DNA ANALYSIS: कोरोना से बड़ा है 'लालच का वायरस'?
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DNA ANALYSIS: कोरोना से बड़ा है 'लालच का वायरस'?

समृद्धि से जुड़ी कुछ बातों को हमारे DNA का हिस्सा बना दिया गया है. हमें बार-बार ये बताया जाता है कि देखो कैसे वो व्यक्ति दुनिया का सबसे अमीर आदमी बन गया है. देखो कैसे कोई कंपनी दुनिया की सबसे ज्यादा मार्केट वैल्यू वाली कंपनी बन गई है. 

DNA ANALYSIS: कोरोना से बड़ा है 'लालच का वायरस'?

नई दिल्ली: आज हम आपसे एक सवाल पूछना चाहते हैं. सवाल ये है कि अगर आपको खुशी या पैसे में से किसी एक चीज को चुनने का विकल्प दिया जाए. तो आप किसे चुनेंगे? आज हमारे इस सवाल का आधार वो नई रिपोर्ट है जो कहती है कि जरूरत से ज्यादा समृद्धि कोरोना वायरस से भी बड़ा खतरा बन गई है. आपने गौर किया होगा कि कुछ चीजें आपको बार-बार बताई जाती हैं. जैसे किसी भी देश की समृद्धि की पहचान उस देश की GDP की विकास दर से होती है. उस देश की अर्थव्यस्था को देखकर ये समझा जाता है कि वहां रहने वाले लोग कितने संपन्न हैं. बच्चा-बच्चा भी अब GDP की विकास दर को समझता है और उसी में अपना भविष्य देखता है. 

समृद्धि से जुड़ी कुछ बातों को हमारे DNA का हिस्सा बना दिया गया है. हमें बार-बार ये बताया जाता है कि देखो कैसे वो व्यक्ति दुनिया का सबसे अमीर आदमी बन गया है. देखो कैसे कोई कंपनी दुनिया की सबसे ज्यादा मार्केट वैल्यू वाली कंपनी बन गई है. लेकिन आज हम ये समझने की कोशिश करेंगे कि सबसे ज्यादा वैल्यू किसे दी जानी चाहिए. उस व्यक्ति को जिसके पास अथाह दौलत है, पैसा है या उस व्यक्ति को जिसके पास असीम शांति और आनंद है. और कहीं GDP को समृद्धि का पैमाना मानते हमने ग्रॉस डोमेस्टिक पीस (Gross Domestic Peace) यानी शांति का तिरस्कार तो नहीं कर दिया है?

ज्यादातर लोग जीवन भर संघर्ष ही इसलिए करते हैं ताकि वो समृद्ध बन सकें और वो और उनका परिवार आरामदायक जीवन बिता सके. लेकिन अगर हम आपसे कहें कि ये समृद्धि ही दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गई है तो शायद आपको यकीन नहीं होगा और हो सकता है कि आप में से कुछ लोग ये बात सुनकर नाराज भी हो जाएं. 

कोरोना नहीं बल्कि ये है सबसे बड़ा खतरा
लेकिन ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और स्विटजरलैंड के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई एक नई रिपोर्ट का दावा है कि दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा कोरोना वायरस नहीं बल्कि समृद्धि है. इन वैज्ञानिकों का दावा है कि कुछ इंसान जरूरत से ज्यादा चीजों का संचय कर रहे हैं और यही आदत प्रकृति के लिए खतरा बन गई है. इन वैज्ञानिकों का मानना है कि इंसान संसाधनों का जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं और इंसानों का यही लालच प्रदूषण, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्राकृतिक आपदाओं, पानी के संकट और बिगड़ते मौसम के लिए जिम्मेदार है. 

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले 10 वर्षों में इंसानों को सबसे ज्यादा खतरा परमाणु हथियारों से नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन से होगा. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने अगले 10 वर्षों के लिए 10 खतरों की जो सूची तैयार की है उसमें परमाणु बम जैसे हथियार दूसरे नंबर पर हैं और जलवायु परिवर्तन पहले नंबर पर है. इन खतरों की सूची में टॉप 5 खतरे पर्यावरण से जुड़े हैं. जिनकी जड़ में इंसानों का लालच है.

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आने वाले खतरों को लेकर वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने एक सर्वे भी किया है. जिसमें उन खतरों की एक सूची तैयार की गई है. जिनका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा और जिनकी वजह से लोगों के जीवन जीने का तरीका बदल जाएगा. इस सर्वे में 89 प्रतिशत लोगों ने माना कि जरूरत से ज्यादा गर्मी आने वाले समय की सबसे बड़ी समस्या होगी. 88 प्रतिशत लोगों ने माना कि सबसे ज्यादा खतरा प्रकृति के ईको सिस्टम के बिगड़ने से होगा. 87 प्रतिशत ने प्रदूषण को और 86 प्रतिशत ने जल संकट को सबसे बड़ा खतरा माना है. जबकि 79 प्रतिशत लोगों का मानना है कि जंगलों में आग लगने की घटनाएं सबसे बड़ा खतरा होंगी.

इन सारी परिस्थितियों की जड़ में सिर्फ एक ही चीज है और वो है इंसानों का लालच और जरूरत से ज्यादा समृद्धि की चाहत और इसी चाहत ने हमें आज कोरोना वायरस जैसी महामारियां दी हैं.

कोरोना वायरस ने ये बता दिया है कि दुनिया का कोई भी इंसान चाहे वो कितना भी धनवान क्यों ना हो, शक्तिशाली क्यों ना हो, किसी भी धर्म या जाति का क्यों ना हो, इस वायरस के लिए सब बराबर हैं. यानी एक वायरस दुनिया के 750 करोड़ लोगों को एक ही दृष्टि से देखता है. लेकिन हम इंसानों को ये नहीं भूलना चाहिए कि ये वायरस भी प्रकृति के दोहन, उसके साथ छेड़छाड़ और आजादी के नाम पर कुछ भी करने की जिद का परिणाम है. और इसने दुनिया के हर इंसान और हर देश को एक जैसा सबक दिया है. लेकिन संकट अभी खत्म नहीं हुआ है और वैज्ञानिक मानते हैं कि ये तो आने वाले और भी बड़े संकटों की सिर्फ शुरुआत है.

लंबे समय तक जारी रहेगी आर्थिक मंदी 
दुनिया भर के रिस्क मैनेजर्स यानी ऐसे लोग जो आने वाले खतरों का आंकलन करते हैं. उनके बीच किए गए एक सर्वे में 67 प्रतिशत रिस्क मैनेजर्स ने माना कि इस महामारी की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान दुनिया की अर्थव्यवस्था को होगा और रिसेशन यानी आर्थिक मंदी लंबे समय तक बनी रहेगी.

57 प्रतिशत का मानना था कि इससे उद्योग धंधे बड़े पैमाने पर बंद हो जाएंगे या दीवालिया हो जाएंगे. 49 प्रतिशत रिस्क मैनेजर्स का मानना है कि इससे बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा होगी जो लंबे समय तक बनी रहेगी. 38 प्रतिशत के मुताबिक उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त हो सकती हैं और 31 प्रतिशत रिस्क मैनेजर्स के मुताबिक दुनिया को जल्द ही Covid 19 जैसी ही किसी और महामारी का सामना भी करना पड़ सकता है. 

यानी हम GDP की विकास दर को बढ़ाते बढ़ाते समृद्धि तक तो पहुंच गए लेकिन समय के चक्र ने हमें अब उस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है. जहां से हमें ये सोचना है कि हमें सिर्फ ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट चाहिए या ग्रॉस डोमेस्टिक पीस यानी शांति चाहिए.

अलेक्जेंडर द ग्रेट की कहानी
प्रकृति इंसानों के लालच को रोकना जानती है और वो समय-समय पर अपने तरीके से इंसानों को ये संदेश देती है कि ये लालच अस्थाई है और प्रकृति के आगे कोई लालच लंबे समय तक नहीं टिक सकता.

उदाहरण के लिए आज से करीब 2400 वर्ष पहले अलेक्जेंडर द ग्रेट (Alaxander The Great) यानी सिकंदर महान ने इजिप्ट में एक शहर बसाया था. जिसका नाम है अलेक्जेंड्रिया. ये उस जमाने का सबसे समृद्ध शहर था. क्योंकि इसे उस सिकंदर ने बसाया था जो पूरी दुनिया पर कब्जा करना चाहता था. सिकंदर विस्तारवाद के सहारे समृद्ध बनना चाहता था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि तीसरी शताब्दी में आज ही के दिन अलेक्जेंड्रिया में भूकंप के बाद विनाशकारी सुनामी आई और ये शहर पूरी तरह से बर्बाद हो गया.

अब आप सोचिए जिस शहर को सिकंदर ने अपनी सत्ता का केंद्र बनाया और जिस शहर के बारे में सिकंदर को लगता था कि ये उसके जाने के बाद भी ऐसे ही समृद्ध बना रहेगा उसे एक सुनामी बहाकर ले गई. 

ये कहानी हम आपको इसलिए बता रहे हैं क्योंकि आज इंसानों के लालच की सुनामी भी सब कुछ बहाकर ले जाने के लिए तैयार है. और इच्छाओं का बांध इस विनाशकारी सुनामी को रोकने में सक्षम नहीं है.

क्या कहता है सर्वे
इस लालच को आप एक उदाहरण से समझिए. 2017 में किए गए एक सर्वे में हांग कांग के 66 प्रतिशत लोगों ने माना था कि उनके पास जरूरत से ज्यादा सामान है. चीन के 60 प्रतिशत, जर्मनी और इटली के 50-50 प्रतिशत लोगों ने भी जरूरत से ज्यादा सामान रखने की बात कबूल की थी.

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पूर्वी एशिया के लोगों पर किए गए एक सर्वे के दौरान 33 प्रतिशत लोगों ने माना था कि जब वो खरीदारी नहीं करते तो वो उदास और बोर महसूस करते हैं. सर्वे के मुताबिक 33 प्रतिशत लोगों पर खरीदारी की खुमारी सिर्फ एक दिन तक हावी रहती है, जबकि 24 प्रतिशत सिर्फ आधे दिन के लिए खरीदारी को लेकर उत्सुक होते हैं. और सिर्फ 8 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो कुछ पलों के लिए खरीदारी का मन बनाते हैं. लेकिन हैरानी की बात ये है कि इतनी कम देर में ही ज्यादातर लोग ऐसी ढेर सारी चीजें खरीद लेते हैं. जिनकी असल में उनको जरूरत ही नहीं होती.

पैसा कमाना और उसे अपने ऊपर खर्च करना बुरा नहीं है. आप पैसा कमाते ही इसलिए हैं ताकि आप खुश रह सकें लेकिन क्या आप जानते हैं कि जरूरत से ज्यादा उपभोग का पर्यावरण और प्रकृति पर क्या असर होता है. 

प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
अमेरिका के म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के मुताबिक 1970 में दुनिया की जनसंख्या आज के मुकाबले आधी थी. तब पृथ्वी पर 370 करोड़ लोग रहते थे और आज ये संख्या बढ़कर करीब 750 करोड़ हो चुकी है.

ये भी पढ़ें- दुनिया के सबसे अमीर लोग अपना 30 प्रतिशत टैक्स कभी चुकाते ही नहीं!

50 वर्षों की तुलना में इंसानों ने आज पृथ्वी पर ज्यादा जगह घेर ली है. जिस क्षेत्रफल में इंसानों ने अपने रहने के लिए घर बनाए हैं वो 50 वर्ष पहले की तुलना में 2 लाख 20 हजार स्क्वायर किलोमीटर ज्यादा है. जानवरों को चराने की जगह 1970 के मुकाबले 23 लाख स्क्वायर किलोमीटर ज्यादा है और कृषि की जगह भी पहले से 16 लाख स्क्वायर किलोमीटर ज्यादा हो चुकी है. अब आप सोचिए कि इंसानों के पास इतनी जगह कहां से आ रही है? ये जगह जंगलों को काट कर बनाई जा रही है.

अमेरिका में 1950 के दशक में एक घर का आकार औसतन 983 स्कायर फुट था जो 2011 तक तीन गुना बढ़कर 2,480 स्वायर फुट हो गया. यही हाल पश्चिम के बाकी देशों का भी है. जबकि इन देशों की आबादी तेजी से घट रही है.

जानवरों के हिस्से की जमीन हड़पने का नतीजा ये हुआ है कि अब जानवर और इंसान एक दूसरे के ज्यादा करीब रहने लगे हैं. और कोरोना वायरस जैसी महामारियां भी इसी का परिणाम हैं. क्योंकि प्रकृति के नियमों के अनुसार इंसानों और जंगली जानवरों के बीच एक दूरी बहुत जरूरी है.

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में हर साल 130 करोड़ किलोग्राम खाना बर्बाद हो जाता है. जिसकी कीमत 75 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा होती है. पूरी दुनिया में हर साल जो कार्बन उत्सर्जन होता है उसमें फूड प्रोडक्शन की हिस्सेदारी 22 प्रतिशत है. फिर भी दुनिया के करोड़ों लोग हर साल बड़ी मात्रा में खाना बर्बाद कर देते हैं और प्रकृति को नुकसान पहुंचाते हैं. ये हाल तब है जब दुनिया के करीब 190 करोड़ लोग मोटापे का शिकार हैं.

इतना ही नहीं प्रति व्यक्ति मीट प्रोडक्ट्स की खपत भी 65 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है. मीट प्रोडक्ट्स के उत्पादन के दौरान भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है.

प्रति व्यक्ति प्लास्टिक का उपयोग भी 447 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और प्लास्टिक पर्यावरण के लिए सबसे खतरनाक चीजों में से एक मानी जाती है.

अमीर बनाम गरीब
हालांकि ऐसा नहीं हैं कि धनवान बनना या समृद्धि हासिल करना गलत है. लेकिन जब ये लालच की सीमाओं के पार चला जाता है तो समस्या शुरू होती है. दुनिया में जो लोग सबसे अमीर हैं उनकी आबादी में हिस्सेदारी सिर्फ आधा प्रतिशत है. लेकिन इन 4 करोड़ लोगों का जीवन जीने का तरीका 14 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है. जबकि दुनिया के 400 करोड़ लोग ऐसे हैं जो किसी तरह से अपना जीवन यापन करते हैं और कार्बन उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी सिर्फ 10 प्रतिशत है. इसके अलावा प्रकृति को 43 प्रतिशत नुकसान उन 10 प्रतिशत लोगों की लाइफस्टाइल से पहुंचता है. जो कमाई के मामले में सबसे ऊपर हैं.

Oxfam की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 1 प्रतिशत अमीरों के पास जितनी संपत्ति है वो दुनिया के 700 करोड़ लोगों की कुल संपत्ति से भी दोगुनी है. दुनिया की आधी आबादी आज भी सिर्फ औसतन 410 रुपये प्रति दिन ही कमा पाती है. धनवान लोगों पर लगने वाले टैक्स की हिस्सेदारी 1 रुपये में 4 पैसे के बराबर है और दुनिया के सबसे अमीर लोग अपना 30 प्रतिशत टैक्स कभी चुकाते ही नहीं.

हालांकि हाल ही में अमेरिका और ब्रिटेन समेत 6 देशों के करोड़पतियों ने अपनी सरकारों से कहा है कि उनपर और ज्यादा टैक्स लगाया जाए. क्योंकि वो इस दौर में दूसरे लोगों की मदद करना चाहते हैं.

ये उदाहरण हम आपको इसलिए दे रहे हैं ताकि आप समझ सकें कि जिनके पास ज्यादा दौलत है, ज्यादा समृद्धि है, पर्यावरण और प्रकृति का सम्मान करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की ज्यादा है.

लेकिन सवाल ये है कि आज के दौर में आपको असली शांति किस चीज से मिल सकती है? आप चाहे नौकरी करते हों या व्यवसाय करते हों. सारी मेहनत का उद्देश्य यही होता है कि आप ज्यादा पैसा कमा सकें और आप ज्यादा शांति और सुकून के साथ जीवन बिता सकें. लेकिन क्या यही काफी है?

कुछ देर पहले हमने आपसे प्राचीन ग्रीस के आक्रमणकारी और विस्तारवादी राजा अलेक्जेंडर का जिक्र किया था जिसने अलेक्जेंड्रिया नाम का भव्य शहर बसा या था. अलेक्जेंडर जब भारत पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ रहा था. तब उसकी मुलाकात ग्रीस के महान दार्शनिक और संत डायोजीनस (Diogenes) से हुई. अलेक्जेंडर डायोजीनस से बहुत प्रभावित था. इसलिए वो डायोजीनस से मिलने गया और उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा. उस समय डायोजीनस धूप सेक रहे थे और अलेक्जेंडर उनके सामने आकर खड़ा हो गया. इस दौरान अलेक्जेंडर ने डायोजीनस से कहा कि आप मेरे साथ चलो और आपको जो भी चाहिए वो मैं दूंगा. इस पर डायोजीनस ने अलेक्जेंडर से कहा कि आप सिर्फ इतना करें कि आप सामने से हट जाएं. क्योंकि आप मेरी धूप रोककर खड़े हैं और फिलहाल मुझे धूप के सिवाय कुछ नहीं चाहिए.

इसके बाद अलेक्जेंडर वहां से निराश होकर चला गया. ये कहानी हमें बताती है कि जीवन की छोटी-छोटी खुशियां बहुमूल्य होती हैं और उन्हें हमसे कोई नहीं छीन सकता.

आज पैसा नहीं बल्कि खुशियां महत्वपूर्ण हैं
ये सारी बातें सुनकर आप समझ गए होंगे कि आज के दौर की करेंसी सिर्फ पैसा नहीं है. बल्कि आपकी खुशी, आपकी शांति भी नए जमाने की करेंसी है और इनमें से सबसे ज्यादा महत्व जिस करेंसी का है. वो है आपका स्वास्थ्य. क्योंकि आज के समय में जिसके पास स्वास्थ्य है वो सबसे ज्यादा समृद्ध है. हेल्थ इज वेल्थ जैसी बातें पहले सिर्फ किताबों में लिखी जाती थीं. लेकिन आज यही असली वेल्थ बन गई है.

सफलता और खुशियां एक साथ कैसे पाएं? 
अब सवाल ये है कि आप सफलता के रास्ते पर चलते हुए और धन दौलत कमाते हुए भी कैसे खुश रह सकते हैं और प्रकृति का विरोध करने की बजाय उसका सहयोग कर सकते हैं. इसका जवाब जिस शब्द में छिपा है वो है Minimal-ism.

इसका अर्थ होता है बहुत कम चीजों के साथ जीवन जीना. यानी न्यूनतम सुख सुविधाओं वाला जीवन. लेकिन आप सोच रहे होंगे कि क्या भारत के संदर्भ में भी Minimal-ism की धारणा फिट बैठती है? क्योंकि आपको अपने आसपास शायद ज्यादा ऐसे लोग दिखाई नहीं देते होंगे जो कम सुविधाओं के साथ भी खुश हैं. भारत में लगभग हर व्यक्ति सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए. ज्यादा से ज्यादा सुख, सुविधाएं हासिल करना चाहता है. और ज्यादा से ज्यादा वस्तुएं इकट्ठी करना चाहता है. वैसे ये विडंबना है कि जिस Minimalism यानी अपरिग्रह को लेकर दुनिया आज इतनी उत्साहित है वो भारत की ही देन है और हमारे धर्म ग्रंथ कई हजार वर्षों से इस मार्ग पर चलने का संदेश दे रहे हैं. भगवान बुद्ध और महावीर के सबसे महत्वपूर्ण संदेशों में से एक अपरिग्रह भी है. यानी उतनी ही चीजों का संग्रह करना जितने की आपको जरूरत है.

अच्छी बात ये है कि अब नई पीढ़ी में से कई लोग धीरे-धीरे इसकी तरफ बढ़ रहे हैं और पैसे से ज्यादा सुख, शांति और नए-नए अनुभवों को प्राथमिकता दे रहे हैं.

नई पीढ़ी की क्या हैं जिम्मेदारियां
अमेरिका में हुए हैरिस पोल नामक सर्वे के मुताबिक पिछली पीढ़ी के मुकाबले 58 प्रतिशत मिलेनियल्स मानते हैं कि वो वस्तुओं से ज्यादा किसी अनुभव पर पैसा खर्च करना पसंद करेंगे. मिलेनियल्स उन्हें कहा जाता है जिनका जन्म 1984 या उसके बाद हुआ है. लेकिन इसका मतलब ये है नहीं है कि नई पीढ़ी पैसे खर्च नहीं कर रही है. विशेषज्ञों के मुताबिक मिलेनियल्स फिलहाल हर साल 14 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं और अपने पूरे जीवन काल में ये लोग 700 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करेंगे. भारत की लगभग 65 प्रतिशत आबादी मिलेनियल्स की श्रेणी में आती है. यानी इस आबादी का ज्यादातर हिस्सा 35 वर्ष से कम का है और अगर इस आबादी को ये बात समझ आ जाती है कि संसाधनों की मात्रा सीमित है. और इनका इस्तेमाल संभलकर करना चाहिए तो फिर भारत का भविष्य बहुत उज्जवल हो सकता है.

लेकिन मौजूदा पीढ़ी के साथ एक समस्या भी है कि इस पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को छोटी-छोटी बातें परेशान करती हैं और इन्हें लगता है कि इन्हें कोरोना वायरस जैसे संकट का सामना क्यों करना पड़ रहा है, लॉकडाउन में क्यों रहना पड़ रहा है और मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे नियमों का पालन इनसे क्यों कराया जा रहा है. ऐसे में अगर ये पीढ़ी चाहे तो अपनी पिछली और उससे भी पहले की पीढ़ियों से बहुत कुछ सीख सकती है.

जो लोग वर्ष 1900 में पैदा हुए होंगे उन्होंने 11 वर्ष की उम्र में हैजा जैसी महामारी का सामना किया होगा. 14 वर्ष की उम्र में फर्स्ट वर्ल्ड वॉर को होते हुए देखा होगा. जिसमें करीब 2 करोड़ 20 लाख लोग मारे गए थे. 18 वर्ष का होते होते इन लोगों ने आज ही की तरह एक महामारी का सामना किया होगा जिसका नाम था स्पेनिश फ्लू. इस महामारी से करीब 5 करोड़ लोग मारे गए थे. 29 वर्ष का होने पर इन लोगों ने अब तक की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी का सामना किया होगा जिसकी शुरुआत 1929 में हुई थी और ये कई वर्षों तक चली थी. तब भी आज की तरह महंगाई और बेरोजगारी बढ़ गई थी. जब ये पीढी 40 साल की थी तो दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया जो इनके 45 वर्ष का होने तक जारी रहा और इसमें 6 करोड़ लोग मारे गए. इसी दौरान बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था और इसमें भी लाखों लोग मारे गए थे. उस समय भारत में ये पीढ़ी आजादी के लिए भी संघर्ष कर रही थी. जब ये लोग 47 वर्ष के हुए होंगे तो इन्होंने देश का बंटवारा देखा और 65 वर्ष का होने पर भारत और पाकिस्तान के युद्ध के गवाह बने होंगे. 71 का होने पर इन्होंने एक बार फिर भारत और पाकिस्तान का युद्ध देखा होगा. लेकिन आज 1985 में पैदा हुए एक युवा को लगता है कि उनके घर के बड़े बुजुर्गों को ये समझ नहीं आता कि जीवन कितना मुश्किल भरा है. लेकिन पिछली पीढ़ी ने कई युद्ध, कई संकट और कई महामारियां झेली है और उसका मुकाबला किया है. आज इस महामारी के बावजूद हमारे पास सारी सुख सुविधाएं हैं, लॉकडाउन के दौरान घर में रहने के लिए सारे संसाधन हैं. लेकिन फिर भी कई युवाओं को लगता है कि उन्हें कैद करके रख लिया गया है. इसलिए हमें समझना होगा कि हमारे बुजुर्गों ने इतिहास को बदलते हुए बहुत करीब से देखा है, और हर सौ साल में आने वाली महामारियां भी हमें बार बार यही सिखाती हैं कि हमें इतिहास से सबक लेकर आगे बढ़ना चाहिए. 

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