उनकी 62 साल थी, जब वे देश के स्वतंत्रता आंदोलन (Freedom Struggle) से जुड़ी. अंग्रेजों ने 72 साल की उम्र में उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया लेकिन उन्होंने मरते दम तक तिरंगे (tricolor) को नहीं गिरने दिया और मुंह से वंदे मातरम निकलता रहा.
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नई दिल्ली: उनकी 62 साल थी, जब वे देश के स्वतंत्रता आंदोलन (Freedom Struggle) से जुड़ी. अंग्रेजों ने 72 साल की उम्र में उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया लेकिन उन्होंने मरते दम तक तिरंगे (tricolor) को नहीं गिरने दिया और मुंह से वंदे मातरम निकलता रहा. किसी भी दृष्टि से उनकी वीरता और साहस रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं है. आजकल की लड़कियां इस महान महिला स्वतंत्रता सेनानी की कहानी सुन लें तो हैरत में पड़ जाएंगी.
बिना तिरंगे के नहीं मिलेगी 'बूढ़ी गांधी' की फोटो
तिरंगे की आन बान शान के लिए जितने लोगों ने भी अपना बलिदान दिया है, उनमें इस बूढ़ी गांधी का नाम सबसे ऊपर रहता है. तभी तो अगर आप गूगल में उनकी तस्वीर ढूंढेंगे तो आपको उनकी अधिकतर तस्वीर में उनके हाथ में तिरंगा दिखेगा. मूल तस्वीर तो शायद मिलेगी ही नहीं, ज्यादातर उनकी मूर्तियों की ही तस्वीरें हैं. आज उनकी जयंती है, ऐसे मौके पर उनके साहस और त्याग की कहानी सुनकर बस ऐसा लगेगा- तेरी मिट्टी में मिल जावां....
बचपन में ही बुजुर्ग से कर दी गई मातंगिनी हाजरा की शादी
वो महिला जिसे जिंदगी के 62 साल तक तो ये भी नहीं पता था कि स्वतंत्रता आंदोलन है क्या? उसकी अपने गांव और घर से बाहर की जिंदगी बड़ी सीमित थी, लेकिन आज उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ के नाम से जाना जाता है. मातंगिनी हाजरा (Matangini Hazra) नाम था उनका, बंगाल के एक गरीब किसान की बेटी थी. बचपन में पिता ने एक साठ साल के वृद्ध से शादी कर दी, जब मातंगिनी 18 साल की हुईं तो पति की मौत हो गई. सौतेले बच्चों ने घर से निकाल दिया. कोई चारा नहीं था तो वो पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के तामलुक में ही एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगीं.
62 साल की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी
ऐसे ही अकेले रहते रहते उनको 44 साल और बीत गए, लोगों के घरों में मेहनत मजदूरी करतीं और उसी से अपना घर चलातीं. अकेली थीं तो धीरे धीरे लोगों से अपने देश की हालत और गुलामी के बारे में जानने लगीं. घर से बाहर निकलीं तो अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार दिखा. धीरे धीरे वो लोगों से गांधीजी के बारे में भी जानने लगीं. एक दिन 1932 में उनकी झोंपड़ी के बाहर से सविनय अवज्ञा आंदोलन की एक विरोध यात्रा निकली. 62 साल की हाजरा को जाने क्या सूझा, वो भी उस यात्रा में शामिल हो गईं. उन्होंने नमक विरोधी कानून भी नमक बनाकर तोड़ा, गिरफ्तार हुई, सजा भी मिली. उनको कई किलोमीटर तक नंगे पैर चलने की सजा दी गई.
तामलुक में थामी भारत छोड़ो आंदोलन की कमान
उसके बाद उन्होंने चौकीदारी कर रोको प्रदर्शन में हिस्सा लिया. काला झंडा लेकर सबसे आगे चलने लगीं, बदले में मिली 6 महीने की जेल. जेल से बाहर आकर उन्होंने एक चरखा ले लिया और खादी पहनने लगीं. लोग उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ के नाम से पुकारने लगे. 1942 में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का ऐलान कर दिया और नारा दिया ‘करो या मरो’. मातंगिनी हाजरा ने मान लिया था कि अब आजादी का वक्त करीब आ गया है. उन्होंने तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाल ली, जबकि उनकी उम्र 72 पार कर चुकी थी. तय किया गया कि मिदनापुर के सभी सरकारी ऑफिसों और थानों पर तिरंगा फहरा कर अंग्रेजी राज खत्म कर दिया जाए.
गोली लगती रही लेकिन तिरंगा न गिरने दिया
29 सितम्बर 1942 का दिन था, कुल 6000 लोगों का जुलूस था, इसमें ज्यादातर महिलाएं थीं. वो जुलूस तामलुक थाने की तरफ बढ़ने लगा, पुलिस ने चेतावनी दी, लोग पीछे हटने लगे. मातंगिनी बीच से निकलीं और सबके आगे आ गईं. उनके दाएं हाथ में तिरंगा था और कहा ‘मैं फहराऊंगी तिरंगा, आज कोई मुझे कोई नहीं रोक सकता’. वंदमातरम के उदघोष के साथ वो आगे बढ़ीं. पुलिस की चेतावनी पर भी वो नहीं रुकीं तो एक गोली उनके दाएं हाथ पर मारी गई, वो घायल तो हुईं, लेकिन तिरंगे को नहीं गिरने दिया.
अंग्रेजों ने मातंगिनी हाजरा के माथे पर मारी गोली
घायल कराहती मातिंगिनी ने तिरंगा दूसरे हाथ में ले लिया और फिर आगे बढ़ने लगीं. देशभक्ति का जुनून 72 साल की मातंगिनी हाजरा पर इस कदर हावी था कि पहली गोली लगते ही बोला ‘वंदेमातरम’, पुलिस ने फिर दूसरे हाथ पर भी गोली मारी, वो फिर बोलीं ‘वंदेमातरम’, लेकिन किसी तरह झंडे को सम्भाले रखा, गिरने नहीं दिया, वंदेमातरम बोलती रहीं, झंडा ऊंचा किए रहीं और थाने की तरफ बढ़ती रहीं. तब एक पुलिस ऑफिसर ने तीसरी गोली चलाई, सीधे उस भारत माता के माथे पर... बीचोंबीच. वो नीचे तो गिरी लेकिन झंडा जमीन पर नहीं गिरने दिया, अपने सीने पर रखा और जोर से फिर बोला.. वंदे...मातरम, भारत माता की जय.
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मातंगिनी की हत्या से आक्रोशित लोगों ने सरकारी दफ्तरों पर किया कब्जा
उनकी मौत के बाद लोग काफी आक्रोशित हो गए, उनका सम्मान उस इलाके में उस वक्त गांधीजी से किसी मायने में कम नहीं था. सबने सोचा जब एक बूढ़ी महिला इतनी हिम्मत देश के लिए दिखा सकती है, तो हम क्यों नहीं. लोगों ने सभी सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया और वहां अपनी खुद की सरकार घोषित कर दी. पांच साल पहले ही अपने इलाके को अंग्रेजों से आजाद घोषित कर दिया और दो साल बाद गांधीजी की अपील पर ही उन लोगों ने सरकारी दफ्तरों से अपना कब्जा छोड़ा. गांधीजी भी उस महिला का अदम्य साहस सुनकर हैरान थे. वो इस बात से खुश भी थे कि बदन पर गोलियां खाते रहने के बावजूद मातंगिनी ने लोगों को हिंसा के लिए भड़काने की कोशिश कतई नहीं की. उनके अहिंसा के सिद्धांत को डिगने नहीं दिया.
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