DNA with Sudhir Chaudhary: मातृभाषा को मात्र सिर्फ एक भाषा मानना कितना सही?
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DNA with Sudhir Chaudhary: मातृभाषा को मात्र सिर्फ एक भाषा मानना कितना सही?

DNA with Sudhir Chaudhary: मातृभाषा के प्रति इस सोच को बदलने के लिए कई प्रयास हुए हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भारत के पहले ऐसे थे, जिन्होंने वर्ष 1977 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा को हिन्दी भाषा में सम्बोधित किया था.

DNA with Sudhir Chaudhary: मातृभाषा को मात्र सिर्फ एक भाषा मानना कितना सही?

DNA with Sudhir Chaudhary: कनाडा की संसद में से पहली बार ऐसा हुआ है जब भारतीय मूल के किसी सांसद ने अपनी मातृभाषा कन्नड़ में भाषण दिया है. इस सांसद का नाम है, चंद्र आर्य और वो कनाडा की लिबरल पार्टी के नेता हैं. इससे पहले वहां की संसद में भारतीय मूल के नेता अंग्रेजी भाषा में भाषण देते थे. लेकिन इस सांसद ने इस परम्परा को बदल दिया और ये भी बताया कि अपनी मातृभाषा को मात्र सिर्फ एक भाषा समझना सही नहीं है. आपको याद होगा वर्ष 2020 में New Zealand में भारतीय मूल के एक सांसद गौरव शर्मा ने भी संस्कृत भाषा में शपथ ली थी. गौरव शर्मा हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले से हैं. वो New Zealand की संसद के सबसे युवा सांसदों में से एक हैं.

मातृभाषा को मात्र सिर्फ भाषा मानना कितना सही?

अब बड़ा सवाल ये है कि जब विदेशों में भारतीय मूल के लोग अपनी मातृभाषा को उचित सम्मान दिला रहे हैं, तब हमारे देश में क्या हो रहा है. आज हमारे देश में बहुत सारे लोग मातृभाषा को मात्र सिर्फ एक भाषा मानते हैं. हमारे देश में बच्चों को अंग्रेजी की Poem.. Twinkle Twinkle Little Star तो याद रहती है लेकिन वो अपनी मातृभाषा में बोली जाने वाले कहानियों और कविताओं को याद नहीं रखते. आज कल सफर के दौरान Headphones लगा कर अंग्रेजी गाने सुनने का एक ट्रेंड बन गया है. अंग्रेजी बोलना, पढ़ना और लिखना एक Status Symbol है. हमें हिन्दी के नमस्ते से ज्यादा अंग्रेजी का शब्द Hello बोलना अच्छा और Cool लगता है. हमारे ही समाज में ये बातें भी बोली जाती हैं कि अंग्रेजी सीख ली तो नौकरी भी मिल जाएगी और सम्मान भी. यानी आज अगर भाषाओं का विश्वयुद्ध हुआ तो भारत की हिन्दी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, पंजाबी और उड़िया जैसी भाषाएं बिना लड़े ही हार जाएंगी. और ये एक बहुत बड़ा सच है.

मातृभाषा से ज्यादा अंग्रेजी में बात

उदहारण के लिए, आज बॉलीवुड में जितने भी फिल्म निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्रियां हैं, वो अपनी मातृभाषा से ज्यादा अंग्रेज़ी में बात करना पसन्द करते हैं. हिन्दी भाषी फिल्मों में काम करने वाले कलाकार शूटिंग के दौरान हिन्दी भाषा में बात करना शर्मिंदगी का विषय मानते हैं. बड़े-बड़े डायरेक्टर से लेकर प्रोड्यूसर तक सबके सब पैसा तो हिन्दी भाषा में फिल्म बनाकर कमाना चाहते हैं. लेकिन वो हिन्दी भाषा में एक दूसरे से बात करना आउट ऑफ फैशन मानते हैं. अंग्रेज़ों को हिन्दी भाषा से ज्यादा प्राथमिकता देते हैं. जबकि दक्षिण भारत की फिल्मों में ऐसा नहीं होता. दक्षिण भारत के जो कलाकार हैं, वो अपनी मातृभाषा को गौरव का विषय मानते हैं. वो ये नहीं मानते कि अगर उन्होंने अपनी मातृभाषा में फिल्म बनाई या अपनी मातृभाषा में बात की तो उनका Status कम हो जाएगा. या उन्हें अशिक्षित माना जाएगा.

मातृभाषा की असली ताकत ऐसे समझें

बड़ी बात ये है कि दक्षिण भारत की जो फिल्में आज उत्तर भारत में इतनी लोकप्रिय हो रही हैं, वो तमाम फिल्में हिन्दी में डब की जाती हैं. बॉलीवुड और दक्षिण भारत के कलाकारों में ये एक बड़ा फर्क है, जो मातृभाषा के प्रति उनकी धारणा को भी बताता है. मातृभाषा का अर्थ है, वो पहली भाषा, जिसे बच्चा जन्म लेने के बाद सीखता है. मातृभाषा तीन चीजों को जोड़ती है. सांस्कृतिक मूल्यों को, इतिहास को और परम्पराओं को...यानी मातृभाषा हमारे अन्दर तीन विचारों को अंकुरित करती है. हालांकि भारत में प्रांतीय भाषा, जिन्हें मातृभाषा भी बोला जाता है, उनकी स्थिति ज़्यादा अच्छी नहीं है. लोग अपनी मातृभाषा से ज्यादा अंग्रेजों की प्राथमिकता देते हैं. हालांकि ये लोग चाहें तो हिन्दी के मशहूर कवि केदार नाथ सिंह द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियों से प्रेरणा ले सकते हैं, जिनमें मातृभाषा की असली ताकत को परिभाषित किया गया है.

ये पंक्तियां कुछ इस तरह हैं

जैसे चीटियां लौटती हैं
बिलो में...

कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास...

वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई अड्डे की ओर...

ओ मेरी भाषा...
मैं लौटता हूं तुम में

जब चुप रहते रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ

दुखने लगती है
मेरी आत्मा

(मातृभाषा को लेकर कवि केदार नाथ सिंह की ये पंक्तियां बताती हैं कि आखिर में हमें जड़ों की तरफ ही लौटना पड़ता है.)

हिन्दी में बात नहीं कर पाईं दीपिका

हालांकि हमारे देश में बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो इस बात की गम्भीरता को नहीं समझते. इस समय फ्रांस के Cannes शहर में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हो रहा है, जिसमें भारत के भी कई अभिनेता और अभिनेत्रियां पहुंचे हुए हैं. और इन्हीं में से एक हैं, दीपिका पादुकोण. दीपिक पादुकोण इस फेस्टिवल में जब भारत के पवेलियन में पहुंची तो वो हिन्दी भाषा में सही से बात भी नहीं कर पा रही थी. आप सबसे पहले उनका ये वीडियो देखिए. वैसे तो दीपिका पादुकोण इस Festival में भारत की तरफ से गई हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि उन्होंने अब तक इस Festival में भारत की मौजूदगी को लेकर कोई ट्वीट नहीं किया है. उन्होंने अपना आखिरी ट्वीट 25 फरवरी 2021 को किया था, जिसमें वो फ्रांस की एक मशहूर कम्पनी Louis Vuitton के Bags का प्रचार कर रही थीं. इसके अलावा उनके पुराने Tweets में भी किसी ना किसी कम्पनी और उनके Products का प्रचार किया गया है.

मातृभाषा में बात करने में हिचक

इससे ये पता चलता है कि जिन Celebrities और कलाकारों को हम अपना रोल मॉडल मानते हैं, वो पैसे लेकर ट्वीट करते हैं. लेकिन जब वो इस तरह के किसी अंतर्राष्ट्रीय Festival में भारत का नेतृत्व करने के लिए जाते हैं तो वो हमारे देश की बात तक नहीं करते. ये लोग अपने देश के लिए नहीं बल्कि अपने Clients के लिए ज्यादा ट्वीट करते हैं. आपको याद होगा, कुछ समय पहले तक अपनी मातृभाषा के प्रति यही हीन भावना हमारे क्रिकेटर्स दिखाते थे. पहले हमारे जो क्रिकेटर्स विदेशों में खेलने के लिए जाते थे तो वो वहां अपनी मातृभाषा में बात करने में हिचकते थे. उन्हें हिन्दी में बात करने में शर्म आती थी. आज भी जो ज्यादातर खिलाड़ी हैं, वो हिन्दी या अपनी दूसरी मातृभाषा से ज्यादा अंग्रेजी में बात करना पसन्द करते हैं.

मातृभाषा के प्रति सोच बदलने की जरूरत

हालांकि मातृभाषा के प्रति इस सोच को बदलने के लिए कई प्रयास हुए हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भारत के पहले ऐसे थे, जिन्होंने वर्ष 1977 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा को हिन्दी भाषा में सम्बोधित किया था. यानी इस पल के लिए हिन्दी भाषा को आजादी के बाद 30 वर्षों का लम्बा इंतजार करना पड़ा. उस समय अटल बिहारी वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री थे. इसके अलावा भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में भाषण दे चुके हैं.

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