DNA ANALYSIS: कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया गया, तो किसानों के पास ​क्या बचता है रास्ता?
Advertisement

DNA ANALYSIS: कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया गया, तो किसानों के पास ​क्या बचता है रास्ता?

सरकार इस बात का इशारा कई बार कर चुकी है कि कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया जाएगा. किसान इसके लिए राज़ी नहीं हैं. सवाल यही है कि अब ये आंदोलन यहां से किस दिशा में जाएगा. इस आंदोलन में कुछ ऐसे किसान नेता भी हैं जो संशोधनों के पक्ष में हैं लेकिन वो खुलकर अपनी बात कह नहीं सकते.

DNA ANALYSIS: कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया गया, तो किसानों के पास ​क्या बचता है रास्ता?

नई दिल्‍ली:  हमारे देश में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए सोमवार का उपवास रखने की परंपरा है. आपमें से भी बहुत सारे लोगों ने सोमवार का उपवास रखा होगा.  लेकिन हमारे देश में उपवासों का प्रयोग राजनीतिक दबाव बनाने के लिए भी किया जाता है. कल 14 दिसंबर को  किसानों और कई नेताओं ने सोमवार को ऐसा ही उपवास रखकर सरकार पर अपना राजनैतिक दबाव और बढ़ा दिया.  आज हम आपको वर्ष 2020 में राजनैतिक उपवासों की प्रासंगिकता बताएंगे. 

किसान आंदोलन के 19वें दिन भी सरकार और किसान किसी समझौते पर नहीं पहुंच पाए. 

इस बीच सरकार ने फिर से साफ किया है कि तीनों नए कानून किसानों के हित में हैं और सरकार आगे भी किसानों के साथ बातचीत के लिए तैयार है. 

हरियाणा, महाराष्ट्र, बिहार और कुछ अन्य राज्यों के किसान संगठनों ने आज देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मुलाकात की और नए कानूनों पर सरकार को अपना समर्थन दिया. 

कल प्रदर्शन वाली जगहों पर किसानों ने सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक उपवास रखा, जिसे आम आदमी पार्टी ने भी समर्थन दिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी के कई नेताओं ने भी भूख हड़ताल की. आम आदमी पार्टी उपवास में एक्सपर्ट मानी जाती है और अन्ना हज़ारे के आंदोलन के समय से उपवास इस पार्टी का सबसे बड़ा राजनैतिक हथियार रहा है. 

इसके अलावा कल सुबह किसानों ने दिल्ली और उत्तर प्रदेश को जोड़ने वाले हाइवे पर गाज़ीपुर बॉर्डर को कुछ समय के लिए बंद कर दिया.  हालांकि बाद में इस रास्ते को खोल दिया गया. 

जिद लोगों की जिंदगियों पर भारी तो नहीं पड़ने लगी?
19 दिन से चल रहे इस आंदोलन के दौरान ठंड, बीमारियों और अलग अलग कारणों से करीब 15 किसानों की मौत हो चुकी है.

ज़ाहिर है, अब आंदोलन कर रहे किसानों को ये भी सोचना चाहिए कि कहीं उनकी जिद लोगों की जिंदगियों पर भारी तो नहीं पड़ने लगी है?

उपवास समाप्त होने के बाद किसानों ने शाम को दिल्ली के सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर बैठक की. आज सुबह सिंघु बॉर्डर पर ये सभी किसान संगठन एक और महत्वपूर्ण बैठक करेंगे, जिसमें आंदोलन की आगे की रूपरेखा तैयार की जाएगी. 

किसान आंदोलन के मुद्दे पर आज गृह मंत्री अमित शाह और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बीच भी एक महत्वपूर्ण बैठक हुई. 

​कल किसानों के साथ-साथ कई राजनेताओं ने भी इस आंदोलन के समर्थन में उपवास रखा, कुछ लोगों ने इसे भूख हड़ताल कहा तो कुछ ने इसे अनशन कहकर बुलाया.  लेकिन ये उपवास सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक रखा गया. हमारे देश में हर सोमवार को बहुत सारे लोग भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उपवास रखते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि उपवास का असली अर्थ सिर्फ कुछ घंटों के लिए भूखा रहना नहीं होता. उपवास संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है.

उप का मतलब होता है-निकट और वास का मतलब होता है-निवास. उपवास का मतलब हुआ-अपनी आत्मा के निकट निवास करना. यानी उपवास के दौरान आप अपने मन की शक्ति के करीब होते हैं. लेकिन ये तभी सफल होता है, जबकि आपके मन की शक्ति सकारात्मक दिशा में लगती है. अगर मन की शक्ति नकारात्मक होने लगे तो उपवास, उपहास का विषय भी बन सकता है.

आंदोलन में राजनीति की मिलावट
महात्मा गांधी ने तो अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में उपवास को प्रमुख अस्त्र बनाया था. आज़ादी के बाद भी, कई बार अलग-अलग आंदोलनों में अपनी मांगों को मनवाने के लिए उपवास का इस्तेमाल किया गया और आज भी किया जा रहा है. लेकिन आत्मा को मजबूती देने वाले उपवास में जब शरीर और मन की जरूरतों का प्रवेश हो जाए तो वो उपवास नहीं रहता और अगर इसमें राजनीति की मिलावट हो जाए तो फिर ये सिर्फ अखबारों और न्यूज़ चैनलों के कैमरों के लिए किया गया एक ड्रामा बन जाता है. जिस तरह से अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों ने किसानों के समर्थन में 9 घंटे का उपवास रखा वो अपने आप में एक राजनीतिक स्टंट से ज्यादा कुछ नहीं है.

अंग्रेज़ों के ज़माने में संसद भवन में बम फेंक कर अपनी मांग उठाने वाले भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त 116 दिनों तक भूख हड़ताल पर रहे थे. वो जेल में कैदियों को अच्छी सुविधाएं देने और पढ़ने के लिए अखबार की मांग कर रहे थे. लेकिन भगत सिंह ने ये हड़ताल उस समय की मीडिया में पब्लिसिटी पाने के लिए नहीं की थी, बल्कि वो चुपचाप अंग्रेज़ों और जेल प्रशासन के खिलाफ अनशन करते रहे.

जबकि आज अनशन करने वाले लोग पहले अपने चारों तरफ़ न्यूज़ चैनलों के कैमरों की व्यवस्था सुनिश्चित करते हैं और फिर भूख हड़ताल पर जाते हैं. आपको याद होगा कि वर्ष 2011 में दिल्ली में अन्ना हज़ारे का आंदोलन हुआ था. तब भी उपवास को ही सबसे बड़ा हथियार बनाया गया था, तब आम आदमी पार्टी का अस्तित्व नहीं था. लेकिन आज इस पार्टी के जिन चेहरों ने उपवास रखा. उस समय ये सभी चेहरे अन्ना हज़ारे के मंच पर मौजूद रहते थे. 

लेकिन ये बात शायद आपमें से बहुत कम लोग जानते होंगे कि महात्मा गांधी एक बार डॉक्टर भीम राव अंबेडकर के विरोध में भी भूख हड़ताल पर चले गए थे. 17 अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने कम्युनल अवॉर्ड की शुरुआत की थी. इसका मकसद था दलितों को अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन का स्वतंत्र अधिकार देना. इसमें हर दलित को दो वोट डालने का अधिकार देने का प्रवधान भी था, ऐसा इसलिए किया गया था ताकि दलितों को सरकार में उचित प्रतिनिधित्व मिल पाए. लेकिन गांधी जी इसके पक्ष में नहीं थे. गांधी जी उस समय पुणे की यरवदा जेल में बंद थे और उन्होंने वहीं इसके खिलाफ भूख हड़ताल शुरू कर दी.  इसके बाद देश भर में डॉक्टर अंबेडकर के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे. महात्मा गांधी की जिद के सामने झुकते हुए, डॉक्टर अंबेडकर 24 सितंबर 1932 को यरवदा जेल पहुंचे और वहां उन्होंने बेमन से रोते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके बाद दलितों को मिला स्वतंत्र निर्वाचन का अधिकार समाप्त हो गया. इसे पूना पैक्ट कहा जाता है.

कुछ लोग कहते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर नहीं चाहते थे कि अनशन की वजह से गांधी जी को कुछ हो जाए और लोग उन्हें दोषी मानने लगें. इसीलिए उन्होंने गांधी जी के साथ समझौता कर लिया.

इस संदर्भ में आध्यात्मिक गुरु ओशो कहते हैं कि कई बार अनशन भी एक प्रकार की हिंसा में बदल जाता है. इसमें व्यक्ति दूसरे के खिलाफ तो हिंसा नहीं करता. लेकिन भूखा रहकर खुद को चोट पहुंचाता है और जिसके खिलाफ ये अनशन किया जाता है वो आखिरकार ग्लानि की भावना से भर जाता है और आज के ज़माने में तो ये बात और भी सटीक बैठती है. क्योंकि कोई सरकार ये नहीं चाहेगी कि उसकी वजह से किसी का जीवन संकट में आ जाए.

इसलिए अनशन को आधुनिक रूप में समझने की जरूरत है. आजकल के अनशन Intermittent Fasting में बदलकर रह गए हैं. आम तौर पर लोग खुद को स्वस्थ रखने के लिए दिन में 12 से 16 घंटे तक उपवास रखते हैं, इससे शरीर को भोजन पचाने में सहायता मिलती है. आप आजकल के राजनीतिक उपवास को इसी श्रेणी में रख सकते हैं. जहां उपवास का असली मकसद आत्मा को स्वच्छ करना नहीं, बल्कि राजनीति बढ़त लेना होता है.

DNA ANALYSIS: किसान आंदोलन में हिंसा की साजिश, Farmers Protest में कैसे हुई देशविरोधी ताकतों की एंट्री?
आज तो किसान उपवास पर थे. लेकिन अच्छी बात ये है कि इस आंदोलन में किसानों के खाने पीने और उनके स्वास्थ्य की जरूरतों का पूरा ख्याल रखा जा रहा है. युवा किसानों के लिए पिज्जा की व्यवस्था है, तो वृद्ध किसानों के लिए massage chair का प्रबंध किया गया है ताकि उनके स्वास्थ्य को ठीक रखा जा सके. इसी तरह यहां कपड़े धोने के लिए वॉशिंग मशीन भी है और जिम की व्यवस्था भी की गई है. इतना ही नहीं, किसान लंबे समय तक आंदोलन कर सकें, इसके लिए खान पान का भी पूरा ख्याल रखा जा रहा है. किसानों के लिए ड्राई फ्रूट्स से लेकर शहद और ब्रेड तक की व्यवस्था की गई है.

आंदोलन किस दिशा में जाएगा?
यानी इस आंदोलन के दौरान गरीब किसानों का ध्यान रखते हुए एक पूरा इको सिस्टम विकसित कर लिया गया है. लेकिन सवाल यही है कि अब ये आंदोलन यहां से किस दिशा में जाएगा. इसके तीन विकल्प हो सकते हैं, पहला ये कि किसान नए कृषि कानूनों में संशोधऩ की बात स्वीकार कर लें. दूसरा ये कि सरकार इन कानूनों को पूरी तरह वापस ले ले और तीसरा ये कि ये आंदोलन अभी ऐसे ही लंबे समय तक चलता रहे.

लेकिन समस्या ये है कि सरकार इस बात का इशारा कई बार कर चुकी है कि इन कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया जाएगा. किसान इसके लिए राज़ी नहीं हैं. ऐसे में सिर्फ बीच का ही रास्ता बचता है. जिसमें हो ये सकता है कि सहमति की दिशा में कुछ कदम किसान बढ़ाएं और कुछ कदम सरकार बढ़ाए और बीच में कहीं पहुंचकर इस आंदोलन को समाप्त किया जाए. इसके लिए किसानों के बीच कुछ ऐसे नेताओं की तलाश की जानी चाहिए जिनका रुख लचीला है और जो समस्या की जगह समाधान को प्राथमिकता दे सकते हैं. सरकार को भी किसानों के बीच जाकर अपनी बातों को सही ढंग से रखना चाहिए और अपने नेताओं को मैदान में उतारकर किसानों तक अपनी बात बेहतर तरीके से पहुंचानी चाहिए.

fallback

जिस तरह उपवास को हमारे देश में सही अर्थों में नहीं समझा जाता वैसे ही सत्याग्रह को भी ठीक से समझने की कोशिश नहीं होती.

सत्याग्रह दो शब्दों से मिलकर बना है , सत्य और आग्रह. इसका अर्थ होता है, सत्य के लिए आग्रह यानी अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए सत्य को पकड़कर रखना.

इसका इस्तेमाल गांधी जी ने अंग्रेज़ों के खिलाफ एक हथियार के तौर पर किया था. तब देश की जरूरतें दूसरी थी और अंग्रेज़ों को झुकाने का इससे अच्छा कोई तरीका नहीं था. लेकिन देश की आजादी के बाद सत्याग्रह का वही फॉर्मूला आज़माया जाता रहा, जबकि आजादी के बाद सत्याग्रह करने वालों के सामने अंग्रेज़ नहीं, बल्कि अपने ही देश के लोग थे.

73 वर्षों में भारत में 50 से भी ज्यादा ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन और आंदोलन हो चुके हैं. इनमें हम छोटे मोटे प्रदर्शनों को नहीं जोड़ रहे हैं. अगर इनको भी इसमें जोड़ लिया जाए तो भारत में हर साल औसतन 2 से तीन प्रदर्शन होते हैं. अब आप सोचिए, जो देश आंदोलनों में अटका रहेगा वो आगे कैसे बढ़ पाएगा.

1857 में भारत के सैनिकों ने कंपनी राज के खिलाफ विद्रोह किया था. वो भारत के स्वतंत्रता की पहली लड़ाई थी, जिसमें सैनिकों ने हिंसा का भी सहारा लिया था. लेकिन इसके बाद गांधी जी ने सत्याग्रह को आधार बनाकर अहिंसक आंदोलन किए.

आंदोलन के प्रति भारत के लोगों का आकर्षण
इसने आंदोलनों की कला को घर घर तक पहुंचा दिया और आंदोलन ग्लैमराइज्ड होने लगे और आज भी आंदोलन के प्रति भारत के लोगों का आकर्षण कम नहीं हुआ है और जब ये आकर्षण विकृत हो जाता है तो ये भारत बंद की शक्ल ले लेता है और इसमें कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है. हाल ही में हुए भारत बंद को 20 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियों का समर्थन हासिल था. 2012 में BJP के साथ मिलकर 12 पार्टियों ने इसी तरह से बंद का ऐलान करके, उस समय की UPA सरकार का विरोध किया था.

लेकिन ये वो सत्याग्रह नहीं है, जिनके जरिए गांधी जी ने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया था, बल्कि ये सिर्फ एक पुरानी परंपरा का बार बार दोहन करना है. लेकिन अब सोशल मीडिया के ज़माने में आंदोलकारियों को सत्याग्रह के नए तरीके खोजने होंगे. सत्याग्रह को ऐसा बनाना होगा कि इससे अपने ही देश के लोगों को परेशानी न हो और आंदोलन करने वालों का संदेश भी सरकार तक पहुंच जाए. ठीक वैसे ही जैसे हाल ही के वर्षों में सोशल मीडिया के सहारे Me Too आंदोलन को सफल बनाया गया था. इसके लिए न तो सड़कें जाम की गईं और न किसी राजनैतिक पार्टी का सहारा लिया गया. इसका असर भी बहुत व्यापक हुआ और भारत समेत दुनिया के कई राजनेताओं को अपनी कुर्सी गंवानी बड़ी. बड़े बड़े फिल्म स्टार्स को काम मिलना बंद हो गया और इन सबका सामाजिक बहिष्कार किया जाने लगा. इसलिए आंदोलन करने वाले चाहें तो इससे सीख लेकर अपने सत्याग्रह को ज्यादा आधुनिक बना सकते हैं.

किसानों के आंदोलन में राजनीति की कमी
हमारे देश में वैसे तो हर चीज़ की अति हो जाती है और यहां तक कि लोकतंत्र भी कई बार इस अति से बच नहीं पाता. लेकिन किसानों के आंदोलन को अगर आप ध्यान से देखेंगे तो आपको इसमें एक चीज़ की अति नहीं, बल्कि कमी दिखाई देगी और वो है राजनीति की जरूरत से ज्यादा कमी. ये आंदोलन अपने आप में शक्तिशाली है. लेकिन इस आंदोलन में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है, किसानों के बीच ऐसे नेताओं का अभाव है जो सरकार से बातचीत के साथ साथ राजनीतिक तौर तरीके भी अपना पाएं. जो किसान नेता ऐसा करने में सक्षम भी हैं, उन्हें इस बात का डर है कि कहीं सरकार के साथ मिलकर बीच का रास्ता निकालने पर उन्हें बिका हुआ न कह दिया जाए या सरकार का एजेंट न मान लिया जाए. राजनीति का मतलब ही होता है लचीलापन.

ऐसा लचीलापन जिसके इस्तेमाल से सरकार को भी कुछ कदम आगे बढ़ने के लिए मजबूर किया जा सकता है और किसान भी सरकार की कुछ बातों से सहमत हो सकते हैं. लेकिन ज़रूरत से कम राजनीति की वजह से Dead Lock की स्थिति पैदा हो गई है.

कुछ ऐसे किसान नेता भी, जो संशोधनों के पक्ष में हैं
इस आंदोलन में कुछ ऐसे किसान नेता भी हैं जो संशोधनों के पक्ष में हैं लेकिन वो खुलकर अपनी बात कह नहीं सकते. युद्ध में सही समय पर युद्ध विराम की घोषणा करके खोई हुई ज़मीन वापस भी पाई जा सकती है और विरोधी को अपने लचीलेपन का सबूत भी दिया जा सकता है. इसीलिए किसानों के बीच से किसी नेता को आगे आना होगा और ये तय करना होगा कि सरकार को किस हद तक झुकाकर विजय घोषित कर दी जाए. अगर ऐसा नहीं होगा तो ये आंदोलन समय के साथ साथ अपनी धार और दिशा दोनों खो देगा.

आपको याद होगा, 15 दिसंबर 2019 को दिल्ली के शाहीन बाग में नए नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हुए थे. यानी कल इस प्रदर्शन को एक वर्ष पूरा हो जाएगा.  ये विरोध प्रदर्शन 101 दिनों तक चला था. जब देश में इस साल 24 मार्च को लॉकडाउन लगाया गया, तब प्रदर्शनकारियों को यहां से हटना पड़ा था. लेकिन आज हमें पता चला है कि कुछ लोग अब शाहीन बाग पार्ट 2 की तैयारी कर रहे हैं. आज जब हमारी रिपोर्टिंग टीम ये जानने शाहीन बाग पहुंची कि एक साल बाद ये इलाका कितना बदल गया है तो हमें ये डराने वाली बात पता चली कि किसान आंदोलन की सफलता को देखकर शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी एक बार फिर अपनी जगह पर लौट सकते हैं. यानी दिल्ली के बॉर्डर तो बंधक बने ही हुए हैं, दिल्ली के अंदर के इलाकों को भी एक बार फिर से बंधक बनाया जा सकता है.

शाहीन बाग के प्रदर्शनों से बहुत कुछ सीखने का दिन
अगर आप किसानों के प्रदर्शन और शाहीन बाग के प्रदर्शनों की तुलना करेंगे तो आपको इसमें बहुत सारी समानताएं दिखाई देंगी. दिसंबर महीने में ही देश में नए नागरिकता कानून और नागरिक रजिस्टर यानी NRC को लेकर प्रदर्शन शुरू हुए थे. सर्दियों का ही मौसम था. तब भी सरकार पर कानून वापस लेने का दबाव डाला जा रहा था. किसानों के आंदोलन की तरह शाहीन बाग में भी टुकड़े टुकड़े गैंग और अलगाववादियों की एंट्री हो गई थी. विपक्षी पार्टियों की भी एंट्री हो गई थी. आज के किसान आंदोलन की तरह ही तब के शाहीन बाग प्रदर्शन की वजह से आम लोगों को काफी परेशानियां उठानी पड़ीं थी.

इसीलिए आज एक साल बाद किसान आंदोलन को केंद्र में रखते हुए शाहीन बाग के प्रदर्शनों से बहुत कुछ सीखने का दिन है. इस पर हमने शाहीन बाग से एक Ground Report तैयार की है. ये शाहीन बाग पर एक तरह का फॉलो अप  है. हमें शाहीन बाग पहुंच कर क्या पता लगा. ये आपको देखना चाहिए.

किसान आंदोलन के नाम पर जिस तरह खालिस्तानी आंदोलन को हवा दी जा रही है, जिस तरह टुकड़े टुकड़े गैंग ने किसान आंदोलन में एंट्री ले ली और जिस तरह एक बार फिर देशहित में खबर दिखाने वालों को उनका काम करने से रोका जा रहा है, ठीक ऐसा आज से 1 साल पहले आज ही के दिन शुरू हुआ था.

पटकथा तब लिखी गई थी और इस मॉडल को एक साल बाद हू-ब-हू उसी तर्ज पर फिर से लागू किया गया है. ज़ी न्यूज़ ने तब भी सीएए और नागरिकता कानून के नाम पर देशद्रोही ताकतों के सिर उठाने की साज़िश से आपको हर कदम पर आगाह किया था. मुद्दों और एजेंडे के बीच कितना अंतर है ये दिखाया था.

एक साल बाद हमने एक बार फिर सड़क को बंधक बनाने वाले आंदोलन का फॉलो अप किया. हमने ये जानने की कोशिश की कि शाहीन बाग प्रकरण से क्या सबक लिया गया. लेकिन वहां एक नई साज़िश के बुने जाने की खबर मिल गई. ज़ी न्यूज़ की टीम को अपनी पड़ताल में पता चला कि शाहीन बाग पार्ट टू की तैयारी की जा रही है.

किसान आंदोलन ने शाहीन बाग से आंदोलन का तरीका सीखा
किसान आंदोलन ने शाहीन बाग से आंदोलन का तरीका सीखा कि सड़क को किडनैप कर लो और फिर ज़िद पकड़ लो. अब शाहीन बाग के लिए किसान आंदोलन फ्यूल का काम कर रहा है.

पिछले साल 14 दिसंबर को शुरू हुआ CAA-NRC के खिलाफ शाहीन बाग प्रदर्शन तकरीबन 101 दिनों तक चला था. पूरी सड़क को प्रदर्शनकारियों ने बंधक बना लिया था. जिसकी वजह से शाहीन बाग में कारोबार करने वालों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था. 

तकरीबन 100 दिनों से ज्यादा समय तक प्रदर्शनकारियों की अराजकता की वजह से उनका कारोबार पूरी तरह से ठप रहा था. अपनी ग्राउंड रिपोर्टिंग में हमें आम आदमी का दर्द दिखा, जिनकी रोज़ी रोटी ठप हो गई. जिनके आने जाने के रास्ते बंद हो गए, आंदोलनकारियों का उनसे कितना लेना देना है, ये तो पता नहीं. लेकिन उनका दर्द बड़ा है और वो आपको सुनना चाहिए. 

एक साल बाद शाहीन बाग की तस्वीर बदली तो ज़रूर है लेकिन पूरी तरह नहीं, 100 दिनों तक सड़क बंद रहने और इस साल लॉकडाउन झेलने के बाद किसी तरह कारोबार पटरी पर लौटाने की कोशिशें चल रही हैं. लेकिन किसान आंदोलन शाहीन बाग के कर्ता धर्ताओं को नई ऊर्जा दे रहा है. शाहीन बाग का टुकड़े टुकड़े गैंग हर रोज़ किसान आंदोलन में घुसपैठ की कोशिश भी कर रहा है. इसी सड़क से अपनी रोजी रोटी चलाने वाले को भले ही आंदोलन ने कुछ न दिया हो लेकिन देश के टुकड़े का एजेंडा रखने वालों को आम आदमी के दर्द से सरोकार नहीं दिखता। एक ही तर्ज पर शुरू हुए दोनों आंदोलनों का हश्र भी एक सा नज़र आ रहा है. शाहीन बाग को देश विरोधी एजेंडे ने हाईजैक कर लिया था और किसान आंदोलन में भी अब ऐसी ही ताकतों की एंट्री हो रही है. किसान आंदोलन के नाम पर देश में और शाहीन बाग न बनें.इसके लिए समस्या को कायम रखने की बजाय, इसका समाधान ढूंढने की जरूरत है.

सकारात्मक दिशा में सत्याग्रह करने की परंपरा दम तोड़ने लगी
भारत में आज सत्याग्रह के नाम पर ऐसे आंदोलन किए जाते हैं जिनसे देश में सब कुछ बंद हो जाता है, सारी गतिविधियां रुक जाती हैं. सत्याग्रह एक प्रकार का हठ योग है. आज हमारे देश में इस हठ का इस्तेमाल सब कुछ बंद करने के लिए होता है. लेकिन दिल्ली से 6 हज़ार किलोमीटर दूर रूस में (Oymya kon) ओमयाकोन नाम का एक ग्रामीण कस्बा है. 

जहां तापमान माइनस 50 डिग्री सेल्सियस होने के बाद भी कुछ नहीं रुकता. यहां इतनी ठंड के बावजूद स्कूल खुले रहते हैं और बच्चे नियमित रूप से कक्षाओं में जाते हैं. जब तापमान माइनस 52 डिग्री सेल्सियस से भी कम हो जाता है. तब जाकर वहां 11 साल से कम उम्र के छात्रों के लिए स्कूलों को बंद किया जाता है. इस कस्बे में 900 लोग रहते हैं और ये दुनिया के सबसे ठंडे इलाकों में से एक है. लेकिन इतनी विषम परिस्थितियों के बावजूद यहां कुछ रुकता नहीं है. लोग काम पर भी जाते हैं, अपने जानवरों का ख्याल भी रखते हैं और विदेशी सैलानियों का स्वागत भी करते हैं, जबकि हमारे देश में थोड़ी सी बारिश हो जाने पर, गर्मी पड़ जाने पर, ठंड आ जाने पर और प्रदूषण हो जाने पर स्कूलों में छुट्टी घोषित कर दी जाती है. हमारे देश में सरकारें अपने ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं. छोटी छोटी समस्याओं के नाम पर स्कूल कॉलेजों की छुट्टी कर दी जाती है, जबकि लोग विषम परिस्थितियों में भी काम कर सकें. इसकी जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए. लेकिन सरकारें ऐसा करती नहीं है, वर्षों तक ड्रेनेज सिस्टम ठीक नहीं हो पाते. वॉटर प्रूफ छतों का निर्माण नहीं होता और प्रदूषण से निपटने की कोई नीति नहीं बनाई जाती. अब आप सोचिए कि अगर किसी दिन देश का आम आदमी सरकारों से ये कहने लग जाए कि वो इन सारी परेशानियों के बावजूद काम पर जाना चाहता है, अपने बच्चों को स्कूल भेजना चाहता है और इसके लिए सरकार इन समस्याओं से निपटने की व्यवस्था करे, तो सोचिए सरकारों का क्या हाल होगा. लेकिन अफसोस हमारे देश में सकारात्मक दिशा में सत्याग्रह करने की परंपरा दम तोड़ने लगी है और किसी की भी दिलचस्पी अपने जीवन को सुधारने में नहीं है.

Trending news