पीवी नरसिम्हा राव को कभी वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे. प्रधानमंत्री रहते हुए और प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा होने के बाद कांग्रेस ने कभी पी.वी, नरसिम्हा राव को वो स्टेटस नहीं दिया, जो जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को दिया गया.
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नई दिल्ली: भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को देश का पहला एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर कहा जाता है, लेकिन आपको शायद पता नहीं होगा कि देश के पहले एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर डॉक्टर मनमोहन सिंह नहीं, बल्कि पीवी नरसिम्हा राव थे, जिनकी 100वीं जयंती 28 जून को मनाई गई. नरसिम्हा राव का जन्म 28 जून 1921 को आन्ध्र प्रदेश के वारंगल में हुआ था, जो अब तेलंगाना में है.
वर्ष 1991 में जब वो देश के 9वें प्रधानमंत्री बने, तब उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस को संभाला, बल्कि कमजोर होते देश को मजबूत करने के लिए ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम उठाए. पीवी नरसिम्हा राव देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री भी बने, जिन्होंने गांधी नेहरू खानदान से न होते हुए भी अल्पमत में पूरे 5 वर्षों तक सरकार चलाई और प्रधानमंत्री पद की गरिमा को भी कभी कम नहीं होने दिया.
लेकिन इस सबके बावजूद पीवी नरसिम्हा राव को कभी वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे. प्रधानमंत्री रहते हुए और प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा होने के बाद कांग्रेस ने कभी पी.वी, नरसिम्हा राव को वो स्टेटस नहीं दिया, जो जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को दिया गया. अगर नरसिम्हा राव नेहरू-गांधी परिवार से होते तो आज कांग्रेस पार्टी जोर शोर से उनकी 100वीं जयंती मना रही होती.
कांग्रेस की राज्य सरकारें अखबारों पर पूरे पन्ने का विज्ञापन देतीं और सोनिया गांधी और राहुल गांधी उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि देने जाते और सार्वजनिक बयान भी जारी करते, लेकिन पीवी नरसिम्हा राव के मामले में ऐसा नहीं हुआ न तो गांधी परिवार ने उन्हें कोई श्रद्धांजलि दी और न ही उनके लिए सोशल मीडिया पर कुछ लिखा.
आज हम पीवी नरसिम्हा राव की कहानी आपसे शेयर करना चाहते हैं और आपको बताना चाहते हैं कि नरसिम्हा राव गांधी परिवार को इतना चुभते क्यों हैं.
1990 के दशक में भारत के सामने कई चुनौतियां थीं, लेकिन पी.वी. नरसिम्हा राव तय कर चुके थे कि वो अब राजनीति से संन्यास ले लेंगे और उनके पास इसकी ठोस वजह भी थी.
वो लगातार 8 बार से लोक सभा का चुनाव जीत रहे थे, आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे, इंदिरा गांधी की सरकार में देश के गृह मंत्री की जिम्मेदारी भी उनके पास थी और राजीव गांधी की सरकार में उनका रोल विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री का था.
इन उपलब्धियों के साथ वर्ष 1991 तक उनकी उम्र भी 70 वर्ष हो चुकी थी और यही वजह है कि उन्होंने तय किया था कि वो राजनीति से संन्यास ले लेंगे और इसी को देखते हुए उन्होंने वर्ष 1991 का लोक सभा चुनाव नहीं लड़ने का भी निर्णय किया था. यानी 1991 के लोक सभा चुनाव में वो कहीं नहीं थे. ये वही चुनाव हैं, जिसके पहले चरण की वोटिंग के बाद 21 मई 1991 को राजीव गांधी की तमिलनाडु की एक रैली के दौरान हत्या कर दी गई थी और चुनाव दो रुझान में बंट गया था. पहला रुझान था राजीव गांधी की हत्या से पहले और दूसरा था राजीव गांधी की हत्या के बाद.
चुनाव के बीच राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी के कुछ नेता सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन उस समय के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और NCP प्रमुख शरद पवार और सीताराम केसरी ने इसका विरोध किया और इस विरोध के बाद सोनिया गांधी ने भी पार्टी अध्यक्ष बनने से इनकार कर दिया, लेकिन पार्टी अध्यक्ष कौन बनेगा, ये फैसला सोनिया गांधी ने अपने पास ही रखा.
उस समय राजीव गांधी के कैबिनेट सचिव पी सी एलेक्जेंडर और इंदिरा गांधी की सरकार में कैबिनेट सचिव रहे पी.एन हक्सर ने सोनिया गांधी को सुझाव दिया कि वो शंकर दयाल शर्मा को पार्टी अध्यक्ष बना दें और आगे का चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाए.
राजनीतिक विश्लेषक, पत्रकार और लेखक विनय सीतापति अपनी पुस्तक हाफ लायन में लिखते हैं कि शंकर दयाल शर्मा ने अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से इस प्रस्ताव को नहीं माना और कहा कि पार्टी उन्हें राष्ट्रपति बनाने पर विचार कर सकती है.
शंकर दयाल शर्मा के इनकार करने के बाद और लोक सभा चुनाव के दौरान ही नरसिम्हा राव का नाम सामने आया और इसके पीछे वजह ये थी कि नरसिम्हा राव का व्यक्तित्व विनम्र था और जातिगत राजनीति के मामले में उनके पास अपना कोई कैडर नहीं था. सबसे अहम 1990 में उनकी हार्ट सर्जरी हुई थी, जिसकी वजह से सोनिया गांधी के आसपास रहने वाले नेताओं को लगता था कि नरसिम्हा राव ज्यादा दिन तक प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे और सोनिया गांधी भी इस दौरान खुद को इस पद के लिए तैयार कर लेंगी. इस बात का जिक्र इस पुस्तक में मिलता है.
नरसिम्हा राव इस तरह से पहले कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए और इसके बाद वो देश के 9वें प्रधानमंत्री बने और इसीलिए उन्हें भारत का पहला एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर कहा जाता है.
वैसे तो पीवी नरसिम्हा राव ने अपने राजनीतिक जीवन में कई उपलब्धियां हासिल कीं, लेकिन प्रधानमंत्री रहते हुए उनकी पांच बड़ी उपलब्धियां थीं.
पहली उपलब्धि थी- नेहरू गांधी खानदान से न होते हुए भी पी.वी. नरसिम्हा राव ने पूरे पांच वर्षों तक पहली बार अल्पमत की सरकार चलाई. 1991 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को 244 सीटें मिली थीं और बहुमत से लगभग 30 सीटें पार्टी से पास कम थीं. ऐसे में उस समय की बिहार की झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी और निर्दलीय सांसदों ने कांग्रेस को समर्थन दिया और पी.वी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री चुने गए और अल्पमत की सरकार 5 वर्ष तक चलाई.
दूसरी उपलब्धि थी, आर्थिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी बदलाव लाना. जब पी.वी. नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब भारत के पास दो हफ्ते के आयात के लिए ही विदेशी मुद्रा बची थी और पूर्व राजीव गांधी सरकार में दूसरे देशों से लिए गए लोन का भी भुगतान करना था. उस समय भारत ने International Monetary Fund यानी IMF से और लोन मांगा, लेकिन IMF ने कड़े आर्थिक सुधारों के बिना लोन नहीं देने का फैसला किया.
इसके बाद कई ऐतिहासिक कदम उठाए गए.
1966 के बाद पहली बार 1991 में रुपये का अवमूल्य किया गया. यानी विदेशी मुद्रा की तुलना में अपने देश की मुद्रा को सस्ता कर दिया गया.
जुलाई 1991 में नरसिम्हा राव ने नई औद्योगिक नीति भी देश की संसद में पेश की और इस नीति को स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बड़े आर्थिक सुधारों में से एक माना गया और इसके तहत नेहरू और इंदिरा गांधी की नीतियों को पलटा गया. जैसे- खाद पर सब्सिडी को 40 प्रतिशत कम कर दिया, LPG सिलिंडर्स महंगे हो गए और 34 उद्योगों में Foreign Direct Investment 51 प्रतिशत कर दिया गया और ये बहुत बड़ा कदम था.
यही वो दौर था जब भारत में पहली बार हवाई यात्रा, टेलीविजन इंडस्ट्री, सॉफ्ट ड्रिंक्स और मोबाइल फोन इंडस्ट्री में प्राइवेट कंपनियों की एंट्री हुई और इसी का नतीजा था कि वर्ष 1992 में Zee ने अपने पहले शो का प्रसारण टेलीविजन पर किया. ये भारत का पहला प्राइवेट चैनल था.
तीसरी उपलब्धि थी एक ब्यूरोक्रेट को मंत्री बनाने की परम्परा शुरू करना. नरसिम्हा राव जब प्रधानमंत्री बने थे, तो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को उम्मीद थी कि उन्हें ही उनकी सरकार में वित्त मंत्री बनाया जाएगा, लेकिन नरसिम्हा राव ने इसके लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह को चुना, जो उस समय यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन के चेयरमैन थे और आरबीआई के गवर्नर भी रह चुके थे.
चौथी उपलब्धि थी विदेश नीति में बड़े बदलाव वर्ष 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद नरसिम्हा राव ने भारत के पश्चिमी देशों के साथ रिश्तों को नई ऊंचाइयां दीं. उदाहरण के लिए अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते मजबूत हुए और इजरायल के साथ भारत ने पहली बार राजनयिक रिश्ते स्थापित किए.
ये कदम नरसिम्हा राव की दूरदर्शी सोच का परिणाम था क्योंकि, इससे 1999 के कारगिल युद्ध में भारत को इजरायल की काफी मदद मिली. इजरायल ने तब भारत को Laser Guided Missile, आधुनिक हथियार और इंटेलिजेंस सपोर्ट दिया था.
और पांचवीं उपलब्धि थी प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को बनाए रखना. कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री होते हुए नरसिम्हा राव ने कभी भी 10 जनपथ पर सिर नहीं झुकाया.