कितनी पुरानी है आतिशबाजी? क्या भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने पर जलाए गए थे पटाखे
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कितनी पुरानी है आतिशबाजी? क्या भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने पर जलाए गए थे पटाखे

Fireworks On Diwali: उत्तर भारत का एक भी शहर ऐसा नहीं है जहां आज की तारीख में हवा की गुणवत्ता अच्छी या संतोषजनक हो. बहुत सारे लोग मानते हैं कि उत्तर भारत में दिवाली जैसा त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है और यहां जमकर आतिशबाजी होती है इसलिए दिवाली के अगले दिन उत्तर भारत के शहरों की ये स्थिति है.

कितनी पुरानी है आतिशबाजी? क्या भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने पर जलाए गए थे पटाखे

नई दिल्ली: दिवाली (Diwali) का ये पूरा हफ्ता आपने ये सुनते हुए बिताया होगा कि इस बार दिवाली पर पटाखे (Firecrackers) चलाने मना है क्योंकि देश की अलग-अलग अदालतों ने प्रदूषण (Pollution) की वजह से पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया था. दिल्ली से एक खबर आई कि पटाखे जलाने वालों और पटाखे बेचने वालों के खिलाफ 300 से ज्यादा FIR भी दर्ज की गईं, करीब डेढ़ सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया और पिछले चार-पांच दिनों में करीब 20 हजार किलो पटाखे जब्त भी किए गए.

  1. रामचरित मानस में पहली दिवाली के बारे में क्या लिखा है?
  2. 5 हजार साल पहले वापस अयोध्या पहुंचे थे भगवान श्रीराम
  3. आतिशबाजी पर पहले भी लग चुका है बैन

उत्तर भारत में पटाखों की वजह से जबरदस्त प्रदूषण

जबकि दिवाली खत्म होते ही आज दिन भर ये खबर चलती रही कि उत्तर भारत में पटाखों की वजह से जबरदस्त प्रदूषण हो गया है और सांस लेना मुश्किल है. ये सब देखकर आप भी सोचते होंगे कि हम कैसे युग में जी रहे हैं जहां भारत जैसे देश में अब हम खुलकर दिवाली भी नहीं मना सकते. उत्तर भारत में ये सारा प्रदूषण सिर्फ दिवाली की वजह से है या इसका कोई और कारण भी है. इस खबर में जानिए कि आज से 5 हजार साल पहले जब श्रीराम अयोध्या पहुंचे थे तो क्या उस दिन भी पटाखों के साथ ही दिवाली मनाई गई थी? आज हम आपको बताएंगे कि रामायण और रामचरित मानस में पहली दिवाली के बारे में क्या उल्लेख मिलता है?

दिल्ली में खतरनाक स्तर तक पहुंचा AQI

कल दिवाली मनाने के बाद आज सुबह जब आप उठे होंगे तो संभव है कि आपको भी गले में खराश और आंखों से पानी आने की शिकायत हुई होगी. खासकर अगर आप उत्तर भारत में रहते हैं तो आपको इस तरह की परेशानियां जरूर हुई होगी. देश की राजधानी दिल्ली में आज कई स्थानों पर Air Quality Index यानी AQI 999 के स्तर तक पहुंच गया. यानी इन इलाकों में हवा में PM 2.5 कणों की मात्रा 999 कण प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा थी. AQI 999 पर भी आकर इसलिए रुका क्योंकि जिन मशीनों से प्रदूषण को रिकॉर्ड किया जाता है वो 999 से ज्यादा का AQI रिकॉर्ड ही नहीं कर पाती.

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CPCB के आंकड़ों में सामने आई ये बात

Central Pollution Control Board यानी CPCB के शाम 5 बजे तक के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली का औसत Air Quality Index 462 था. जिसे बहुत ही खतरनाक माना जाता है. शून्य से 50 के बीच के AQI को अच्छा, और 50 से 100 तक के AQI को संतोषजनक माना जाता है, जब ये 100 से 200 के बीच पहुंचता है तो इसे Moderate माना जाता है. इससे उन लोगों को परेशानी होती है जिन्हें पहले से सांस से संबंधित कोई बीमारी है. 200 से 300 तक के AQI को खराब, 300 से 400 तक के AQI को बहुत खराब और इससे ऊपर के AQI को खतरनाक माना जाता है.

CPCB हर रोज देश के 133 शहरों में प्रदूषण के स्तर को रिकॉर्ड करता है और इसके मुताबिक आज इनमें से सिर्फ 34 शहर ऐसे थे जहां कि हवा या तो अच्छी थी या संतोषजनक थी. इनमें से भी लगभग सभी शहर या तो दक्षिण भारत के हैं या उत्तर पूर्वी भारत के हैं. उत्तर भारत का एक भी शहर ऐसा नहीं है जहां आज की तारीख में हवा की गुणवत्ता अच्छी या संतोषजनक हो. बहुत सारे लोग मानते हैं कि उत्तर भारत में दिवाली जैसा त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है और यहां जमकर आतिशबाजी होती है इसलिए दिवाली के अगले दिन उत्तर भारत के शहरों की ये स्थिति है.

लेकिन दिल्ली के उदाहरण से ये पता चलता है कि दिल्ली में आज के दिन भी प्रदूषण में पराली की हिस्सेदारी 36 प्रतिशत है. Construction Work यानी निर्माण कार्यों की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत और वाहनों से होने वाले प्रदूषण की हिस्सेदारी 28 प्रतिशत है, यानी 94 प्रतिशत प्रदूषण इन्हीं तीन कारणों से होता है. इसके अलावा भी प्रदूषण के कई सारे कारण है. लेकिन अगर फिर भी ये मान लिया जाए कि बाकी का प्रदूषण दिवाली पर जलाए गए पटाखों की वजह से ही हुआ है तो भी इसकी हिस्सेदारी सिर्फ 6 प्रतिशत बैठती है.

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लेकिन होता ये है कि साल के जिस समय दिवाली मनाई जाती है उस समय उत्तर भारत में पर्यावरण की स्थितियां ऐसी होती हैं कि हवा बहुत कम चलती है और पटाखों का प्रदूषण जब हवा में पहुंचता है तो प्रदूषण की परत और मोटी हो जाती है. इस बार दिवाली के तीन दिनों के दौरान पटाखे जलाने की वजह से वातावरण में सल्फर डाई ऑक्साइड सुरक्षित मात्रा से 200 गुना ज्यादा हो चुकी है. इसके अलावा पटाखों से कार्बन मोनो ऑक्साइड जैसी हानिकारक गैस भी निकलती है. पटाखों के निर्माण में चारकोल का भी इस्तेमाल होता है और जलाए जाने के बाद ये चारकोल PM 2.5 कणों के रूप में शरीर में पहुंच जाता है. PM 2.5 के कण इंसानों के बालों से भी बारीक होते हैं और ये आसानी से फेफड़ों के Tissues और खून में मिल जाते हैं.

यानी दिवाली के पटाखे प्रदूषण का एक मात्र कारण हों या ना हों लेकिन इनकी वजह से उन लोगों को जरूर परेशानी होती है, जो पहले से किसी ना किसी शारीरिक समस्या से जूझ रहे हैं. खासकर जो लोग कोविड से लंबी लड़ाई के बाद ठीक हुए हैं उनके लिए तो पटाखों का ये प्रदूषण जानलेवा साबित हो सकता है.

अब ये विडंबना ही है कि अब से 7 से 8 महीने पहले जब कोविड की दूसरी लहर आई थी तो देश में ऑक्सीजन के लिए त्राहिमाम मचा हुआ था. लोगों को एक-एक सांस की कीमत समझ आ गई थी. लेकिन आज उसी देश के लोगों ने दिवाली पर जमकर पटाखे छुड़ाए और इस बात की भी परवाह नहीं की कि अगर उनके आस पास कोई ऐसा व्यक्ति है जो बड़ी मुश्किल से कोविड से ठीक हुआ है तो उसका क्या होगा?

हैरानी की बात ये है कि भारत में 90 प्रतिशत से ज्यादा पटाखों का उत्पादन तमिलनाडु के सिवाकासी में होता है. लेकिन आज की तारीख में वहां AQI सिर्फ 50 से 70 के बीच है यानी अच्छे से संतोषजनक के बीच है. हम यहां सिर्फ पटाखों का विरोध नहीं कर रहे बल्कि हम देश के आम लोगों, सरकारों, सिस्टम और अदालतों से ये सवाल पूछ रहे हैं कि जब 8 महीने पहले पूरे देश में ऑक्सिजन के एक -एक सिलेंडर के लिए लोग जंग लड़ रहे थे, तब किसी के मन में ये ख्याल क्यों नहीं आया कि 8 महीने के बाद पराली, वाहनों, निर्माण कार्यों और पटाखों से जो प्रदूषण होगा उससे होने वाली परेशानी कोविड से होने वाली परेशानी से ज्यादा अलग नहीं होगी.

आज दिल्ली और उत्तर भारत में में जितना प्रदूषण है उसमें सांस लेना एक दिन में 20 से 45 सिगरेट पीने के बराबर है. इसी तरह दिवाली पर एक फुलझड़ी जलाने से जो धुआं निकलता है वो 200 सिगरेट्स के बराबर होता है. अब सोचिए अगर किसी व्यक्ति ने पांच फुलझड़ियां भी जलाई होंगी तो उसके फेफड़ों में 1000 सिगरेट्स के बराबर का धुआं गया होगा. अगर लगातार सिगरेट पीने वाले किसी व्यक्ति को भी आप कहेंगे कि 10 -15 मिनट में एक हजार सिगरेट पीनी है तो वो भी ऐसा नहीं कर पाएगा लेकिन पटाखे जलाकर लोग ऐसा बड़े आराम से कर लेते हैं.

लेकिन ये स्थिति सिर्फ भारत की नहीं है बल्कि कल ही वैज्ञानिकों के एक समूह ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसके मुताबिक पिछले 6-7 महीने में ही दुनिया का प्रदूषण कोविड-19 से पहले वाले स्तर पर पहुंच गया है और इसमें सबसे ज्यादा हिस्सेदारी चीन की है.

उत्तरी चीन के कई शहरों और राजधानी बीजिंग में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि Visibility 200 मीटर से भी कम रह गई है. बीजिंग में आज AQI 347 था जो बहुत खतरनाक माना जाता है और इस वजह से अब वहां स्कूल और सार्वजनिक Park बंद कर दिए गए हैं. अब चीन में ना तो दिवाली मनाई जाती है और ना ही पटाखे छुड़ाए जाते हैं लेकिन फिर भी वहां प्रदूषण का स्तर भारत के कई शहरों जैसा ही खतरनाक है.

लेकिन सवाल ये है कि क्या पड़ोसी की गलती को बहाना बनाकर हम खुद को सुधारने का प्रयास ना करें? अब भारत में आम लोग पराली तो नहीं जलाते लेकिन पटाखे जरूर छुड़ाते हैं, प्रदूषण फैलानी वाली Unfit गाड़ियां जरूर चलाते हैं और इसे लेकर हम जागरूक जरूर हो सकते हैं. उत्तर भारत के ज्यादातर शहरों में प्रतिबंध के बावजूद कल देर रात तक पटाखे छुड़ाए गए. लोगों का कहना है कि दिवाली सदियों पुराना त्योहार है और इस मौके पर पटाखे छुड़ाने की पुरानी परंपरा है.

दिवाली मनाई जाती है भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में लेकिन जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे तब तक पटाखों का अविष्कार ही नहीं हुआ था. आज हमने तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस का अध्ययन किया और इसमें हमें कहीं इस बात का जिक्र नहीं मिला कि जब भगवान राम, रावण को हराकर अयोध्या लौटे तो वहां पटाखे छुड़ाए गए.

रामचरित मानस के पेज नंबर 839 में उत्तरकांड में लिखा है कि जब भगवान राम अपने महल की तरफ चले तो नगाड़े बजाए गए, आकाश से भी ध्वनि हुई, पूरी अयोध्या को फूलों से सजाया गया था, गलियों में विशेष प्रकार की सुगंध बिखेरी गई थी. लेकिन इसमें हमें कहीं भी पटाखे जलाने का जिक्र नहीं मिलता.

इस बारे में हमने आज भोपाल के रामायण केंद्र के निदेशक डॉक्टर राजेश श्रीवास्तव से बात की. उन्होने तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरित मानस और वाल्मिकी द्वारा रची गई रामायण का अध्ययन करके हमें बताया कि दोनों में ही कहीं पटाखे जलाए जाने का जिक्र नहीं मिलता.

तो अब सवाल ये है कि फिर भारत में पटाखे जलाए जाने की शुरुआत कब से हुई थी? इतिहासकार इस मामले में एकमत नहीं हैं. आतिशबाजी में कच्चे माल के रूप में शोरा का इस्तेमाल होता है जो एक प्रकार का नमक है. कहा जाता है कि 18वीं शताब्दी तक भारत पूरी दुनिया में शोरा का सबसे ज्यादा निर्यात करता था यानी भारत में आतिशबाजी का इतिहास हजारों वर्ष पुराना नहीं तो कम से सैंकड़ों वर्ष पुराना तो जरूर है.

15वीं शताब्दी में जब बाबर ने दिल्ली की लोधी सल्तनत के खिलाफ युद्ध लड़ा तब पहली बार भारत में Gun Powder यानी बारूद का इस्तेमाल हुआ. बाबर की सेना के पास बारूद से चलने वाली तोपें थीं. कहा जाता है कि इन तोपों की आवाजें सुनकर इब्राहिम लोधी के सैनिक बुरी तरह से घबरा गए थे. अगर भारत में इससे पहले बारूद का इस्तेमाल हुआ होता.त  लोधी के सैनिकों में ऐसी अफरातफरी नहीं मचती. इसलिए कुछ इतिहासकार मानते हैं कि भारत में बारूद और फिर से इससे तैयार होने वाले पटाखों का इस्तेमाल मुगलों के आने के बाद से शुरू हुआ.

आज हमने आपके लिए सैंकड़ों वर्ष पुरानी कुछ Paintings भी निकाली हैं. जिनमें आप देख सकते हैं कि कैसे मुगल काल में भारत में आतिशबाजी की जाती थी. रामायण का इतिहास 5 हजार साल पुराना माना जाता है. लेकिन पूरी दुनिया में पटाखों का इस्तेमाल ही करीब 2200 साल पहले चीन में शुरू हुआ था. लेकिन ये पटाखे बारूद से नहीं बल्कि बांस से बनाए जाते थे. बारूद के इस्तेमाल से पटाखे बनाने की शुरुआत भी 9वीं सदी में चीन में हुई थी और फिर वहीं से पटाखे पूरी दुनिया में फैल गए.

चीन में उस समय पटाखे बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए जलाए जाते थे. कहा जाता है कि 12वीं शताब्दी में भारत से एक बंगाली बौद्ध धर्म गुरू चीन पहुंचे. उनका नाम अतीश दीपंकर था. अतीश दीपंकर ही चीन से पटाखों का विचार लेकर भारत वापस आए थे.

वर्ष 1950 में इतिहासकार पीके गोडे की एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसका नाम History of Fireworks in India between 1400 and 1900 था. इसमें वो लिखते हैं कि वर्ष 1518 में पुर्तगाल से एक यात्री भारत आया था और उसने गुजरात में ब्राह्मण परिवार की एक शादी में जोरदार आतिशबाजी का जिक्र किया था. हालांकि पीके गोडे अपनी किताब में मराठी कवि संत एकनाथ कि लिखी एक कविता का भी जिक्र करते हैं. जिसमें लिखा गया है कि भगवान कृष्ण और रुक्मणी के विवाह में भी आतिशबाजी हुई थी.

हालांकि भारत के कई शहरों में आतिशबाजी पर प्रतिबंध लगाया जाना कोई आज की बात नहीं है बल्कि करीब साढ़े तीन सौ साल पहले वर्ष 1667 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने भारत में पटाखों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी. उसके इस आदेश की एक कॉपी आज भी बीकानेर के State Archive में रखी गई है यानी भारत में आतिशबाजी रोकने का हुक्म तब मुगल बादशाह दिया करते थे और आज अदालतें और राज्य सरकारें ये काम करती हैं.

इतिहासकार मानते हैं कि पटाखों का इस्तेमाल राजा महाराजा और मुगल बादशाह अपने मनोरंजन के लिए और त्योहारों और विवाह शादी जैसे कार्यक्रमों के दौरान करते थे. इसके अलावा हाथियों को प्रशिक्षण देने के लिए भी इनका इस्तेमाल होता था. 18वीं शताब्दी आते-आते दिवाली पर पटाखों का नियमित इस्तेमाल किया जाने लगा.

वर्ष 1923 में तमिलनाडु के सिवाकासी में आधुनिक तौर तरीकों से पटाखे बनाने की शुरुआत हुई और आज सिवाकासी की बदौलत पटाखों के निर्माण में भारत पूरी दुनिया में चीन के बाद दूसरे नंबर पर है. लेकिन कुल मिलाकर इन तथ्यों से जो बात समझ आती है वो ये है कि दिवाली पर पटाखे छुड़ाने की शुरुआत रामायणकाल से नहीं हुई थी बल्कि इसका इतिहास 200 से 300 वर्ष पुराना है. लेकिन तब भारत में ना तो प्रदूषण इतने खतरनाक स्तर पर था और ना ही सड़कों पर गाड़ियां थी और निर्माण कार्यों से होने वाला प्रदूषण था.

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