमुख नेताओं में से थे. गदर पार्टी के प्रमुख सदस्यों के सामने इस प्रस्ताव को रखा गया, सबने हामी भर दी, इन नेताओं में सोहन सिंह भावना, करतार सिंह सराभा, भाई परमानंद, तारनाथ दास और विष्णु गणेश पिंगले भी थे.

बड़े पैमाने पर अमेरिका और कई देशों में गदर क्रांतिकारियों के बीच सावरकर की किताब का ये दूसरा एडीशन बांटा गया और उससे युवाओं को प्रेरणा मिली कि इस बार फिर से गदर क्रांति हो सकती है. ये अलग बात है कि एक गद्दार के चलते गदर योजना फेल हो गई. अमेरिका से भारत में छावनियों में विद्रोह करने आए करतार सिंह सराभा और विष्णु गणेश पिंगले को फांसी दे दी गई, रास बिहारी बोस को जापान भागना पड़ा. अब जानिए कौन है करतार सिंह सराभा, जो सावरकर से मिल कभी नहीं पाया, क्योंकि ये काला पानी की सजा काट रहे थे, लेकिन विष्णु गणेश पिंगले के जरिए उनकी कई कहानियां सुनी थीं. उनकी किताब करतार ने भी पढ़ी थी, अमेरिका में पढ़ने गया करतार देश के लिए फांसी चढ़ गया और इन्हीं करतार सिंह को भगत सिंह अपना गुरु मानते थे. भगत सिंह की जेब में करतार सिंह सराभा का फोटो हर वक्त रहता था. जिस दिन करतार सिंह को फांसी दी जा रही थी, उस दिन क्रांतिकारियों ने जो गीत गाया था, उसे भगत सिंह अकसर गुनगुनाया करते थे, उस गीत की कुछ पंक्तियां ये हैं-

''फख्र है भारत को ऐ करतार तू जाता है आज
जगत् औं पिंगले को भी साथ ले जाता है आज
मह तुम्हारे मिशन को पूरा करेंगे संगियो कसम
हर हिंदी तुम्हारे खून की खाता है आज.''

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इस गीत में उस पिंगले का भी जिक्र है, जिसने सावरकर के संगठन के साथ महाराष्ट्र में काफी काम किया था. करतार भी उनसे काफी प्रभावित थे. भगत सिंह सावरकर से जुड़े जिस तीसरे व्यक्ति से प्रेरणा लेते थे, वे थे मदनलाल धींगरा. मदनलाल धींगरा ने भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार कर्नल वाइली की लंदन में हत्या कर दी थी. 1909 में इस घटना के बाद उन्हें वहीं फांसी पर चढ़ा दिया गया था. वे शुरुआती क्रांतिकारी थे, जिनको फांसी पर चढ़ाया गया, पंजाब की धरती के लाल थे, सो करतार और धींगरा दोनों की भगत सिंह काफी इज्जत करते थे और इस मदनलाल धींगरा के लंदन में संरक्षक थे सावरकर, उनको इंडिया- हाउस, लंदन में आश्रय देने से लेकर पिस्तौल चलाने की ट्रेनिंग देने तक का काम सावरकर ने किया था. कर्नल वाइली की हत्या की गाज सावरकर पर भी गिरी, लंदन हाउस सीज कर दिया गया गांधीजी भी सावरकर से इसी को लेकर नाराज हो गए थे और नासिक कलैक्टर जैक्सन की हत्या के बाद सावरकर को गिरफ्तार करके काला पानी भेज दिया गया.

एक तरह से धींगरा, करतार, पिंगले भगत सिंह से एक पीढ़ी पहले के क्रांतिकारी थे, और भगत सिंह इनके सम्मान में अलग-अलग अखबारों में लेख लिखा करते थे. 'कीर्ति पत्रिका में उन्होंने 'आजादी की भेंट शहादतें' शीर्षक से एक लेखमाला भी लिखी थी. जिसमें ऐसे कई क्रांतिकारियों के जीवन के बारे में उन्होंने लिखा था. मदनलाल ढींगरा पर लिखे लेख में तो उन्होंने पश्चिम बंगाल के मशहूर कवि नजरुल इसलाम की प्रसिद्ध कविता 'विद्रोही' की ये लाइनें भी लिखीं-

'बोलो वीर-चिर उन्नत मम शीर
शिर नेहारी आमारि नत शिर ओई शिखर हिमाद्रीर."

यानी कहो वीर चिर उन्नत मेरा मस्तक, नत है वह हिमालय की चोटी, देखकर मेरा उन्नत मस्तक. इस लेख में भगत सिंह ने साफ लिखा है कि मदनलाल धींगरा को मातृभूमि पर जान देने की प्रेरणा सावरकर ने दी थी. कहने का मतलब ये है कि जो व्यक्ति सावरकर को मानने वालों को गुरु मानता हो, वो सावरकर का विरोधी नहीं हो सकता था. आज तक भगत सिंह का सावरकर के बारे में कोई विरोधी बयान नहीं मिला है.

उन दिनों भगत सिंह कई किताबों को भी छपवा रहे थे. उन्होंने आयरलैंड के क्रांतिकारी डान ब्रीड की बायोग्राफी का हिंदी में अनुवाद करके छपवाया, तो सींद्रनाथ सान्याल की किताब 'बंदी जीवन' को पंजाबी में ट्रांसलेट करके प्रकाशित किया. इसके दो उद्देश्य होते थे, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए.) के लिए पैसा इकट्ठा करना और युवाओं के बीच आजादी की प्रेरणा देने वाली किताबें पहुंचाना. इसी कड़ी में उन्होंने 1928 में रत्नागिरी में वीर सावरकर से मुलाकात की, तब वे जेल से बाहर आ चुके थे. भगत सिंह ने उनसे उनकी किताब के तीसरे एडीशन को छापने की इजाजत भी मांगी और उस एडीशन को थोड़ा महंगा भी बेचा. बाद में उसके पंजाबी और उर्दू संस्करण (गदर की गूंज) भी लाए गए. इस किताब में से भगत सिंह ने कई प्रेरणादायी लाइनें अपनी जेल नोट बुक में भी दर्ज की थीं. 

खुद सावरकर की बायोग्राफी और सावरकर ट्रस्ट की वेबसाइट पर जिक्र है कि कैसे भगत सिंह ने उनसे उनकी किताब को छापने की इजाजत मांगी थी. दिलचस्प बात है कि सावरकर की किताब का पांचवां एडीशन सुभाष चंद्र बोस और रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों में प्रेरणा भरने के लिए छपवाया था. बोस ने उसका तमिल अनुवाद करके भी तमिल संस्करण निकाला, सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के सिपाहियों में तमिल सैनिकों की संख्या भी काफी थी. वैसे भी आजाद हिंद फौज के सैनिक अब तक अंग्रेजों की चाकरी करते आ रहे थे, उनमें देशभक्ति का भाव लाना आसान नहीं था. सावरकर की किताब ने इसमें काफी मदद की थी.

वीर सावरकर की एक और किताब थी, जिससे कई उद्धरण भगत सिंह ने अपनी जेल नोटबुक में लिए हैं, उस किताब का नाम था 'हिंदू पदपादशाही'. अब जो उद्धरण इस किताब से भगत सिंह ने लिए हैं, उनको पढ़िए-

1. बलिदान तभी पूज्यनीय है, जब सफलता के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, लेकिन तार्किक रुप से इसकी अनिवार्यता सिद्ध होती हो. जो बलिदान अंत में सफलता की ओर अग्रसर नहीं करता, वो आत्महत्या है और मराठा युद्धनीति में इसकी कोई जगह नहीं थी.

2. अप्रतिरोधी शहादत जो करने में विफल रहती है, न्याय परायण या प्रतिरोधी शक्ति उसे कर डालती है तथा अत्याचारों को और अधिक हानि करने योग्य नहीं रहने देती.

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3. धर्मांतरित होने की बजाय मार डाले जाओ...(उस समय हिंदुओं के बीच यही पुकार प्रचलित थी) लेकिन रामदास उठ खड़े हुए और कहा, 'नहीं-नहीं, ऐसे नहीं, धर्मांतरित होने से बेहतर है कि मार डाले जाओ, काफी है, लेकिन इससे भी अच्छा ये प्रयास करना है कि न तो मारे ही जाओ और न ही धर्मातरित हो, बल्कि स्वंय हिंसक शक्तियों को मार डालो. यदि मृत्यु अनिवार्य हो... मारे जाओ, लेकिन जीत हासिल करने के लिए मारते हुए मरो, धर्म के लिए जीत हासिल करो. 

4. हमारे युग की सबसे निराशाजनक बात ये है कि हमें बिना इतिहास बनाए इसे लिखना पड़ रहा है, बिना साहसिक क्षमता और अवसरों के उन वीरतापूर्ण गीतों को गाना पड़ रहा है, जिन्हें हम जीवन में कभी वास्तविक नहीं बना सके. 

इतना ही नहीं भगत सिंह ने सावरकर की पुस्तक के दूसरे भाग की शुरुआत में दी गई थॉमस मूर की कविता 'गो वेयर ग्लोरी वेट्स दी' से कुछ छंद लिये हैं. सावरकर ने इस कविता में कुछ त्रुटियां कर दी थीं, वही त्रुटियां भगत सिंह ने भी अपनी नोट बुक में कर दी, क्योंकि उनका स्रोत सावरकर थे. कविता की शुरुआत में ही 'नो' की जगह 'गो' हो गया है. 

जिस वक्त भगत सिंह को फांसी दी गई, तो ब्रिटिश सरकार की चिंता थी कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? पहली प्रतिक्रिया आम जनता की तरफ से हो सकती है, तो उन्होंने गांधीजी से बात की, गांधीजी ने सलाह दी कि शांतिपूर्ण शोक सभाओं को न रोकें. बल प्रयोग न करें तो स्थिति नियंत्रण में रहेगी. दूसरी प्रतिक्रिया कांतिकारियों की तरफ से होनी थी, तो पंजाब पुलिस की एक टीम रत्नागिरी में रह रहे वीर सावरकर के पास भी गई कि वे तो कुछ नहीं करने जा रहे हैं. वीर सावरकर ने अपना वही राइटिंग पैड उस पुलिस टीम के मुखिया को दिया, जिसमें उन्होंने भगत सिंह की फांसी के बाद एक लेख और भगत सिंह की शान में एक कविता लिख रखी थी, लेकिन वो ऑफिसर उसे देख नहीं पाया था. 

सो जो लोग सावरकर और भगत सिंह की तुलना करते हैं, भगत सिंह के मुकाबले सावरकर को नीचा दिखाते हैं या दिखाने की कोशिश करते हैं, उनको उन दोनों के रिश्तों की ये सच्चाई भी पता होनी चाहिए कि कैसे जिन लोगों से प्रेरणा भगत सिंह लेते थे, उनकी काफी मदद वीर सावरकर ने की थी. भगत सिंह ने वीर सावरकर की 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर किताब के तीसरे एडीशन को छापकर क्रांतिकारियों में केवल इसलिए बांटा था कि वे इससे प्रेरणा ले सकें. कई लोगों ने एच.एस.आर.ए. के एक सदस्य यशपाल की किताब के आधार पर ये साबित करने की कोशिश की है कि भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए मदद मांगने जाने पर सावरकर ने मना कर दिया था और कहा था कि जिन्ना को मार दो, मैं पैसे दे दूंगा. उन सभी को ये भी याद रखना चाहिए कि इसी यशपाल को एच.एस.आर.ए. के मखिया चंद्रशेखर आजाद ने कभी गद्दार घोषित करके उनको मारने के फरमान सुना दिए थे. उसके बाद यशपाल तभी नजर आए, जब 6 महीने के अंदर आजाद की जान चली गई. तब न भगत सिंह रहे और न यशपाल को सजा देने के लिए आजाद. बाद में यशपाल को तमाम पद्म पुरस्कारों से नवाजा गया और वे बड़े साहित्यकार बन गए. ऐसे में उनकी कहानी पर लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ. सो क्रांतिकारियों या आजादी की जंग लड़ने वालों में, उसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर करनेवालों में राजनीतिक वजहों से विभेद न करें तो बेहतर है.

 

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