पहाड़ों के महायोद्धा, माइनस तापमान के महारथी; जानें डोगरा रेजिमेंट की कहानी
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पहाड़ों के महायोद्धा, माइनस तापमान के महारथी; जानें डोगरा रेजिमेंट की कहानी

आज आप उस डोगरा रेजिमेंट की कहानी पढ़ रहे हैं जिसका हौसला हिमालय से ऊंचा है, जिसके इरादे चट्टानों से भी मजबूत हैं. वर्दी जिसकी शान ही नहीं पहचान भी है. 

पहाड़ों के महायोद्धा, माइनस तापमान के महारथी; जानें डोगरा रेजिमेंट की कहानी

नई दिल्ल्ली:  जिसकी हर गोली पर दुश्मन का नाम लिखा है, जिसकी वर्दी, जिसका ध्वज विशेष है. जिसके पास ज्वाला माता की शक्ति है, और जिसका इतिहास वीरता से भरा है. ये कहानी 162 साल पुरानी रेजिमेंट डोगरा की है. इस रेजिमेंट का युद्धघोष ज्वाला माता की जय है. इनकी वर्दी खास है. आज आपकी मुलाकात भारतीय सेना के 'हिमालय पुत्र' से होने जा रही है. आज आप उस डोगरा रेजिमेंट की कहानी पढ़ रहे हैं जिसका हौसला हिमालय से ऊंचा है, जिसके इरादे चट्टानों से भी मजबूत हैं. वर्दी जिसकी शान ही नहीं पहचान भी है.  

भारत के उत्तर में बसे लोगों ने सदियों तक हर विदेशी हमले को झेला है, उसका सामना किया है और अजेय रहे हैं. पहाड़ों के कठिन जीवन ने यहां के लोगों को हर मुसीबत को हंसते-हंसते झेलना और भगवान पर अटूट भरोसा रखना सिखाया है. शारीरिक-मानसिक रूप से मजबूत लेकिन विनम्र और शिष्ट डोगरा जवानों को ईस्ट इंडिया कंपनी के कमांडर इन चीफ सर फ्रेडरिक ने आगरा लेवी के नाम से 1858 में भारतीय सेना में भर्ती करना शुरू किया. बाद में आगरा लेवी का नाम 38 डोगरा किया गया. 1887 में 37 डोगरा और 1900 में 41 डोगरा का गठन किया गया. इन तीनों रेजिमेंट्स से डोगरा रेजिमेंट्स की नींव पड़ी. 

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ज्वाला माता की जय है डोगरा रेजीमेंट का युद्धघोष
डोगरा रेजिमेंट के इतिहास की झलक यहां फैजाबाद में डोगरा रेजिमेंट्स सेंटर में हर जगह मिलती है. यहां परेड ग्राउंड के पीछे उन तीनों राज्यों का नाम लिखा है जहां से इस रेजिमेंट के जवान भर्ती होते हैं. जम्मू और हिमाचल के पहाड़ी इलाक़ों के अलावा उत्तरी पंजाब के पहाड़ी इलाकों के डोगरा जवानों को इस रेजीमेंट में जगह मिलती है. ये जवान मुख्यरूप से सतलुज और झेलम के बीच की हिमालय की पहाड़ी इलाकों से आते हैं. इनका युद्धघोष है ज्वाला माता की जय जिससे भी इनकी संस्कृति की झलक मिलती है. सभी डोगरा हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के ज्वालामुखी मंदिर में अटूट श्रद्धा रखते हैं जिसे आदिशक्ति माना जाता है. इन्हें जेंटलैन वारियर्स कहा जाता है.

हिमाचल के राजघरानों की फौज के झंडे आज भी डोगरा रेजिमेंट के हिस्से
डोगरा रेजीमेंट के ध्वज पर अंग्रेजी राज के दौरान ब्रिटिश हुकूमत का ताज होता था. भारत के आजाद होने के बाद भारतीय सेना का पुनर्गठन हुआ और डोगरा रेजिमेंट भारतीय सेना का हिस्सा बन गई. इसमें कुछ नए हिस्से भी शामिल किए गए. ब्रिटिश सेना की डोगरा पल्टनों के अलावा हिमाचल प्रदेश के मंडी, सुकेत, सिरमौर और चंबा के राजाओं की सेनाओं को डोगरा रेजीमेंट में मिला दिया गया. उस दौरान डोगरा रेजीमेंट के ध्वज पर कौन सा चिन्ह होगा? इस बात पर लंबा विवाद और रिसर्च हुआ. अंत में दो चिन्हों के बीच मुक़ाबला हुआ. पहला कांगड़ा का किला जिसे भारत के सबसे पुराने किलों में से एक माना जाता है. इस किले को जीतने के लिए अकबर को भी दो पीढ़ी तक कोशिश करनी पड़ी थी और ये आज भी डोगरा राजवंश का गौरव है. दूसरा था मलाया का बाघ, जो दूसरे विश्वयुद्ध में बर्मा के मोर्चे पर डोगरा सैनिकों के शौर्य की याद दिलाता था. सेना में परंपराएं बनी रहती हैं. रेजिमेंट में शामिल हिमाचल के राजघरानों की फौज के झंडे आज भी डोगरा रेजिमेंट के हिस्से हैं. लेकिन डोगरा रेजिमेंट का सैनिक बनने के लिए एक डोगरा नौजवान को बहुत कड़ी मेहनत करनी होती है. 

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दुश्मन की हर हरकत पर चौकस नजर
भारतीय सीमा के सबसे दुर्गम इलाकों में से एक है किन्नौर और लाहौल स्पीति जिलों में, जहां चीन हर समय नजरें गड़ाए रखता है. यहां डोगरा रेजिमेंट की एक स्काउट बटालियन यानी डोगरा स्काउट तैनात है. यहां जवानों का मुकाबला होता है शून्य से 30 डिग्री तक नीचे के तापमान से, त्वचा को झुलसाने वाली सीधी धूप से और तेज हवाओं से. लेकिन सुबह-सुबह सीमा पर गश्त जरूरी है ताकि दुश्मन की कोई हरकत नजर से बच न जाए. इस तापमान पर सुबह चल पाना भी आसान नहीं है, इसलिए यहां आने से पहले इन जवानों को वार्म अप एक्सरसाइज करानी जरूरी है. यहां 12000 से ज्यादा ऊंचाई पर सुबह का तापमान शून्य से 15 डिग्री तक नीचे है. एक्सरसाइज फिट भी रखती है और शरीर को गर्म भी रखती है. ऐसे लंबे रूट मार्च एरिया डोमिनेशन यानि इलाके में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए जरूरी होते हैं. यहां केवल पैदल चलना जरूरी नहीं है, पहाड़ों पर तेज़ी से चढ़कर लड़ने का हुनर जानना भी जरूरी है. इस हुनर के महारथी यहां बहुत हैं और उनकी जिम्मेदारी नए जवानों को पहाड़ों पर चढ़ने का हुनर सिखाना है. ये हुनर लड़ाई में भी काम आता है और माउंटेनियरिंग जैसे रोमांचक अभियानों में भी. 

चीन की सेना से निपटने की तैयारी पक्की, जोश पूरा
यहां तैनात हर जवान जानता है कि अगर चीनी सेना आगे बढ़ी तो पहला मोर्चा उन्हें ही लेना होगा. तैयारी पक्की है और जोश पूरा. अगर दुश्मन आगे बढ़ा तो उसे आग की लकीर पार करनी होगी. यहां आजमाइश होती है, उस ट्रेनिंग की जो इन्होंने अपने सेंटर में की थी और डोगरा अपनी हर परीक्षा में खरे उतरे. 1965 में पाकिस्तान ने ऑपरेशन ज़िब्राल्टर लांच कर कश्मीर को छीनने की एक और कोशिश की. लड़ाई भड़क गई. इस दौरान हाजीपीर दर्रा भारतीय सेना के लिए बड़ी मुसीबत बना हुआ था. 28 अगस्त को भारतीय सेनाओं ने सीजफायर लाइन पारकर हाजीपीर दर्रे पर कब्ज़ा कर लिया. इस पर कब्जे के बाद पाक अधिकृत कश्मीर को दो हिस्सों में बांटने के लिए उत्तर में उरी को दक्षिण में पुंछ को जोड़ने का अभियान शुरू हुआ. ये बहुत मुश्किल लड़ाई थी और इस लड़ाई में 3 डोगरा और 6 डोगरा रेजिमेंट ने जबरदस्त लड़ाई के बाद महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्ज़ा किया. ये 1965 की सबसे बड़ी जीत थी और पूरे देश ने उसका जश्न मनाया था. युद्ध में बाद विदेशी दबाव के कारण ये महत्वपूर्ण ठिकाना पाकिस्तान को वापस करना पड़ा था. 

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हिमाचल प्रदेश को देवभूमि कहते हैं और जम्मू को उत्तर का काशी. स्वाभाविक रूप से यहां से आने वाले डोगरा जवानों में अपने धर्म पर बहुत गहरी आस्था है. यहां उन्हें अपने कर्तव्य के रास्ते पर डटे रहने की प्रेरणा मिलती है. सेना में हर रेजीमेंट में जवानों के धर्म के आधार पर धार्मिक शिक्षकों की नियुक्ति होती है. आपको ये जानकर ताज्जुब होगा कि सबसे आगे के मोर्चे तक भी ये धार्मिक शिक्षक मौजूद रहते हैं और जवानों को हौसला देते हैं. भारतीय सेना की ये पहचान अनोखी है जो दूसरी किसी सेना में देखने में नहीं आती. 

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