DNA ANALYSIS: Farmers Protest के सच को समझ रहे हैं लोग, साजिश का हुआ खुलासा
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DNA ANALYSIS: Farmers Protest के सच को समझ रहे हैं लोग, साजिश का हुआ खुलासा

दिल्ली पुलिस के सामने पहला रास्ता ये था कि प्रदर्शनकारियों से सख्ती से निपटती. हालात संभालने के लिए लाठीचार्ज किया जाता और गोलियां भी चलाई जातीं. और दूसरा रास्ता ये था कि पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती और संयम से काम लेती. जैसा कि पुलिस ने किया भी.

किसान आंदोलन के पीछे साजिश.

नई दिल्ली: गणतंत्र दिवस के दिन हिंसा के बीच दिल्ली पुलिस ने कैसे और क्यों अपना संयम बनाकर रखा, इस सवाल का जवाब हर कोई जानना चाहता है. Zee News ने उन पुलिसकर्मियों को खोज निकाला है, जिन्हें आपने सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में या टीवी चैनलों पर हिंसा का सामना करते देखा होगा. अब आप हमारे देश के इन वीरों की बात सुनिए, जिनका धैर्य आज देश और दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है.

आज हमारे सुरक्षातंत्र पर भी सवाल उठ रहे हैं कि पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को दिल्ली (Delhi) में घुसने ही क्यों दिया और क्या पुलिस लोगों की सुरक्षा करने में समर्थ नहीं है? इस तरह के सवाल आपके मन में भी होंगे. तो जवाब ये है कि पुलिस के सामने दो रास्ते थे.

पुलिस के सामने थे प्रदर्शनकारियों से निपटने के 2 रास्ते

पहला रास्ता ये था कि पुलिस प्रदर्शनकारियों से सख्ती से निपटती. हालात संभालने के लिए लाठीचार्ज किया जाता और गोलियां भी चलाई जातीं. और दूसरा रास्ता ये था कि पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती और संयम से काम लेती. जैसा कि पुलिस ने किया भी.

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दिल्ली पुलिस (Delhi Police) ने ये रास्ता इसलिए अपनाया क्योंकि प्रदर्शन कर रहे लोग चीन (China) और पाकिस्तान (Pakistan) से नहीं आए थे. ये हमारे ही देश के लोग थे और पुलिस इस बात को समझ रही थी. इसीलिए प्रदर्शनकारियों पर हाथ उठाने में जवानों के हाथ कांप रहे थे. लेकिन सवाल है कि क्या हिंसा करने वाले लोग ऐसा सोच रहे थे. क्योंकि पुलिस पर हमला करने में उनके हाथ नहीं कांपे और इसी वजह से हिंसा बेकाबू हो गई.

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पुलिस की सख्ती को बनाया जा सकता था मुद्दा

कल्पना कीजिए अगर पुलिस लाठीचार्ज करती और गोलियां चलाती तो क्या होता? इन परिस्थितियों में लाल किला तो बच जाता लेकिन प्रदर्शनकारियों को चोटें आतीं और ऐसा होने पर देश के डिजायनर पत्रकारों व बुद्धिजीवियों को सवाल उठाने का मौका मिल जाता. ये लोग पुलिस की कार्रवाई के वीडियो शेयर करते और मानवधिकारों की बात करते.

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सुप्रीम कोर्ट आपत्ति जताता और ये कहता कि पुलिस ने संवैधानिक मूल्यों को बचाने के लिए लोकतांत्रिक तरीका क्यों नहीं अपनाया. अमेरिका और कनाडा जैसे देश भारत को इस पर लेक्चर देना शुरू कर देते. संभव है कि इस विषय में भी राहुल गांधी की रुचि बढ़ जाती और वो किसानों का साथ देने के लिए उनके आंदोलन में धरने पर बैठे जाते.

पुलिस ने संयम से किया उपद्रवियों का सामना

लेकिन पुलिस ने किसी को भी ऐसा करने का मौका नहीं दिया. जवान अपने शरीर पर लाठियां खाते रहे लेकिन अपना धैर्य नहीं खोया. लेकिन ये विडंबना ही है कि आज पुलिस के साथ किसी की सहानुभूति नहीं है.

26 जनवरी को दिल्ली में भड़की हिंसा के दौरान लगभग 400 जवान बुरी तरह घायल हुए थे और ये जवान अब भी अस्पतालों में हैं और इनका इलाज चल रहा है. 28 जनवरी को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह इन्हें देखने अस्पताल भी गए.

इन घायल सिपाहियों का अनुभव आज देश के उन बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और संपादकों को जरूर सुनना चाहिए जो हिंसा फैलाने वालों के समर्थन में फेक न्यूज फैला रहे थे लेकिन सिपाहियों के साथ हुए अन्याय पर एक शब्द भी नहीं बोले.

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