बैंक सरकार के सामने इन डिफ्लटर्स को देश वापस लाने के लिए सिर्फ गुहार लगा रही है, पर वर्तमान में जो बैंकों के हालात है उसका नुकसान देश की आम जनता को हो रहा है.
Trending Photos
नई दिल्लीः बिजनेस का विस्तार करने के बहाने लोन लेने और फिर विदेश फरार हो जाने वाले भारतीय कारोबारियों जैसे नीरव मोदी और विजय माल्या के कारण देश के बैंकों की हालात दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है. बैंक सरकार के सामने इन डिफ्लटर्स को देश वापस लाने के लिए सिर्फ गुहार लगा रही है, पर वर्तमान में जो बैंकों के हालात है उसका नुकसान देश की आम जनता को हो रहा है. लोन डिफ्लॉर्ट्स के कारण सितंबर 2017 तक भारतीय बैंकों ने नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) या डूबत खातों ने 8.29 लाख करोड़ का आंकड़ा पार लिया है.
हर शख्स पर 6 हजार रुपये का अतिरिक्त भार
दैनिक भास्कर में छपी एक खबर के मुताबिक 8.29 लाख करोड़ रुपये कर्ज की वो रकम है, जिसके वापस मिलने की संभावना शून्य के बराबर है. जितना पैसा बैंकों का डूबा है अगर उसकी भरपाई आम जनता से कराई जाती है तो देश के हर नागरिक को लगभग 6,233 रुपये चुकाने होंगे. वर्ष 2017 के रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारतीय उद्योगों पर 28.92 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है. हैरान करने वाली बात यह है कि यह कर्ज पूरे कर्ज का महज 37 प्रतिशत ही है.
यह भी पढ़ें : नीरव मोदी को भारत लाना नहीं है आसान, दाऊद-माल्या समेत ये 8 भगोड़े पहले से चिढ़ा रहे मुंह
उद्योगों के कारण बैंकों की हालत खस्ता
इस बात को और भी ज्यादा आसान भाषा में समझा जाए तो मान लीजिए बैंक ने पूरे बाजार में 100 रुपये का कर्ज बांटा है, इस राशि में 37 रुपये उन लोगों को दिए हैं जिन्होंने उद्योगों को बढ़ाने की बात कही थी. उद्योगों को मिले इस 37 रुपए में 19% नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) है. यानि की बैंक के 100 रुपये के कर्ज में से 19 रुपये इन उद्योगों के कारण डूबने की कगार पर पहुंच गए हैं. यानि की वर्तमान समय में भारतीय बैंकों को 5.58 लाख करोड़ रुपये डूबने की कगार पर पहुंच गया है. अगर इस राशि को बैंक देश की जनता से वसूल करता है तो हर नागरिक की जेब से लगभग 4195 रुपये जाएंगे.
मोटा पैसा खाकर भाग रहे धन्ना सेठ
यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि वर्तमान में जो छोटे व्यापारी या उद्योगपति हैं वह बैंकों से कर्ज लेते हैं वो वक्त पर वापसी कर देते हैं. वहीं, बड़ी रकम लोन के तौर पर लेने वाले बड़े उद्योगपति बैंकों को चूना लगा रहे हैं. अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक उद्योगपतियों के मुकाबले पर्सनल लोन ज्यादा बेहतर तरीके से चुकाए जा रहे हैं. आमदनी और वसूली के लिए यह बैंकों के पास काफी सरल रास्ता है.
आम आदमी की ओर बैंकों का रूख
क्रिसिल के चीफ इकोनॉमिस्ट डीके जोशी का कहना है कि वर्ष 2016 के मुकाबले 2017 में कुल कर्ज में उद्योग की हिस्सेदारी 41 फीसदी थी, अब यह घटकर 37 फीसदी ही रह गई है. कर्ज लौटने के नाम पर उद्योगपतियों की मनमानी और बाद में दिवालिया घोषित होने के कारण बैंक इन्हें पैसा देने से बच रहे हैं और आम आदमी को लोन देकर आपना पैसा सही समय पर वसूल करने का रूख कर रहे हैं.