DNA ANALYSIS: भारतीय मीडिया के सामने हैं ये दो बड़ी चुनौतियां, क्या है इसका समाधान?
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DNA ANALYSIS: भारतीय मीडिया के सामने हैं ये दो बड़ी चुनौतियां, क्या है इसका समाधान?

भारत दुनिया के उन गिने चुने देशों में से एक है, जहां मीडिया हजारों वर्षों से मौजूद रहा है. सिंधु घाटी की सभ्यता से मिले अवशेष इस बात के गवाह हैं कि भारत में करीब 4 हजार वर्ष पहले लीपि विकसित कर ली गई थी और ये
लिपि ही आगे चलकर ​कम्युनिकेशन यानी संचार का माध्यम बनी.

DNA ANALYSIS: भारतीय मीडिया के सामने हैं ये दो बड़ी चुनौतियां, क्या है इसका समाधान?

नई दिल्ली: पत्रकारिता दुनिया के सबसे पुराने पेशों में से एक है. आज भी माना जाता है जब किसी समाज को बहुत तेजी से बदलने की जरूरत होती है तो इसके लिए पत्रकारिता से कारगर कोई दूसरा हथियार नहीं होता. कल 16 नवंबर को National Press Day मनाया गया. आज हम ये समझने की कोशिश करेंगे कि समय के साथ 'पत्रकारिता' नाम के इस हथियार की धार कुंद हो गई, पहले से तेज हो गई है या फिर अलग अलग लोगों द्वारा इस हथियार का इस्तेमाल अब अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से किया जाने लगा है. वर्ष 1966 में आज ही के दिन Press Council Of India की स्थापना हुई थी और इसीलिए आज के दिन को National Press Day के रूप में मनाया जाता है. Press Council Of India प्रिंट मीडिया के काम काज पर नजर रखती है.

भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में से एक है, जहां मीडिया हजारों वर्षों से मौजूद रहा है. सिंधु घाटी की सभ्यता से मिले अवशेष इस बात के गवाह हैं कि भारत में करीब 4 हजार वर्ष पहले लीपि विकसित कर ली गई थी और ये लिपि ही आगे चलकर ​कम्युनिकेशन यानी संचार का माध्यम बनी. भारत में शब्दों के जरिए लोगों के बीच जो संवाद हज़ारों वर्षों पहले शुरू हुआ था वो आज दुनिया के सबसे बड़े मीडिया बाजार में बदल गया है.

भारत में इस समय 1 लाख से ज्यादा समाचार पत्र, और पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं. भारत में अलग-अलग भाषाओं में हर रोज 17 हजार से ज्यादा अखबारों का प्रकाशन होता है और इनकी 10 करोड़ कॉपियां हर रोज छपती हैं. समाचार पत्रों के हिसाब से भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है. भारत में 24 घंटे न्यूज़ दिखाने वाले चैनलों की संख्या 400 से ज्यादा है और ये भी दुनिया में सबसे ज्यादा है.

भारत सोशल मीडिया के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार
56 करोड़ यूजर्स के साथ भारत सोशल मीडिया के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है. इस मामले में चीन पहले नंबर पर है. यानी कभी अखबारों के जरिए, कभी न्यूज़ चैनलों के जरिए तो कभी सोशल मीडिया के जरिए भारत के लोग हर समय सूचनाओं से घिरे रहते हैं और इन्हीं सूचनाओं के आधार पर आप ये तय करते हैं कि देश किस दिशा में जा रहा है.

आधुनिक भारत की बात की जाए तो भारत में छपने वाले पहले न्यूज़पेपर का नाम था Bengal Gazette जिसका प्रकाशन एक अंग्रेज James Augustus Hicky ने वर्ष 1780 में शुरू किया था. इसके बाद आने वाले वर्षों में The India Gazette, The Calcutta Gazette, The Madras Courier और The Bombay Herald जैसे अखबारों का प्रकाशन शुरू हुआ. लेकिन 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत की अलग अलग भाषाओं में छपने वाले अखबारों की संख्या लगातार बढ़ने लगी.  स्वतंत्रता संग्राम के समय भारत में मीडिया का विस्तार इतना ज्यादा नहीं था कि इसकी खबर अखबारों के जरिए देश के कोने कोने में पहुंच पाती. लेकिन ब्रिटेन के कुछ अखबारों ने आजादी की इस पहली लड़ाई पर विस्तार से खबरें छापी थी. हालांकि तब ये खबरें पहले बॉम्बे पहुंचाई जाती थीं और फिर वहां से इन्हें लंदन पहुंचाया जाता था और इसमें कई हफ्तों का समय लग जाता था.

स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत 10 मई 1857 को हुई थी, लेकिन ब्रिटेन के एक अखबार The Illustrated London News में इस बारे में खबर 13 जून को छपी. उस समय के अखबारों की ये कटिंग्स मेरठ के एक इतिहासकार अमित पाठक ने नीलामी में खरीदी थी. शुरू में ब्रिटेन के अखबार स्वतंत्रता संग्राम की खबरों को बहुत कम जगह दे रहे थे. लेकिन धीरे धीरे ये खबर वहां के अखबारों के पहले पन्ने पर आने लगीं.

18 जुलाई 1857 को ब्रिटेन के एक अखबार The Illustrated Times में इस खबर पर बहुत लंबा चौड़ा आर्टिकल छापा गया था. लेकिन मजे की बात ये है कि अगर ये खबर आज के दौर में छपती तो 24 घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनलों और डिजिटल मीडिया की बदौलत ये खबर मिनटों में ब्रिटिश राज तक पहुंच जाती और जब तक लड़ाई लड़ने वाले भारतीय सिपाही मेरठ से बाहर निकलते तब तक तो ब्रिटेन अपनी सेना की टुकड़ियों को वहां भेजकर इन सिपाहियों को रोक भी देता.

1857 की क्रांति के बाद एक तरफ तो भारतीयों द्वारा प्रकाशित किए जाने वाले अखबारों की संख्या बढ़ने लगी तो दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार ने इन अखबारों पर सेंसरशिप लागू करनी शुरू कर दी. 1859 में जब बंगाल के किसानों ने नील की खेती के खिलाफ आंदोलन किया तो स्थानीय भाषा के कई अखबारों ने इस पर रिपोर्टिंग की लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इन अखबारों के खिलाफ सख्ती बरतना शुरू कर दिया और नए नए कानून बनाकर स्थानीय भाषाओं के अखबारों पर दबाव डाला जाने लगा और उनसे कहा गया कि वो कुछ भी प्रकाशित करने से पहले उसकी एक कॉपी अंग्रेज अधिकारियों को जरूर सौंपे.

प्रेस एक्ट के तहत करीब 1 हजार अखबारों पर कार्रवाई की गई
1910 में लागू किए गए प्रेस एक्ट के तहत करीब 1 हजार अखबारों पर कार्रवाई की गई, 500 अखबारों पर अलग अलग प्रतिबंध लगा दिए गए और कई अखबारों के संपादकों पर देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया.

1917 में महात्मा गांधी ने भारत में सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत कर दी थी, इसे भारत के अखबारों ने प्रमुखता से छापा और अखबारों के माध्यम से देश के लोगों के मन में आजादी की अलख जागने लगी. ब्रिटिश सरकार को ये बात पसंद नहीं आई और कुछ समय बाद Press Emergency Act of 1931 लागू कर दिया गया. इसके तहत एक बार फिर से हजारों अखबारों पर कार्रवाई की गई.

1939 में जब द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई और ब्रिटेन ने भारत को भी इस युद्ध में खींच लिया तो अखबारों ने इसकी आलोचना शुरू कर दी और ब्रिटेन की सरकार भारत के अखबारों पर एक बार फिर से सख्त हो गई. विदेशों से आने वाली खबरों को फिल्टर किया जाने लगा, नवंबर 1939 में जब देश भर की जेलों में बंद कैदी भूख हड़ताल पर चले गए तो अखबारों से कहा गया कि वो इसकी खबर न छापें.

लेकिन पाबंदियों के और सख्ती के बावजूद भारत के अखबारों ने आजादी की लड़ाई से जुड़ी खबरें छापना बंद नहीं किया, महात्मा गांधी के भाषणों को प्रमुखता से छापा गया, दांडी मार्च और भारत छोड़ो जैसे आंदोलनों को अखबारों में अच्छी खासी जगह मिली, क्रांतिकारी भगत सिंह की फांसी के ट्रायल और शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की हत्या की खबरों पर भी बड़े पैमाने पर रिपोर्टिंग हुई.

हालांकि जब ब्रिटेन की सरकार ने काफी सख्ती की और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की रिपोर्टिंग करने से अखबारों को रोका तो उस समय All-India Newspaper Editors’ Conference ने ब्रिटिश सरकार को ये भरोसा दिया कि वो इसकी खबरें छापने से परहेज़ करेंगे. लेकिन इसके बावजूद लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने का काम रुका नहीं, गोपनीय रेडियो संदेशों के जरिए आंदोलन की खबरें सुनाई जाने लगी, और कई अखबारों ने Under Ground Publications शुरू कर दिए.

1946 में जब भारत में अंतरिम सरकार की स्थापना हुई और भारत और पाकिस्तान के बंटवारे की रूप रेखा तय की जाने लगी तब मीडिया पर लगी पाबंदियां तो कम हो गईं लेकिन तब हिंदू प्रेस और मुसलमान प्रेस के बीच लड़ाई छिड़ गई, यानी अंग्रेज़ों से लड़ते समय तक तो भारत का मीडिया एक था लेकिन जैसे ही अंग्रेज़ों ने भारत से जाने का ऐलान किया. प्रेस का बंटवारा धर्म के आधार पर होने लगा.

ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लंबी लड़ाई
इसके बाद वो पल आया जिसके लिए भारत के लोगों ने, नेताओं ने और मीडिया ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी थी, यानी आजादी का पल. भारत के लगभग सभी अखबारों के पहले पन्ने पर आजादी से जुड़ी खबरें छपी थीं जबकि पाकिस्तान के कुछ प्रमुख अखबारों ने तो 15 अगस्त के दिन आजादी की खबर छापी ही नहीं, लाहौर से छपने वाले अखबार The Civil And Military Gazette ने सिर्फ दंगों, बंटवारे और खून खराबे की खबरें छापी.

जब भारत आजाद हुआ तब भारत में 214 Daily News Papers थे. आजादी के बाद से जैसे जैसे भारत बदलने लगा मीडिया के काम काज करने का तौर तरीका भी बदलने लगा. इसकी शुरुआत हुई सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के खुलासों से. 1948 में ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त V.K. Krishna Menon ने 80 लाख रुपये में सेना के लिए कुछ पुरानी जीपें खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किए लेकिन इसके लिए उन्होंने सरकार की अनुमति नहीं ली थी. जितनी रकम देकर ये जीपें खरीदी गईं थी उतने में अमेरिका और कनाडा जैसे देशों से सेना को नई गाड़ियां मिल जाती. मीडिया ने बड़े पैमाने पर इस घोटाले की रिपोर्टिंग की और शायद पहली बार आजाद भारत के लोगों का सामना, घोटाले और स्कैम जैसे शब्दों से हुआ. सवाल तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर भी उठे, क्योंकि वी​के मेनन उनके करीबी थे. विपक्ष और मीडिया द्वारा इस घोटाले की आलोचना किए जाने के बावजूद नेहरू ने मेनन को अपने मंत्रिमंडल का हिस्सा बनाया और वो देश के रक्षा मंत्री भी बनाए गए.

इसके बाद 1962 में भारत का चीन के साथ युद्ध हुआ और आजाद भारत में पहली बार किसी युद्ध की रिपोर्टिंग भी युद्ध स्तर पर की गई. इस युद्ध पर उस समय के अखबारों की हेडलाइंस पर आप गौर करेंगे तो आपको लगेगा कि शायद आज भारत और चीन के बीच चल रहे सीमा विवाद पर रिपोर्टिंग की जा रही है.

इसके बाद वर्ष 1965 में भारत का पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ, तब ज्यादातर विदेशी और पाकिस्तानी अखबार, भारत पर पाकिस्तान की जीत की झूठी और आधी अधूरी खबरें प्रकाशित कर रहे थे. ऐसे में भारत के अखबारों ने सच को दुनिया के सामने रखा. ये आजाद भारत में शायद पहली ऐसी घटना थी, जिस पर विदेशी मीडिया प्रॉपेगेंडा के तहत खबरें प्रकाशित कर रहा था.

फिर 1971 का युद्ध हुआ, जिसके बाद पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हुआ. इस दौरान भारत के अखबारों ने ना सिर्फ युद्ध पर सटीक रिपोर्टिंग की बल्कि पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों पर भी कई विस्तृत रिपोर्ट छापी और पश्चिम के देशों को भी एक हद तक समझ आने लगा कि पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान की सेना कैसे लाखों लोगों का नरसंहार कर रही है. हालांकि तब भारत की मुस्लिम प्रेस से जुड़े कई अखबारों ने इस संकट को भारत की देन बताया था.

इमरजेंसी के दौरान 3801 अख़बारों को किया गया ज़ब्त
फिर भी मोटे तौर पर भारत का मीडिया उस समय सरकार और सेना के साथ खड़ा था. लेकिन जल्द ही हालात बदलने वाले थे. 1971 के युद्ध के सिर्फ 4 वर्षों के बाद कुछ ऐसा हुआ जिसकी भारत के लोगों और मीडिया ने कल्पना भी नहीं की थी. 25 जून 1975 की आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में इमरजेंसी लगा दी और इसके साथ ही भारत में प्रेस की आजादी को भी छीन लिया गया.

इमरजेंसी के दौरान 3801 अख़बारों को ज़ब्त किया गया. 327 पत्रकारों को मीसा कानून के तहत जेल में बंद कर दिया गया. 290 अख़बारों में सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए.

रॉयटर्स सहित कई विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के टेलीफोन और दूसरी सुविधाएं ख़त्म कर दी गईं. 51 विदेशी पत्रकारों की मान्यता छीन ली गई. 29 विदेशी पत्रकारों को भारत में एंट्री देने से मना कर दिया गया.

उस दौर में संपादकों के एक समूह ने सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे. दिल्ली के 47 संपादकों ने 9 जुलाई 1975 को इंदिरा गांधी द्वारा उठाए गए सभी कदमों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की. यहां तक कि इन संपादकों ने अखबारों पर लगाई गई सेंसरशिप को भी सही ठहरा दिया था.

ऐसे संपादकों के बारे में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी का वो कथन बहुत मशहूर है, जब उन्होंने कहा था कि जब उन्हें झुकने के लिए कहा गया था, तो वो रेंगने लगे थे.

हालांकि कुछ अखबार ऐसे थे जिन्होंने इमरजेंसी का खुलकर विरोध किया. उस समय एक राष्ट्रीय अखबार ने इमरजेंसी के विरोध में संपादकीय पन्ने पर खाली जगह छोड़ दी थी और अपना विरोध प्रकट किया था.

जिस तरह आजादी के बाद भारत का मीडिया विचारधारा के आधार पर दो हिस्सों में बंट गया था. ठीक वैसा ही इमरजेंसी के दौरान और उसके बाद भी हुआ.

जो पत्रकार सरकार के साथ थे वो आगे चलकर दरबारी पत्रकारों में बदल गए और जो खिलाफ थे. उनके लिए मुश्किलें खड़ी की जाने लगी, दरबारी पत्रकारों को पद्मश्री जैसे सम्मान मिलने लगे, पत्रकार राज्यसभा सांसद बनकर राजनीति में आने लगे. संपादकों ने पत्रकारिता के सिद्धांतों से समझौता कर लिया और इसके लिए उन पर इनामों की बौछार होने लगी. तब तक भारत में सिर्फ अखबारों और रेडियो के जरिए ही लोगों तक सूचनाएं पहुंचती थीं और सरकार के अधीन चलने वाला दूरदर्शन भी लोगों को सिर्फ वही बताता था जो सरकार चाहती थी.

90 के दशक में बोफोर्स घोटाला हुआ, शेयर मार्केट और चारा घोटाला भी हुआ लेकिन इन घोटालों की ज्यादातर रिपोर्टिंग भी अखबारों के जरिए ही की गई. लेकिन जल्द ही खबरों पर कुछ मुट्टी भर अखबारों का एकाधिकार समाप्त होने वाला था. इमरजेंसी के दो दशकों के बाद भारत में प्राइवेट सैटेलाइट चैनलों की एंट्री हुई, Zee News भारत का पहला प्राइवेट चैनल था, जिसकी स्थापना 1995 में हुई थी. इसके बाद देखा देखी भारत में दूसरे प्राइवेट न्यूज़ चैनल भी लॉन्च होने लगे.

पत्रकारिता में रेस
इस स्थिति ने पत्रकारिता को एक रेस में बदल दिया. हालांकि इसके कुछ सुखद परिणाम भी हुए और कुछ दुखद परिमाण भी हुए. अच्छे परिणामों की बात करें तो पहली बार ऐसा हुआ जब मीडिया में कही जाने वाली बातें लोगों के मन में गहराई तक उतरने लगीं.

1999 के करगिल युद्ध के रूप में पहली बार देश के लोगों ने किसी युद्ध का लाइव प्रसारण अपने घरों में बैठकर देखा. ये वो दौर था जब भारत में इंटरनेट का भी विस्तार हो रहा था, News Websites भी बनाई जाने लगीं थी और जिन लोगों के पास इंटरनेट की सुविधा थी और इस युद्ध के बारे में विस्तार से इंटरनेट पर पढ़ने लगे. यानी इसके साथ ही सोशल मीडिया का दौर शुरू हुआ.

इसके बाद कंधार हाईजैक की घटना हुई, जब आतकंवादियों ने Indian Airlines की फ्लाइट 814 को हाईजैक कर लिया था और आतंकवादी इसे कंधार ले गए थे. Zee News ने तब इस घटना की लगातार 24 घंटे रिपोर्टिंग की.

2001 में अमेरिका में 9/11 का हमला हुआ और पहली बार भारत के मीडिया ने किसी अंतरराष्ट्रीय घटना को इतने बड़े स्तर पर कवर किया. फिर इसी वर्ष दिसंबर में भारत की संसद पर हमला हुआ.

TRP मापने के पैमानों की एंट्री
इसी दौरान TRP मापने के पैमानों की एंट्री हो चुकी थी और न्यूज़ चैनलों इस TRP को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रम बनाने लगे. यहीं से एक हद तक मीडिया में Content के मामले में पतन की शुरुआत हुई. लेकिन इस दौरान कई ऐसी बड़ी घटनाएं होती रहीं जब मीडिया ने TRP से ध्यान हटाकर सच में पत्रकारिता की, चाहे जैसिका लाल हत्याकांड हो, 2G घोटाले की खबर हो, कोयले घोटाले का खुलासा हो. कॉमनवेल्थ घोटाला हो, या फिर जनलोकपाल और निर्भया के लिए किए गए आंदोलन हो, इस दौरान मीडिया अपनी भूमिका निभाता रहा.

जब मीडिया ने देश में सरकारें बनवाईं और गिरवाईं
इसके बाद एक दौर ऐसा भी आया जब मीडिया ने देश में सरकारें बनवाईं और गिरवाईं. इसी मीडिया का एक खास वर्ग नेताओं के साथ मिलकर अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग करने लगा. कुछ पत्रकार तो कैबिनेट मंत्रियों की लिस्ट भी तैयार करनी शुरू कर दी थी. दरबारों में हाजिरी का असर ये हुआ कि पत्रकारों के बड़े-बड़े फार्महाउस बन गए. कुछ पत्रकार, Media Houses के मालिक बन गए और मीडिया एक उद्योग में बदल गया. हालांकि मीडिया पहले भी बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ में रहा है, लेकिन अब इसका लक्ष्य सिर्फ मुनाफा कमाना बन गया है.

अब मीडिया के बाद सोशल मीडिया और OTT Platforms आ गए हैं और ये प्लेटफॉर्म्स अब लोगों के विचारों को प्रभावित भी कर रहे हैं और उन्हें प्रदूषित भी कर रहे हैं. अफसोस की बात ये मीडिया से मिलने वाली सारी जानकारियां लोगों को मुफ्त में चाहिए. लेकिन आपको ध्यान रखना चाहिए कि जब आपको कोई प्रोडक्ट मुफ्त में मिलता है तो आप खुद प्रोडक्ट बन जाते हैं.

मीडिया दो हिस्सों​ में बंट गया
इसके बाद मीडिया भी दो हिस्से में बंट गया. पहला हिस्सा राष्ट्रवादी मीडिया और दूसरा दरबारी पत्रकार. यहां राष्ट्रवादी मीडिया ने देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझा और इस दौरान देश को कई नए शब्द भी मिले, जिसकी चर्चा आज हर कोई करता है. उदाहरण के लिए

- टुकड़े-टुकड़े गैंग
- अफ़जल प्रेमी गैंग
- और अवॉर्ड वापसी गैंग जैसे शब्द देश को Zee News ने ही दिए.

कोरोना वायरस जैसे शब्द लोगों की जुबान पर मीडिया की वजह से ही चढ़े और Quarantine जैसे कठिन शब्दों का इस्तेमाल अब भारत का बच्चा भी कर लेता है.

इतना ही नहीं, आजकल की टीवी डिबेट में दिखाई देने वाले क्रिकेट एक्सपर्ट और राजनीतिक एक्सपर्ट भी मीडिया ने ही बनाए.

महात्मा गांधी ने अपने जीवन में 45 वर्ष पत्रकारिता को दिए थे. उन्होंने अपनी पहली पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में Free Press यानी प्रेस की आज़ादी पर अपने विचार रखे थे. उन्होंने इस पुस्तक में लिखा था कि मीडिया यदि सवाल नहीं पूछेगा तो आखिर करेगा क्या? Free Press को महात्मा गांधी ने लोगों की ताकत बताया था. इस ताकत को आप भी पांच प्वाइंट्स में समझ लीजिए.

Free Press के माध्यम से लोगों तक सही सूचनाएं पहुंचती हैं
Free Press के माध्यम से लोगों तक सही सूचनाएं पहुंचती हैं. मीडिया आम आदमी की जानकारी बढ़ाने में मदद करता है.

ये सरकार और लोगों के बीच संवाद का भी काम करता है, जिससे सरकार को लोगों की जरूरतों के बारे में पता चलता है.

मीडिया लोगों को उनके अधिकारों के प्रति भी जागरूक करता है और इनका उल्लंघन होने पर सवाल भी उठाता है.

मीडिया आपको उन लोगों के बारे में भी बताता है जिनके विचार और नीतियां देश के खिलाफ होती हैं. यानी स्वतंत्र और जिम्मेदार मीडिया एक बेहतर राष्ट्र का निर्माण करने के साथ लोगों की भी ताकत होता है.

मीडिया के सामने दो बड़ी चुनौतियां
इस समय मीडिया के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं.

पहली है क्रेडिबिलिटी यानी विश्वसनीयता और दूसरी है, फे​क न्यूज़.  कुछ बड़े पत्रकारों ने सबसे पहले ख़बर दिखाने की कोशिश में खुद ही अपनी विश्वसनीयता खो दी. सोशल मीडिया से खबरें चुराकर चलाने के लालच में न्यूज़ में फेक न्यूज़ की मिलावट कर दी जाती है.

चुनौतियों में ही इसका समाधान भी मौजूद
मीडिया की चुनौतियों में ही इसका समाधान भी मौजूद है. फेक न्यूज़ को खत्म करने के लिए जरूरी है कि पत्रकार खबरों के भरोसेमंद माध्यम को ही चुनें. अक्सर उन खबरों को ज्यादा महत्व मिलता है जो सोशल मीडिया पर ट्रेंड करती है. हालांकि इसी वजह से पत्रकारिता आम आदमी की समस्याओं से दूर हो गई है. इसलिए पत्रकारों को सोशल मीडिया से दूर आम आदमी के साथ सीधी बात करने की जरूरत है.

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