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नई दिल्ली: इस बार ओलंपिक खेलों में भारत के जो 7 मेडल आए हैं, उनमें से कम से 6 मेडल जीतने वाले खिलाड़ी भारत के गांवो और गरीब परिवारों से आते हैं. इन खिलाड़ियों का बचपन सूखी रोटी और चटनी खाते हुए बीता है. फिर भी इनके शरीर में इतनी शक्ति थी कि ये दुनिया के उन खिलाड़ियों को हरा सके जिनके पास सारी सुख सुविधाएं रही हैं. हमारे देश के ये खिलाड़ी महंगा स्पार्कलिंग वाटर पीकर नहीं बल्कि खून, पसीना आंसुओं के घूट पीकर चैंपियन बने हैं. इन आंसुओं की कीमत क्या होती है ये महिला हॉकी टीम की कैप्टन रानी रामपाल (Rani Rampal) ने ज़ी न्यूज़ के जरिए पूरे देश को बताया था.
मेडल लाने वाले ये सारे खिलाड़ी छोटे शहरों के गरीब परिवारों के बच्चे हैं. ये खिलाड़ी घर का खाना खाते हुए बड़े हुए हैं, जिनके परिवारों के पास इतना पैसा भी नहीं होता था कि वो अपने बच्चों के लिए महंगे एनर्जी ड्रिंक खरीद पाएं या उन्हें सप्लीमेंट लाकर दे पाएं. फिर भी इन खिलाड़ियों ने कई मौकों पर अपनी संकल्प की शक्ति से ना सिर्फ सप्लीमेंट की जरूरत को हराया, बल्कि दूसरे खेलों के जिन खिलाड़ियों को भारत में बहु स्टारडम हासिल है उन्हें भी बताया कि असली संघर्ष और शक्ति क्या होती है.
भारत में किसी क्रिकेटर को टीम में तभी चुना जाता है जब वो यो-यो टेस्ट (Yo-Yo Test) पास कर लेता है. ये किसी खिलाड़ी की फिटनेस जांचने के लिए किया जाने वाला टेस्ट है. भारतीय क्रिकेट टीम के कैप्टन विराट कोहली (Virat Kohli) का यो-यो टेस्ट स्कोर 19 है. ये टीम में सबसे ज्यादा है. क्रिकेट टीम के बाकी खिलाड़ियों का औसत यो-यो स्कोर 17 के आसपास है. वहीं, भारत की महिला हॉकी टीम के स्ट्रैंथ एंड कंडिशनिंग कोच के मुताबिक, टीम में शामिल ज्यादातर लड़कियों का यो-यो स्कोर 19 से 21 के बीच में है, जबकि कुछ खिलाड़ियों का यो-यो टेस्ट स्कोर तो 22 भी है. यानी महिला हॉकी टीम की खिलाड़ियों का औसत यो-यो स्कोर भी भारत के सबसे फिट क्रिकेटर के स्कोर से ज्यादा है.
क्रिकेटर्स को इस टेस्ट में पास होने के लिए 8 मिनट 30 सेकंड में दो किलीमोटीर दौड़ना होता है. यानी करीब 26 सेकंड में 100 मीटर. जबकि भारतीय महिला हॉकी टीम की सबसे छोटी उम्र की खिलाड़ी सलीमा टेटे (Salima Tete) इससे बहुत कम समय में हॉकी की गेंद को मैदान के एक कोने से दूसरे कोने तक दौड़ते हुए ले जा सकती हैं. वो भी तब जब सलीमा को हॉकी खेलने के लिए जूते भी पहली बार वर्ष 2013 में मिले थे. इससे पहले कई वर्षों तक उन्होंने बिना जूतों के ही हॉकी खेली थी. सलीमा इतने गरीब परिवार से आती हैं कि बचपन में वो हॉकी भी इसलिए खेलती थीं, क्योंकि मैच जीतने वाली टीम को इनाम में मीट और चिकन मिलता था. इससे उनके परिवार के लिए खाने का इंतजाम हो जाता था.
भारतीय महिला हॉकी टीम की गोलकीपर सविता पुनिया (Savita Punia) के पिता एक जमाने में सिर्फ 9 हजार रुपये कमाते थे. सविता पुनिया संयुक्त परिवार में रहती थीं, और उनका पूरा परिवार उनके पिता की सैलरी पर ही निर्भर था. लेकिन अपनी बेटी को हॉकी टीम का प्लेयर बनाने के लिए उन्होंने सविता को 18 हजार रुपये की गोल किपिंग किट (Goal Keeping Kit) दिलवाई. सोचिए अपनी सैलरी से दोगुनी कीमत की किट अपनी बेटी को देने के लिए उनके पिता ने कितना संघर्ष किया होगा, जबकि फ्रांस से मंगाकर जो पानी हमारे देश के कुछ क्रिकेटर्स पीते हैं, हर रोज उसकी सबसे सस्ती दो बोतल खरीदने पर भी ये खिलाड़ी इस पर 36 हजार रुपये महीने खर्च करते होंगे. जबकि सविता पुनिया की पूरी फैमिली इनकम इसकी एक चौथाई थी.
इसी तरह इसी टीम की एक और खिलाड़ी सुशीला चानू (Sushila Chanu) के परिवार के पास राशन खरीदने के भी पैसे नहीं होते थे, और उनके परिवार को दुकानदार से उधार लेना पड़ता था. कई बार दुकानदार उधार देने से मना कर देता था. भारत में एक परिवार महीने भर के खाने पीने पर 1700 रुपये भी नहीं खर्च कर पाता, जबकि बाजार में बिकने वाला बड़ी-बड़ी कंपनियों का 400 ग्राम का प्रोटीन सप्लीमेंट 500 से 600 रुपये का आता है. अगर मध्यवर्गीय परिवार अपने घर के दो-तीन बच्चों को भी ये एनर्जी ड्रिंक ये सोचकर पिलाने लग जाएं कि इसे पीकर ये लोग चैंपियन बन जाएंगे तो सिर्फ एनर्जी ड्रिंक पर ही एक परिवार को 3 हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे. फिर भी चैंपियन बन जाने की कोई गारंटी नहीं है. जबकि सुशीला चानू जैसे खिलाड़ियों के परिवार उधार में राशन लाकर भी अपने बच्चों को चैंपियन बना देते हैं.
भारत में क्रिकेट के खिलाड़ियों को जो स्टारडम हासिल है वो ओलंपिक में मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों को हासिल नहीं है. इसलिए भारत में विज्ञापन के बाजार पर भी क्रिकेटर्स का ही कब्जा है. क्रिकेटर्स के बारे में दावा किया जाता है कि इनमें से कोई सिर्फ ब्राउन राइस खाता है, कोई महंगे विदेशी फल खाता है, कोई एनर्जी ड्रिंक पीता है, तो कोई पानी भी विदेशों से मंगाकर पीता है जिसकी कीमत 600 से 36 हजार रुपये प्रति लीटर होती है. अंग्रेजी में इसे स्पार्कलिंग वाटर कहते हैं. इसमें और साधारण पानी में फर्क सिर्फ इतना होता है कि स्पार्कलिंग वाटर बुलबुले उठते हैं और साधारण पानी में बुलबुले नहीं उठते. दूसरी तरफ गरीब परिवारों से आने वाले वो खिलाड़ी हैं, जिन्हें पीने के लिए साधारण पानी भी मिल जाए तो वो असाधारण उपलब्धि हासिल कर लेते हैं.
इसलिए आप इन चैंपियन खिलाड़ियों में से शायद ही किसी को टीवी पर बड़ी बड़ी कंपनियों का विज्ञापन करते हुए देखेंगे. भारत में स्पोर्ट्स इंडस्ट्री करीब 6 हजार करोड़ रुपये की है. इनमें खिलाड़ियों को मिलने वाली स्पॉन्सरशिप, खिलाड़ियों के साथ होने वाली कमर्शियल डील और स्पोर्ट्स के नाम पर अखबारों और टीवी पर दिखने वाले विज्ञापन शामिल हैं. लेकिन इस बाजार के 87 प्रतिशत हिस्से पर सिर्फ क्रिकेटर्स का कब्जा है. 2020 में कंपनियों ने खिलाड़ियों के साथ विज्ञापनों की 377 डील्स की थी, और इनमें से 275 डील्स सिर्फ क्रिकेट के खिलाड़ियों के साथ थी.
एनर्जी ड्रिंक, मल्टी-विटामिन की गोलियां, हर्बल कैप्सूल, इम्यूनिटी बूस्ट करने वाले प्रोडक्ट्स और प्रोबायोटिक ड्रिंक्स. ये सब सुनने में बड़े फैन्सी नाम लगते हैं. इन्हें बेचने के लिए कंपनियां हजारों करोड़ों रुपये खर्च करती हैं. इनका विज्ञापन अक्सर क्रिकेटर्स या फिर फिल्मों में काम करने वाले बड़े-बड़े सेलिब्रिटी करते हैं. इसलिए लोग बड़े शौक से इन्हें खरीदते भी है, लेकिन नतीजे देखकर इन सप्लीमेंट्स पर शक होता है. भारत के शहरों में रहने वाले 37% लोग कोई ना कोई फूड सप्लीमेंट जरूर लेते हैं. जबकि 2015 की एसोचैम (Assocham) के एक सर्वे में भारत में बिकने वाले ज्यादातर फूड सप्लीमेंट नकली पाए गए थे, या इनके प्रचार में किए गए दावे झूठे थे.
अब आप खुद सोचिए कि दूध में पाउडर मिलाकर पीने के बाद या मल्टीविटामिन की गोलियां खाने के बाद आपको सच में अचानक से चैंपियन जैसा एहसास होने लगता है. क्या सच में रातों रात आपके बच्चे की हाईट बढ़ने लगती है? क्या देखते ही देखते आप 8-9 घंटे की बजाय 15-16 घंटे बिना थके काम करने लगते हैं? ऐसा नहीं होता. बल्कि ज्यादा सप्लीमेंट खाने से देर सवेर आपका स्वास्थ्य बिगड़ सकता और कुछ मामलों में तो मौत भी हो सकती है. हमारे देश के लोग हर साल फूड सप्लीमेंट पर 30 हजार करोड़ रुपये और इम्यूनिटी बूस्टर पर 15 हजार करोड़ रुपये खर्च कर देते हैं. जबकि दूध, घी पीकर और दाल रोटी सब्जी और चटनी खाकर भी गरीब परिवारों से आए खिलाड़ी स्वस्थ रहते हैं, और देश के लिए मेडल भी जीतते हैं. जबरदस्त डाइट की नहीं बल्कि जबरदस्त जज्बे की भी जरूरत होती है.
कुल मिलाकर अगर किसी के पास संकल्प की शक्ति हो तो वो रोटी और चटनी खाकर भी चैंपियन बन सकते हैं. आपको ओलंपिक खेलों में सिल्वर मेडल जीतने वाली वेट लिफ्टर मीराबाई चानू (Chanu Saikhom Mirabai) की वो तस्वीर याद होगी, जिसमें वो अपने घर में घर का सादा खाना खा रही हैं. वो तस्वीर बताती है कि असली चैंपियन कैसे बनते हैं. घर के बने खाने को छोड़कर डाइट सप्लीमेंट के पीछे दौड़ने का ये क्रेज सिर्फ भारत में नहीं पूरी दुनिया में है. जबकि अलग-अलग रिसर्च दावा करती है कि ये सप्लीमेंट आपको फायदा देने की बजाय नुकसान पहुंचाते हैं, और इनमें वो नकली सप्लीमेंट और दवाइयां भी शामिल है. जिनका पूरी दुनिया में सवा दो लाख करोड़ रुपये का बाजार है. इनमें से कई सप्लीमेंट आपके शरीर को नुकसान भी पहुंचाते हैं.
ये ठीक ऐसे ही जैसे 1930 और 40 के दशक में सिगरेट बनाने वाली कंपनियां डॉक्टरों को ही अपना ब्रांड एम्बेसडर (Brand Ambassador) बना देती थीं, और दावा करती थीं कि उनके सिगरेट को डॉक्टरों का अप्रूवल हासिल है. कंपनियां ये भी दावा करती थीं कि सिगरेट पीने वाले सिगरेट ना पीने वालों के मुकाबले ज्यादा स्वस्थ रहते हैं. लेकिन असल में सिगरेट से क्या नुकसान होते हैं ये हमें आपको बताने की जरूरत नहीं है. बस इतना समझ लीजिए कि अब सिगरेट की जगह सप्लीमेंट ने ली है, और शायद एक ना एक दिन कुछ सप्लीमेंट पर भी ये वैधानिक चेतावनी लिखनी पड़ेगी कि इनका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.
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