वर्ष 1999 में पहली बार संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNESCO ने इसे मनाने की घोषणा की थी और वर्ष 2000 से हर साल ये एक दिन मातृभाषा को समर्पित होता है. हालांकि आज का कड़वा सच ये है कि हर 14 दिन में दुनिया में एक भाषा विलुप्त हो जाती है. इसलिए सोचिए कि ये दिन भारत के लिए कितना व्यावहारिक है?
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नई दिल्ली: अब हम भाषा के उस धागे का विश्लेषण करेंगे, जो हमें एक सूत्र में पिरोती हैं. इसलिए आप कह सकते हैं कि आज का हमारा ये क़ीमती विश्लेषण आपको भारतीय भाषाओं के मन की बात बताएगा और आज हम ये समझने की भी कोशिश करेंगे कि भारत में जहां औसतन 20 किलोमीटर के बाद भाषा और बोलियां बदल जाती हैं, वहां अंग्रेज़ी भाषा का तो फ्यूचर ब्राइट नज़र आता है, लेकिन भारतीय भाषाओं के मामले में ये स्थिति बहुत ख़राब है और इसीलिए हम अपने इस विश्लेषण की शुरुआत हिन्दी के मशहूर कवि केदार नाथ सिंह द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियों से करना चाहते हैं. ये पंक्तियां इस तरह हैं-
जैसे चीटियां लौटती हैं
बिलों में...
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास...
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई अड्डे की ओर...
ओ मेरी भाषा...
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा
मातृभाषा को लेकर कवि केदार नाथ सिंह की ये पंक्तियां बताती हैं कि आख़िर में हमें जड़ों की तरफ़ ही लौटना पड़ता है.
21 फरवरी को दुनियाभर में International Mother Language Day मनाया गया. हिन्दी में इसका अर्थ है - अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस. वर्ष 1999 में पहली बार संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNESCO ने इसे मनाने की घोषणा की थी और वर्ष 2000 से हर साल ये एक दिन मातृभाषा को समर्पित होता है. हालांकि आज का कड़वा सच ये है कि हर 14 दिन में दुनिया में एक भाषा विलुप्त हो जाती है. इसलिए सोचिए कि ये दिन भारत के लिए कितना व्यावहारिक है?
हमारे देश में बच्चों को अंग्रेज़ी की कविता Twinkle Twinkle Little Star तो याद रहती है, लेकिन वो अपनी मातृभाषा में बोली जाने वाले कहानियों और कविताओं को याद नहीं रखते. आज कल सफर के दौरान हेडफोन लगा कर अंग्रेज़ी गाने सुनने का एक ट्रेंड बन गया है. अंग्रेज़ी बोलना, पढ़ना और लिखना एक स्टेटस सिंबल है.
हमें हिन्दी के नमस्ते से ज़्यादा अंग्रेज़ी का शब्द हैलो बोलना अच्छा और कूल लगता है. हमारे ही समाज में ये बातें भी बोली जाती हैं कि अंग्रेज़ी सीख ली तो नौकरी भी मिल जाएगी और सम्मान भी. यानी आज अगर भाषाओं का विश्वयुद्ध हुआ तो भारत की हिन्दी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, पंजाबी और उड़िया जैसी भाषाएं बिना लड़े ही हार जाएंगी और ये एक बहुत बड़ा सच है.
इस विषय को आज हम आपको संक्षेप में और सरल भाषा में समझाएंगे और इसके लिए सबसे पहले आपको मातृभाषा का सही अर्थ बताते हैं. इसका मतलब है कि वो पहली भाषा, जिसे बच्चा जन्म लेने के बाद सीखता है. मातृभाषा तीन चीज़ों को जोड़ती है. सांस्कृतिक मूल्यों को, इतिहास को और परंपराओं को यानी मातृभाषा हमारे अंदर तीन विचारों को अंकुरित करती है. हालांकि भारत में प्रांतीय भाषा, जिन्हें मातृभाषा भी बोला जाता है, उनकी स्थिति ज़्यादा अच्छी नहीं है.
इसे आप कुछ आंकड़ों से समझिए-
- 2011 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में 19 हज़ार 500 भाषाएं और बोलियां मौजूद हैं, जिनमें से 15 प्रतिशत यानी लगभग तीन हज़ार भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं. यानी इन भाषाओं को बोलने वाले लोग 100 से भी कम हैं.
- एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि 19 हज़ार 500 भाषाओं में से सिर्फ़ 121 भाषाएं ही ऐसी हैं, जिन्हें 10 हज़ार या उससे ज़्यादा लोग बोलते हैं.
- लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि इन 121 भाषाओं में से 99 भाषाएं केवल 3.29 प्रतिशत लोग ही बोलते हैं. यानी ये भाषाएं भी अब ख़तरे में हैं.
- 96.71 प्रतिशत लोग बाकी बची 22 भाषा बोलते हैं
- ये वही भाषाएं हैं, जिन्हें भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूचि में आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है
- हालांकि 1947 में भारत को जब अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली थी, तब ये संख्य़ा सिर्फ़ 14 थी.
- लेकिन बाद में अलग अलग समय पर आठ और दूसरी भाषाओं को इसमें शामिल किया गया और इस तरह ये संख्या 22 पहुंची.
भारत में अंग्रेज़ी भाषा को ज़्यादा महत्व दिया जाता है.
कहा जाता है कि अगर अंग्रेज़ी भाषा आती है तो नौकरी आसानी से मिल जाएगी, रिश्तेदार ऐसे लोगों को सम्मान की नज़रों से देखते हैं. ऐसे व्यक्ति को ज़्यादा पढ़ा लिखा और होशियार माना जाता है. किसी व्यक्ति को अंग्रेज़ी आती है तो उसे सफलता आसानी से मिल जाएगी ऐसी सोच भी होती है. ये वो धारणाएं हैं, जो हमारे अंदर जन्म ले लेती हैं और हम इन्हें ढोने लगते हैं. जैसा कि आज हो रहा है.
आज भारत की 44 प्रतिशत आबादी हिन्दी भाषी है जबकि क़रीब 30 प्रतिशत लोगों को अंग्रेज़ी आती है. इनमें ज़्यादातर लोग वही हैं, जो हिन्दी बोलते हैं और हिन्दी को अपनी मातृभाषा मानते हैं. लेकिन जब बात अंग्रेज़ी की आती है तो हिन्दी को किनारे कर दिया जाता है. यही हाल दूसरी भाषाओं का भी है. इसे आप कुछ और आंकड़ों से समझिए-
2014 में आई भारत सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में 42 भाषाएं ऐसी हैं, जो जल्द समाप्त हो जाएंगी. 5 भाषाएं ऐसी हैं जो अब बिल्कुल नहीं बोली जाती. इनमें Ahom, Andro, Rangkas, Sengmai और Tolcha हैं.
इसके अलावा 15 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं.
भारत में एक और भाषा है जिसे माझी कहते हैं. इसे बोलने वाले हमारे देश में सिर्फ़ चार लोग बचे हैं. सोचिए सिर्फ़ चार लोग और ये लोग भी एक ही परिवार के हैं, जो सिक्किम के गंगटोक में रहते हैं.
अगर पूरे एशिया महाद्वीप की बात करें तो यहां दो हज़ार 296 भाषाएं बोली जाती हैं जिनमें से 38 प्रतिशत भाषाओं पर विलुप्त होने का ख़तरा है और UNESCO के मुताबिक़, इसकी चार वजहे हैं- पहली वजह गरीबी, दूसरा कारण है पलायन, तीसरी वजह नौकरी से निकाले जाना और चौथी वजह है भाषा की पूरी जानकारी न होना.
कोई भी भाषा, फूलों की माला की तरह होती है. माला टूटते ही फूल बिखरने लगते हैं और भाषाओं का स्वभाव भी ऐसा ही होता है. अगर किसी भाषा को बोला ही नहीं जाएगा तो वो भाषा समाज में महकेगी ही नहीं.
भारत पर अंग्रेज़ों ने 190 वर्षों तक राज किया और एक समय ऐसा था जब अंग्रेज़ ये कहते थे कि भारत में सिर्फ़ डेढ़ लोगों को ही अंग्रेज़ी आती है. महात्मा गांधी को पूरी और मोहम्मद अली जिन्नाह को आधी. हालांकि अंग्रेज़ी और मातृभाषा को लेकर महात्मा गांधी के विचार काफ़ी अलग थे.
महात्मा गांधी का मानना था कि भारत में 90 प्रतिशत व्यक्ति 14 वर्ष की आयु तक ही पढ़ते हैं. ऐसे में उन्हें उनकी मातृभाषा में ही ज़्यादा से ज़्यादा ज्ञान होना चाहिए. वो ये भी कहते थे कि विदेशी भाषाएं बच्चों पर गैर ज़रूरी दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती हैं और इससे बच्चों में मौलिकता का अभाव पैदा होता है.
गांधी जी के विचार स्पष्ट थे. वो अंग्रेज़ी भाषा के ख़िलाफ़ नहीं थे लेकिन वो इसके लिए भी तैयार नहीं थे कि अंग्रेज़ी के लिए मातृभाषा को भुला दिया जाए. लेकिन आज कुछ ऐसा ही हो रहा है और आप कह सकते हैं कि अंग्रेज़ तो 1947 में ही भारत छोड़ कर चले गए लेकिन अंग्रेज़ी आज तक हमारे देश के DNA से नहीं गई है.
आज हमारे पास आपके लिए एक सवाल भी है. ये सवाल है कि क्या आप अपनी मातृभाषा को जिंदा रखने के लिए अपनी जान दे सकते हैं? इसे आप एक कहानी से समझिए-
वर्ष 1952 में भारत के विभाजन के बाद ईस्ट पाकिस्तान में एक आंदोलन शुरू हुआ था. ये ईस्ट पाकिस्तान ही बाद में बांग्लादेश बना. उस समय बांग्लादेश के लोगों पर जबरन उर्दू भाषा थोपी जा रही थी. बांग्ला भाषा बोलने वाले लोगों ने इसका विरोध किया और ढाका यूनिवर्सिटी के छात्रों ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया.
उस समय यूनिवर्सिटी के छात्र अपनी मातृभाषा के लिए सड़कों पर उतर आए. इन छात्रों को रोकने के लिए तब की पाकिस्तान सरकार ने सेना की मदद ली और प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई गईं. इस संघर्ष में तब चार छात्रों की मौत हो गई थी. ये सब 21 फरवरी 1952 को हुआ था और बाद में इन्ही छात्रों की याद में 21 फरवरी 1999 को UNESCO ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की.
लेकिन सोचिए कि क्या आज लोग अपनी मातृभाषा के लिए जान दे सकते हैं?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ भारत में भाषाओं को लेकर ये स्थिति है. अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं के बढ़ते प्रभाव की वजह से कई देशों में बोली जाने वाली क्षेत्रीय भाषाएं विलुप्त हो रही हैं. इसे आप कुछ उदाहरण से समझिए-
-हर 14 दिन में दुनिया में एक भाषा विलुप्त हो रही है. आप कह सकते हैं कि जितने दिन में कोरोना मरीज़ के सम्पर्क में आए व्यक्ति का क्वारंटीन पूरा होता है, उतने दिन में एक भाषा मर जाती है.
-इंडोनेशिया में 707 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से लगभग आधी भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले गिनती के ही लोग बचे हैं.
-मलेशिया में 136 भाषाएं हैं, जिनमें से 112 भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं.
-UNESCO के मुताबिक़, दुनियाभर में 6 हज़ार 700 भाषाएं मौजूद हैं, जिनमें से लगभग 2500 भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हज़ार या उससे कम है. 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें 10 से 50 लोग बोलते हैं जबकि 146 भाषाएं हैं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले लोग 10 से भी कम बचे हैं.
-यही नहीं वर्ष 1950 से लेकर अब तक 230 भाषाएं पूरी तरह मर चुकी हैं.
ये आंकड़े आज हमें एक संदेश भी देते हैं कि अगर हमने अपनी मातृभाषा को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई तो वो दिन दूर नहीं होगा जब हम संवाद तो करेंगे लेकिन उस संवाद में भावनाएं नहीं होंगी.