DNA: अमेरिकी थिंक टैंक की रेटिंग से भारत की छवि खराब करने की कोशिश, जानिए कहां हो सकता है इसका इस्‍तेमाल
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DNA: अमेरिकी थिंक टैंक की रेटिंग से भारत की छवि खराब करने की कोशिश, जानिए कहां हो सकता है इसका इस्‍तेमाल

Global Freedom Index: वर्ष 2020 के लिए इस  एनजीओ ने दुनिया के 210 देशों की रेटिंग्‍स जारी की हैं और इन रेटिंग्‍स में भारत को स्वतंत्र देश से आंशिक रूप से स्वतंत्र देश की श्रेणी में डाल दिया है. यानी भारत को ऐसा देश बताया गया है, जहां लोगों के लिए आज़ादी बहुत कम है.

DNA: अमेरिकी थिंक टैंक की रेटिंग से भारत की छवि खराब करने की कोशिश, जानिए कहां हो सकता है इसका इस्‍तेमाल

नई दिल्‍ली: आज हम सबसे पहले आपको ऐसे दो शब्दों के बारे में बताना चाहते हैं, जिनके नाम पर कई लोगों की बड़ी बड़ी दुकानें चल रही हैं और ये दो शब्द हैं आज़ादी और लोकतंत्र. इन शब्दों को आजकल काफी फैशनेबल माना जाता है. बड़े-बड़े देशों की सरकारें, संस्थाएं, एनजीओ और बुद्धीजीवियों की दुकानदारी इन्हीं दो शब्दों पर टिकी हुई है. यानी ये लोग आज़ादी और लोकतंत्र के नाम पर फंडिंग की दुकान चलाते हैं और लोगों को गुमराह करते हैं.

  1. वर्ष 2020 के लिए फ्रीडम हाउस एनजीओ ने दुनिया के 210 देशों की रेटिंग्‍स जारी की हैं.
  2. इन रेटिंग्‍स में भारत को स्वतंत्र देश से आंशिक रुप से स्वतंत्र देश की श्रेणी में डाल दिया है.
  3. यानी भारत को ऐसा देश बताया गया है, जहां लोगों के लिए आज़ादी बहुत कम है.

अमेरिका के एनजीओ की रिपोर्ट 

आज हम एक ऐसी ही बहुत पुरानी दुकान का विश्लेषण करेंगे, जिसके लिए आज़ादी और लोकतंत्र मात्र एक प्रोडक्‍ट की तरह है. इस प्रोडक्‍ट को हर साल रेटिंग का रूप देकर दुनिया में बेचा जाता है और बहुत से कमज़ोर और ग़रीब देश इन रेटिंग्‍स को मानने के लिए मजबूर भी हो जाते हैं. इस तरह इनकी दुकानदारी चलती रहती है. 

आज हम आपको जिस दुकान के बारे में बताना चाहते हैं, उसका नाम है-फ्रीडम हाउस और ये अमेरिका के सबसे पुराने एनजीओ में से एक है. लगभग 81 वर्ष पुराना है और यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि ये एनजीओ हर साल दुनिया के दूसरे देशों को ये बताता है कि वहां के लोगों के पास कितनी आज़ादी है और वहां की व्यवस्था में लोकतंत्र की मात्रा कम है या ज़्यादा.  इस बार की रेटिंग्‍स बेचने के लिए भी इस एनजीओ ने अपनी दुकान का शटर ऊपर कर दिया है.

वर्ष 2020 के लिए इस एनजीओ ने दुनिया के 210 देशों की रेटिंग्‍स जारी की हैं और इन रेटिंग्‍स में भारत को स्वतंत्र देश से आंशिक रूप से स्वतंत्र देश की श्रेणी में डाल दिया है. यानी भारत को ऐसा देश बताया गया है, जहां लोगों के लिए आज़ादी बहुत कम है.

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लोकतंत्र के नाम पर बेची जाने वाली रेटिंग्‍स का असली रैकेट 

आप जब इस एनजीओ की तरफ से जारी की गई रिपोर्ट को देखेंगे तो आपको ऐसा ही लगेगा कि भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में लोकतंत्र खत्म हो चुका है और नागरिकों की आज़ादी सीमित हो गई है और इस संकट से दुनिया को बचाने के लिए मुट्ठीभर देश ही आपकी मदद कर सकते हैं. ये देश हैं- अमेरिका, कनाडा और यूरोप के देश. यानी इस रिपोर्ट को पढ़कर आप आसानी से भ्रमित हो सकते हैं और मुमकिन है कि आपको अपने देश में कमियां भी नज़र आने लगें.

लोकतंत्र के नाम पर बेची जाने वाली इन रेटिंग्‍स का असली रैकेट समझने के लिए सबसे पहले आपको इस रिपोर्ट की कुछ ऐसी बातें बताते हैं, जिन पर शायद आपको यकीन ही न हो या ये बातें आपको हास्यास्पद भी लग सकती हैं

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-फ्रीडम हाउस नाम का ये एनजीओ 25 बातों के आधार पर Global Freedom Index बनाता है,  जिनमें राजनीतिक स्वतंत्रता, नागरिकों के मौलिक अधिकार, स्वतंत्र मीडिया, विरोध प्रदर्शन का अधिकार, विदेशी एनजीओ को काम करने की आज़ादी और स्वतंत्र चुनाव का मुद्दा शामिल है.  अहम बात ये है कि इस बार फ्रीडम हाउस ने इन सभी मापदंडों पर भारत को कम रेटिंग दी है.

-इस रिपोर्ट के मुताबिक, 210 देशों के Global Freedom Index में भारत पांच स्थान नीचे आया है और अब उसकी रैंक 83 से 88 हो गई है.

-भारत को राजनीतिक अधिकारों की स्वतंत्रता के लिए इस एनजीओ ने 40 में से 34 अंक दिए हैं और नागरिकों के स्वतंत्र अधिकारों के मामले में 60 मे से 33 अंक दिए हैं.

ये ठीक उसी तरह है जैसे किसी कक्षा में एक शिक्षक किसी छात्र को सिर्फ इसलिए फेल कर दे क्योंकि, वो उसे पसंद नहीं करता और इस NGO ने कुछ ऐसा ही किया है.

अमेरिका से 80 प्रतिशत फंडिंग

भारत को 100 में से 67 अंक देने वाले इस एनजीओ ने अमेरिका को 100 में से 83 अंक दिए हैं और उसे ऐसे देशों की श्रेणी में रखा है, जहां राजनीतिक स्वतंत्रता भी है और नागरिकों को भी पूरा आज़ादी है. इस NGO के ऐसा करने के पीछे एक बहुत बड़ी वजह है और वो ये कि इसे अमेरिका से 80 प्रतिशत फंडिंग मिलती है. यानी अगर इस एनजीओ को 100 रुपये मिलते हैं तो उसमें से 80 रुपये अमेरिका की सरकार से आते हैं.  यानी आप समझ सकते हैं कि इस रेटिंग में अमेरिका अच्छे अंकों से पास कैसे हो गया.

असल में अमेरिका ने ही इस परीक्षा का आयोजन कराया और खुद को अच्छे नंबर से पास भी कर दिया क्योंकि, अगर रेटिंग्‍स निष्पक्ष होती, तो लोकतंत्र और नागरिकों की आज़ादी के मामले में अमेरिका को इतने अच्छे नम्बर नहीं मिलते.

इसका सबसे ताजा उदाहरण है, इसी साल 6 जनवरी को अमेरिका में कैपिटल हिल पर हुई हिंसा, जिसमें 6 लोगों की मौत हो गई थी और इनमें से एक नागरिक की मौत पुलिस की गोली लगने से हुई थी. यही नहीं, अमेरिका में अश्वेत लोगों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा में पिछले वर्ष 25 लोगों मारे गए थे. लेकिन इसके बावजूद इस NGO को अमेरिका का लोकतंत्र भारत के लोकतंत्र से ज़्यादा सुरक्षित और व्यावाहरिक लगता है.

भारत की रेटिंग घटाने की वजहें 

लोकतंत्र और आज़ादी के नाम पर दुकान चलाने वाले इस एनजीओ ने जिन प्रमुख वजहों से भारत की रेटिंग घटाई है, अब आपको उनके बारे में बताते हैं.

फ्रीडम हाउस का कहना है कि कोरोना वायरस की महामारी के दौरान भारत ने ऐसे क़दम उठाए, जिसकी वजह से लोगों को तकलीफ हुई और उनके अधिकारों का उल्लंघन हुआ. यही नहीं इस रिपोर्ट में ये दावा भी किया गया है कि लॉकडाउन के दौरान लोगों के कहीं भी जाने के अधिकार का भी हनन हुआ और बहुत से मज़दूरों को पैदल अपने घर जाना पड़ा. ये पक्ष इस एनजीओ का है. लेकिन सच क्या है अब आप ये समझिए-

भारत ने कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई लड़ी और 135 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में इस बीमारी की वजह से अब तक लगभग 1 लाख 57 हज़ार लोगों की मौत हुई है, जबकि दुनिया के सबसे अमीर देश अमेरिका, जिसकी कुल आबादी मात्र 33 करोड़ है, वहां कोरोना की वजह से 5 लाख 18 हज़ार लोगों की मौत हुई है. इस हिसाब से देखें तो भारत को कोरोना वायरस पर रोकथाम में न सिर्फ़ कामयाबी मिली, बल्कि वो अपने लाखों लोगों की जान बचाने में भी सफल हुआ. लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं है. 

यही नहीं, भारत में लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद पूरे 5 महीने तक 80 करोड़ लोगों को हर महीने मुफ़्त अनाज भी बांटा गया. यानी इस हिसाब से भारत ने अमेरिका जैसे लगभग ढाई देशों को 5 महीने तक मुफ़्त में अनाट बांटा और इससे ये पता चलता है कि इस रेटिंग में भारत को दिए गए कम नंबर प्रायोजित हैं और कुछ नहीं.

भारत सरकार ने फंडिंग क़ानून में किया था बदलाव

अब आपको एक और कारण बताते हैं, जिसमें बताया गया है कि भारत सरकार ने एनजीओ को विदेशों से मिलने वाली फंडिंग के क़ानून में बदलाव किया और एमनेस्‍टी इंटरनेशनल नाम की संस्था पर भी कार्रवाई की, जिसकी वजह से भारत को कम रेटिंग दी गई. ये वही संस्था है, जिस पर भारत में देशद्रोह और विदेशों से मिलने वाली फंडिंग में गड़बड़ी के आरोप हैं. अब आप खुद सोचिए कि क्या ये रेटिंग लोकतंत्र और आज़ादी के आधार पर तय की गई है.

इस रिपोर्ट में भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े किए गए हैं और हमें लगता है कि ये भारत को कमज़ोर करने की कोशिश का हिस्सा है. 

इस एनजीओ ने ये दावा भी किया है कि भारत में इंटरनेट की आज़ादी सीमित हुई है, जबकि देश का सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि इंटरनेट हमारा मौलिक अधिकार नहीं है. ये हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार के साथ मिलता है और इसकी भी कुछ सीमाएं हैं. यानी ये अनलिमिटेड नहीं है.

कश्‍मीर को भारत से अलग करके क्‍यों दिखाया गया?

इस रिपोर्ट में कश्मीर को भारत के नक्शे से भी अलग करके दिखाया गया है और कश्मीर को भारत से अलग रेटिंग दी गई है और इसे Not Free की श्रेणी में रखा गया है. यानी यहां न तो राजनीतिक स्वतंत्रता है और न ही नागरिकों के अधिकार सुरक्षित हैं. लेकिन हम आपसे कहना चाहते हैं कि इसके पीछे की कहानी कुछ और है.

असल में जब इस एनजीओ ने 2018 का Global Freedom Index जारी किया था तो कश्मीर को आंशिक रूप से स्वतंत्र माना था.  लेकिन उसके एक साल बाद ही इस एनजीओ ने कश्मीर को Not Free की श्रेणी में डाल दिया और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि, 2019 में भारत सरकार ने संवैधानिक प्रक्रिया के तहत जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया था. यानी इस रेटिंग से पता चलता है कि जम्मू कश्मीर के मसले पर ये एनजीओ पहले से ही भारत के खिलाफ है और कश्मीर की रेटिंग्‍स भारत से अलग करके दिखाना और उसे भारत के नक्शे से काट देना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

इस तरह किया जाता है रेटिंग्‍स का इस्‍तेमाल

आज ये समझने का भी दिन है कि इस तरह की रेटिंग्‍स की ज़रूरत क्यों पड़ती है और इनका किस तरह इस्तेमाल किया जाता है. इसे आप कुछ पॉइंट्स में समझिए.

पहली बात फ्रीडम हाउस की रेटिंग्‍स का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल अमेरिका के मीडिया संस्थान और सांसद करते हैं और ऐसा करके उन देशों की छवि ख़राब की जाती है, जिनकी रेटिंग्‍स अच्छी नहीं होती.

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दूसरी बात अमेरिका की सरकार इन रेटिंग्‍स के तहत ये तय करती है कि दुनिया के किन देशों को कितनी आर्थिक सहायता दी जाएगी. जो देश इस सूची में सबसे ऊपर होते हैं, उन्हें बहुत ज़्यादा पैसा मिलता है और जो इसमें नीचे होते हैं, उन्हें या तो कम फंडिंग मिलती है या आर्थिक सहायता दी ही नहीं जाती.  एक आंकड़े के मुताबिक, अमेरिका की सरकार ने 2004 से 2016 के बीच 10 बिलियन यूएस डॉलर यानी 70 हज़ार करोड़ रुपये दुनिया के कई देशों को दे चुकी है और इनमें सबसे ज़्यादा फंडिंग उन देशों को मिली, जिनकी रेटिंग्‍स अच्छी थी. 

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तीसरी बात वर्ल्‍ड बैंक इस रेटिंग के आधार पर Worldwide Governance Indicators नाम की एक सूची तैयार करता है और इस सूची का आधार फ्रीडम हाउस की यही रेटिंग्‍स होती हैं. यानी वर्ल्‍ड बैंक से किन देशों को कितनी मदद मिलेगी, ये भी काफी हद तक इस रिपोर्ट पर निर्भर करता है.

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और चौथी बात ये कि इस तरह की रेटिंग का इस्तेमाल अमेरिका अपनी विदेश नीति को साधने के लिए भी करता है. यानी जिस देश से उसका टकराव होता है, उन देशों की रेटिंग कम हो जाती है और जो देश उसका समर्थन करते हैं, उन्हें लिस्ट में ऊपर जगह दी जाती है. इसका ज़िक्र ब्रिटेन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ने भी अपनी एक रिसर्च में किया है.

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कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी  ने वर्ष 1972 से लेकर 2010 तक जारी की गई फ्रीडम हाउस की रेटिंग का अध्ययन किया था और इस अध्ययन में ये पाया गया कि अमेरिका की जिन देशों के साथ वैचारिक दोस्ती है, उन्हें अच्छी रेटिंग्‍स दी जाती है और जिनका लोकतंत्र अलग है या संवैधानिक मूल्य अलग हैं. उन्हें कम रेटिंग मिलती है.

इसी में तब ये भी पता चला था कि अमेरिका जिन देशों के साथ अपनी विदेश नीति को लेकर संतुलन नहीं बैठा पाता, उन देशों को ऐसी रेटिंग्‍स में कभी ऊपर स्थान नहीं मिल पाता.

फ्रीडम हाउस की शुरुआत 

फ्रीडम हाउस नाम के इस एनजीओ की स्थापना दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वर्ष 1941 में अमेरिका के न्‍यूयॉर्क में हुई थी. उस समय इस एनजीओ का मुख्य उद्देश्य दुनिया को ये बताना था कि अमेरिका लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए विश्व युद्ध में शामिल हुआ है. हालांकि युद्ध खत्म होने के बाद ये एनजीओ बंद नहीं हुआ और शीत युद्ध के समय इसने दूसरे देशों में अमेरिका की छवि सुधारने का काम किया.  ये वही समय था जब अमेरिका को लोकतंत्र का चैम्पियन घोषित कर दिया गया.

यहां समझने वाली बात ये कि इस एनजीओ को बनाने वाली महिला Eleanor Roosevelt, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति Franklin D. Roosevelt की पत्नी थी, जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका का नेतृत्व कर रहे थे.  इस NGO को इसलिए बनाया गया था ताकि ये अमेरिका के हितों के लिए काम कर सके.

हालांकि स्थापना के 31 वर्षों के बाद वर्ष 1972 में इसने दुनियाभर के देशों को लोकतंत्र की रेटिंग्‍स देनी शुरू कर दी और जब 1980 के दशक में अमेरिका की सरकार ने डेमोक्रेसी असीस्‍टेंस नाम से एक फंडिंग कार्यक्रम शुरू किया, तो फ्रीडम हाउस इस कार्यक्रम के तहत फंडिंग हासिल करने वाले एनजीओ में से एक बन गया. इसके बाद स्थितियां तेज़ी से बदलीं और जिस संस्था को वर्ष 1984 तक अमेरिका की सरकार से कोई पैसा नहीं मिलता था, उसे 2020 आते आते सरकार से 80 प्रतिशत फंडिंग मिलने लगी. यानी आज इसे सबसे ज़्यादा पैसा अमेरिका की सरकार से ही मिलता है.

-यही नहीं 2006 की एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, फ्रीडम हाउस को ईरान में सीक्रेट प्रोजेक्‍ट के लिए भी अमेरिका की सरकार से फंडिंग मिली थी.

-फ्रीडम हाउस में काम कर चुके कई लोगों को अमेरिका की सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर भी नौकरी मिल चुकी है.

-जैसे इसके पूर्व अध्यक्ष David Karmer को अमेरिका का Assistant Secretary of State बनाया गया था. 

-Max Kampleman, जो एक समय फ्रीडम हाउस के बोर्ड मेम्बर थे, उन्हें अमेरिकी राजदूत बनाया गया था और फ्रीडम हाउस की पूर्व एक्‍सक्‍यूटिव डायरेक्‍टर जेनिफर विंडसर  को बाद में US AID में महत्वपूर्ण पद पर नौकरी मिल गई थी. 

हमारे देश में इस रिपोर्ट की चर्चा होती रही और कई नेताओं को इस रिपोर्ट ने राहत भी दी. ये वही नेता हैं, जो सेकुलर दिखने की होड़ में अपने देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को भी भूल जाते हैं. आज इस रिपोर्ट पर ख़ुश होने वाले लोगों और नेताओं के लिए हम एक और रेटिंग एजेंसी की स्‍टडी निकाल कर लाए हैं.

Pew Research Center की रिपोर्ट 

ये स्‍टडी अमेरिका के Think Tank Pew Research Center की है, जिसके मुताबिक 2019 में भारत उन देशों की सूची में सबसे ऊपर था, जहां लोग अपने देश की सरकार और लोकतंत्र से सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं. 70 प्रतिशत लोगों ने तब भारत के लोकतंत्र को सही माना था, लेकिन क्या आपको पता है कि लोकतंत्र पर लेक्‍चर देने वाले देशों में ये आंकड़ा कितना है.

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अमेरिका में सिर्फ़ 39 प्रतिशत लोगों ही वहां से लोकतंत्र से संतुष्ट हैं, फ्रांस में ये आंकड़ा 41 प्रतिशत है, स्‍पेन में 32 प्रतिशत, ब्रिटेन में 31 प्रतिशत, यूक्रेन 34 प्रतिशत, रूस 30 प्रतिशत, जापान 43 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका में मात्र 38 प्रतिशत लोग ही वहां के लोकतंत्र से संतुष्ट हैं.

 रेटिंग एजेंसियों की स्‍टडी में विरोधाभास

अब आप खुद सोचिए अमेरिका की दो बड़ी रेटिंग एजेंसियों की स्‍टडी में कितना विरोधाभास है. एक स्‍टडी कहती है कि भारत में लोकतंत्र की मात्रा बहुत कम है और एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में लोग लोकतंत्र से सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं.

सरल शब्दों में कहें,  तो हमारी आज की इस ख़बर का सार ये है कि आज आजादी और लोकतंत्र जैसे शब्दों का भी व्यापार होने लगा है और बड़ी बड़ी टेक्‍नोलॉजी कम्पनियां, थिंक टैंक और एनजीओ आजादी और लोकतंत्र को बेच बेचकर मुनाफा कमा रहे हैं क्योंकि, आज कल सबसे ज्यादा मुनाफा आजादी और लोकतंत्र के सर्टिफिकेट बांटने में ही है और ये एक तरह का बिजनेस मॉडल बन गया है.

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