वैश्विक परमाणु दिग्गजों का पतन भारत के लिए सुनहरा अवसर!
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वैश्विक परमाणु दिग्गजों का पतन भारत के लिए सुनहरा अवसर!

वैश्विक परमाणु उद्योग में एक तरह का ‘मेल्टडाउन’ हो रहा है और यह ‘मेल्टडाउन’ अटलांटिक महासागर के दोनों ओर हो रहा है. यह एक ऐसे समय पर हो रहा है, जब भारत परमाणु ऊर्जा में भारी निवेश कर रहा है. 

आज वैश्विक नियमों के तहत भारत को आयातित यूरेनियम ईंधन मिलना तय हो चुका है, ऐसे में दिग्गज परमाणु कंपनियों के पतन ने समीकरण को भारत के पक्ष में ला दिया है. (फाइल फोटो)

लॉस एंजिलिस: वैश्विक परमाणु उद्योग में एक तरह का ‘मेल्टडाउन’ हो रहा है और यह ‘मेल्टडाउन’ अटलांटिक महासागर के दोनों ओर हो रहा है. यह एक ऐसे समय पर हो रहा है, जब भारत परमाणु ऊर्जा में भारी निवेश कर रहा है. 

भारत के लिए मौका
दिग्गज परमाणु कंपनियों के इस पतन में भारत के लिए एक नया अवसर है और भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान में कई लोग इन कंपनियों के समय पूर्व पतन का जश्न मना रहे हैं. ये कंपनियां भारत में कम से कम 150 अरब डॉलर की लागत वाले दसियों परमाणु संयंत्र लगाने की कोशिश कर रही थीं.

परमाणु ‘मेल्टडाउन' आशीर्वाद की तरह
इस परिदृश्य को बयां करते हुए एक शीर्ष सरकारी अधिकारी ने कहा, ‘यह परमाणु ‘मेल्टडाउन’ एक तरह का आशीर्वाद है.’ इन बदली हुई परिस्थितियों में यदि भारत का निजी उद्योग सही ढंग से अपने पत्ते खेलता है तो वह देश को परमाणु प्रौद्योगिकी के कम खर्च वाले आपूर्तिकर्ताओं का केंद्र बनने का अवसर भी दे सकता है.

यह अभी एक दूर की कौड़ी लग सकता है लेकिन क्या मालूम भविष्य में ऊर्जा क्षेत्र के खेल कैसे-कैसे खेले जाते हैं? 

फ्रांसीसी और अमेरिकी परमाणु रिएक्टर खरीदता है भारत
अभी तक भारत के गले में जो बेहद महंगे फ्रांसीसी और अमेरिकी परमाणु रिएक्टर खरीदने का राजनयिक फंदा कसा हुआ था, वह निकला नहीं है लेकिन उसकी पकड़ तो ढीली हो ही गई है.

भारत को परमाणु वाणिज्य क्लब में वापस लेने से जुड़ी दीर्घकालिक वैश्विक वार्ताओं के तहत एक तरह का विनिमय सौदा हुआ था. 

इसके तहत भारत फ्रांसीसी और अमेरिकी रिएक्टर खरीदने को राजी हो गया था लेकिन अब कम से कम दो दिग्गज विदेशी कंपनियों के व्यवसायिक संचालन पस्त हो रहे हैं. ऐसे में भारत को अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं से पीछे हटने की जरूरत नहीं है.

भारत फ्रांसीसी और अमेरिकी रिएक्टरों को खरीदने की इच्छा के साथ नैतिक आधार पर उच्च स्थिति बनाए रख सकता है लेकिन चूंकि कंपनियां खुद ही मुश्किलों में हैं, ऐसे में कोई समझौता किया नहीं जा सकता. भारत एक बार फिर बिना परीक्षण वाली प्रौद्योगिकियों के जबरन आयातों से मुक्त परमाणु पथ पर बढ़ने की उम्मीद कर सकता है.

दिग्गज परमाणु कंपनी हुई दिवालिया
परमाणु क्षेत्र की दिग्गज अमेरिकी कंपनी वेस्टिंगहाउस इलेक्ट्रिक कंपनी, एलसीसी ने एक सप्ताह पहले ‘दिवालियापन’ के लिए अर्जी दायर की. पिछले साल फ्रांसीसी कंपनी अरेवा भी इसी प्रक्रिया से गुजरी थी.

परमाणु कंपनियों ने भारत में दिखाई रुचि
दोनों ही कंपनियों ने भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु संधि के बाद भारत में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को लगाने में भारी रुचि दिखाई थी. दोनों ही कंपनियां भारत से अरबों डॉलर का परमाणु कारोबार हासिल करना चाहती थीं. जब भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु संधि से जुड़ी वार्ताएं चल रही थीं, तब भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान का एक छोटा लेकिन प्रभावशाली समूह विभिन्न प्रकार के रिएक्टरों का आयात करने पर बेहद असहज था.

इस समूह का मानना था कि जब भारत ने संपीडित भारी जल रिएक्टरों को बनाने में महारत हासिल कर ली है, तो ऐसे में प्रयास इस प्रौद्योगिकी के प्रसार का होना चाहिए. जबकि साथ में भारत के अत्याधुनिक प्रोटोटाइप फास्ट ब्रीडर रिएक्टर और आधुनिक भारी जल रिएक्टर को बढ़ावा देने का काम किया जा सकता है.

इंजीनियर से संप्रग सरकार के प्रभावशाली नेता बने जयराम रमेश उन शुरुआती विरोधियों में थे, जिन्होंने इतनी सारी किस्म के रिएक्टरों को आयात करने के खिलाफ आवाज उठाई थी.

विभिन्न प्रौद्योगिकियों में महारथ हासिल करना एक जटिल काम है और वरिष्ठ वैज्ञानिकों के बीच इस बात को लेकर काफी घबराहट थी कि यदि पूरी भारत-अमेरिका सैन्य परमाणु संधि को लागू किया जाना है तो नए रिएक्टरों की कम से कम तीन किस्मों के संचालन में महारथ हासिल करनी होगी.

वेस्टिंगहाउस की ओर से दिवालियापन की अर्जी दिए जाने के मद्देनजर भारत द्वारा जल्दी ही किसी भी रिएक्टर का ऑर्डर दिए जाने की संभावना नहीं है. विचार यह था कि उसे एक बार में छह परमाणु संयंत्रों को लगाने का ऑर्डर दिया जाए. 

लेकिन अब खुद वेस्टिंगहाउस यह कह रही है कि वह न्यूक्लियर आइलैंड के लिए सिर्फ प्रौद्योगिकी की आपूर्ति कर सकती है और वह निर्माण संबंधी किसी गतिविधि को अपने हाथ में नहीं लेना चाहती. 

इस औचक बदलाव ने भारत को वापस वर्ष 2004 की उस स्थिति में ला दिया है, जिसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने भारत के परमाणु उर्जा क्षेत्र से हाथ मिलाने का फैसला किया था.

उस समय भारत के पास अपना संपीडित भारी जल रिएक्टर और रूसी प्रौद्योगिकी थी लेकिन तब भारत के पास यूरेनियम ईंधन की सतत आपूर्ति नहीं थी. भारत के परमाणु कार्यक्रम के प्रसार के लिए यूरेनियम का आयात एकमात्र विकल्प है.

आज वैश्विक नियमों के तहत भारत को आयातित यूरेनियम ईंधन मिलना तय हो चुका है, ऐसे में दिग्गज परमाणु कंपनियों के पतन ने समीकरण को भारत के पक्ष में ला दिया है.

अब महंगे फ्रांसीसी और अमेरिकी रिएक्टर खरीदने से आधिकारिक तौर पर इनकार किए बिना भारत अपनी शर्तों पर अपने मौजूदा परमाणु संयंत्रों के प्रसार का विकल्प चुन सकता है. यह ‘मेल्टडाउन’ भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान के चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेर रहा है.

(पल्लव बाग्ला)

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