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Jallianwala Bagh Massacre 103rd Anniversary: 13 अप्रैल बुधवार को जलियांवाला बाग हत्याकांड की बरसी थी. हम आपको बताएंगे कि 1919 में हुआ ये हत्याकांड कैसे स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए एक बहुत बड़ा Flash Point साबित हुआ. इस नरसंहार ने भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रान्तिकारियों को पैदा किया. लेकिन इस नरसंहार पर कांग्रेस और महात्मा गांधी का रवैया बहुत ही उदासीन था. इस विश्लेषण पर नजर डालने के बाद आपके मन मे ये सवाल जरूर आएगा कि हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन में लाला लाजपत राय को छोड़ कर कांग्रेस का एक भी बड़ा नेता शहीद क्यों नहीं हुआ?
ये नरसंहार 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन हुआ था. उस वक्त जलियांवाला बाग में हजारों लोग इकट्ठा थे और ये लोग स्वतंत्रता सेनानी सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी और रॉलेट एक्ट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. रॉलेट एक्ट भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा किसी भी राष्ट्रीय आंदोलन को खत्म करने के लिए बनाया गया एक कानून था. जिसके तहत ब्रिटिश सरकार बिना किसी मुकदमे के क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर सकती थी. इस कानून के विरोध में जलियांवाला बाग में एक बड़ी रैली का आयोजन किया गया था. ब्रिटिश सरकार उसके खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबा देना चाहती थी. इसलिए उस दिन Brigadier General के पद पर तैनात Reginald Dyer ने जलियांवाला बाग में आए निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग का आदेश दे दिया, जिसके बाद ब्रिटिश सैनिकों ने 10 मिनट की फायरिंग के दौरान करीब 1,650 गोलियां चलाईं. इस अंधाधुंध फायरिंग में 379 लोग मारे गए. हालांकि गैर आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस घटना में 1 हजार से ज्यादा लोगों की जान गई थी. लेकिन जिस बात पर आज आपको सबसे ज्यादा गुस्सा आएगा, वो ये कि इस नरसंहार के बावजूद जनरल डायर को ब्रिटेन में एक नायक का दर्जा दिया गया और भारत में भी उसे कोई कड़ी सजा नहीं हुई. जनरल डायर के प्रति दिखाई गई इस नरमी ने भारत के लोगों को गुस्से से भर दिया. आप कह सकते हैं कि उस समय देश में अंग्रेजों और कांग्रेस के खिलाफ गुस्से की लहर चल रही थी.
भारत के लोगों में इस बात का गुस्सा सबसे ज्यादा था कि इस हत्याकांड के बाद कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता ब्रिटिश सरकार को लेकर नरमी दिखा रहे थे. खुद महात्मा गांधी ने भी उस समय तत्काल अमृतसर जाकर पीड़ित परिवारों से मिलने की कोशिश नहीं की थी. इसके पीछे दलील ये दी जाती है कि तब महात्मा गांधी को पंजाब आने से रोकने के लिए अंग्रेजी सरकार ने एक आदेश जारी किया था, जिसमें ये कहा गया था कि अगर महात्मा गांधी पंजाब में प्रवेश करते हैं तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा. इस आदेश की वजह से महात्मा गांधी 6 महीनों तक पंजाब नहीं गए.
यहां समझने वाली बात ये है कि महात्मा गांधी ने अपने पूरे जीवनकाल में कभी अंग्रेजी सरकार के ऐसे आदेशों का पालन नहीं किया. जब उन्होंने नमक कानून तोड़ा, तब भी उनके खिलाफ देश में ऐसे ही आदेश जारी हुए थे. लेकिन उन्होंने अपने आन्दोलन को समाप्त नहीं किया, जिसके लिए उनकी गिरफ्तारी भी हुई. लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड के समय उन्होंने अंग्रेजी सरकार के आदेश को आसानी से मान लिया. एक और बात.. उस समय जब भारत के लोगों में जनरल डायर के प्रति काफी रोष था, उस समय महात्मा गांधी ने कहा था कि वो जनरल डायर को माफ कर चुके हैं.
25 अगस्त 1920 को महात्मा गांधी ने अपने एक बयान में कहा था कि ये अपराध होगा कि मैं निर्दोष लोगों की हत्या करने वाले जनरल डायर का सहयोग करुं. लेकिन अगर वो बीमार हैं तो उनकी सेवा करना प्रेम का कार्य होगा और हमें उन्हें माफ कर देना चाहिए. गांधी ऐसा इसलिए कह रहे थे कि क्योंकि इस हत्याकांड के बाद जनरल डायर गम्भीर रूप से बीमार हो गए थे. वर्ष 1927 में लकवे और दूसरी गम्भीर बीमारियों की वजह से उनकी मौत हो गई थी. लेकिन यहां बड़ा Point ये है कि, महात्मा गांधी ने जनरल डायर के प्रति ये नरमी तब दिखाई, जब जनरल डायर को ब्रिटेन के लोगों का खूब समर्थन मिल रहा था. जनरल डायर को उनकी सेवा पूरी होने से दो साल पहले ही रिटायर कर दिया गया था. जिसके बाद ब्रिटेन के लोगों ने उनकी मदद करने के लिए 26 हज़ार Pound यानी आज के हिसाब से लगभग 26 लाख रुपये का चंदा इकट्ठा किया था. लेकिन.. हमारे देश में महात्मा गांधी और कांग्रेस के बाकी बड़े नेता सैकड़ों लोगों की हत्या के बाद भी जनरल डायर से सहानुभूति जता रहे थे.
इसके अलावा महात्मा गांधी के कहने पर ही Congress Inquiry Committee ने जनरल डायर के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की मांग को वापस लिया था. खुद महात्मा गांधी ने इसका जिक्र जनरल डायर की मृत्यु के 11 साल बाद 1 नवम्बर 1938 को किया था. उन्होंने कहा था कि जनरल डायर के प्रति उनके मन में कोई नफरत नहीं है. कड़वा सच ये है कि.. उस समय भी कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता Designer Protestors की भूमिका में थे, जो अखबारों और पत्रिकारों में लम्बे लम्बे लेख लिखते थे और सांकेतिक हड़ताल किया करते थे. लेकिन आजादी के लिए उन्होंने कभी अपने प्राणों की कुर्बानी नहीं दी. स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में कांग्रेस के एक ही बड़े नेता ऐसे थे, जो आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हुए. ये नेता थे लाला लाजपत राय. लाला लाजपत राय को कांग्रेस के गरम दल का नेता माना जाता था. लेकिन उनके अलावा उस समय के कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता ने स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी शहादत नहीं दी. महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरु, जवाहर लाल नेहरु, अबुल कलाम आज़ाद, सरोजनी नायडू और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद समेत तमाम बड़े नेता स्वतंत्रता आन्दोलन का तो हिस्सा रहे लेकिन इन नेताओं ने देश की आज़ादी के लिए शहादत नहीं दी. जो क्रान्तिकारी भारत के लिए शहीद हुए, उनका असल में कांग्रेस से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि इतिहास की किताबों में अक्सर यही पढ़ाया जाता है कि देश को आज़ादी कांग्रेस के इन्हीं बड़े नेताओं ने दिलाई थी.
वर्ष 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ, उस समय देश में काफ़ी गुस्सा था. इस गुस्से ने देश को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, राम प्रसाद 'बिस्मिल' और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे कई बड़े क्रान्तिकारी दिए. ये वो लोग थे, जो अहिंसक आन्दोलन करने के बजाय अंग्रेज़ों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना चाहते थे. यानी ये गोली के बदले गोली और बम के बदले बम से जवाब देने वाले क्रान्तिकारी थे. 13 अप्रैल 1919 को जब ये हत्याकांड हुआ.. तब शहीद भगत सिंह की उम्र सिर्फ़ 12 साल थी. और तब वो अपना स्कूल छोड़ कर जलियांवाला बाग पहुंच गए थे.. यहां से वो कुछ मिट्टी उठा कर अपने घर ले गए थे.. जिसमें मारे गए लोगों का ख़ून था. कहा जाता है कि इस मिट्टी को वो अपनी जेब में रखते थे ताकि अंग्रेज़ी सरकार के प्रति उनका क्रोध कभी शांत नहीं हो. यानी इस नरसंहार ने ही भगत सिंह को क्रान्तिकारी भगत सिंह बनाया.
भगत सिंह की तरह चंद्रशेखर आज़ाद भी इस हत्याकांड के समय सिर्फ़ 12 साल के थे. सोचिए, 12 साल.. कितनी छोटी उम्र होती है. लेकिन इस उम्र में जलियांवाला बाग की घटना ने उनके दिल और दिमाग़ पर इस कदर प्रभाव डाला कि 12 साल के आज़ाद भारत को आज़ाद कराने के लिए स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ गए. और उन्होंने वर्ष 1920 में हुए असहयोग आन्दोलन में भी हिस्सा लिया और इस दौरान उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया था. क्रान्तिकारी सुखदेव थापर भी जलियांवाला बाग की घटना के समय सिर्फ़ 12 साल के थे और शिवराम हरि राजगुरु की उम्र तो सिर्फ़ 10 साल थी. लेकिन इतनी कम उम्र में ही ये लोग क्रान्तिकारी बन गए और बाद में उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहूति दी.
जब कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता और महात्मा गांधी जनरल डायर को माफ कर चुके थे, तब शहीद उधम सिंह ने 13 मार्च 1940 की शाम को London में माइकल-ओ-डायर की हत्या करके जलियांवाला बाग का बदला लिया था. माइकल-ओ-डायर इस हत्याकांड के दौरान पंजाब के गवर्नर थे और उन्होंने जनरल डायर का उनकी क्रूरता के लिए समर्थन भी किया था. वर्ष 1943 से 1945 के बीच आजाद हिंद फौज के 26 हजार सैनिक शहीद हुए थे. ये सैनिक कांग्रेस के कार्यकर्ता नहीं थे. बल्कि ये देश के असली क्रान्तिकारी थे, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपना असली लीडर मानते थे. लेकिन आज़ादी के बाद हमारे देश के इतिहास को इस तरह से पेश किया गया, जैसे इस देश को आज़ादी कांग्रेस ने ही दिलाई है.
हालांकि आज लोगों में जागरुकता बढ़ी है और अब अमृतसर के जलियांवाला बाग Memorial में पहले की तुलना में ढाई गुना अधिक लोग शहीदों का स्मरण करने के लिए पहुंच रहे हैं. इसके अलावा वहां स्थित शहीदी कुंए के चढ़ावे में भी पहले के मुकाबले एक हज़ार गुना की वृद्धि हुई है. वर्ष 2019 में इस राष्ट्रीय स्मारक का पुननिर्माण हुआ था, जिस पर 20 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. आजादी के बाद जब भारत में पहली सरकार बनी तो जवाहर लाल नेहरु प्रधानमंत्री बन गए और कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं ने भी मंत्री पद ले लिए. इसके बाद वो वर्षों तक इन पदों पर बने रहे. जवाहर लाल नेहरु का परिवार तो अब तक शासन चल रहा है और कांग्रेस पार्टी पर उनका एकछत्र राज है. बाकी के भी जो बड़े-बड़े थे, वो या तो मंत्री बन गए, या राष्ट्रपति बन गए और बड़े-बड़े पदों पर उन्हें बैठा दिया गया. लेकिन हमारे देश के जो असली क्रान्तिकारी थे..जैसे भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु चंद्रशेखर आज़ाद और राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी जान की जो कुर्बानी दी, आजाद भारत ने उन्हें क्या दिया. इतिहास की किताबों में एक चैप्टर के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला. ये फर्क होता है असली क्रान्तिकारी होने में और डिजायनर क्रान्तिकारी होने में.
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