गांव में 12वीं शताब्दी के बाद से ही होलिका दहन नहीं हुआ. इस मान्यता के पीछे एक महिला के सती होने की प्रथा है.
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देवेंद्र मिश्रा/धमतरीः कोरोना के बढ़ते संक्रमण को ध्यान में रखकर देश के कई राज्यों में सार्वजनिक होली मनाने की परमिशन नहीं दी गई है. राज्य सरकारों ने पाबंदियों के साथ बहुत कम लोगों के साथ सांकेतिक तौर पर होलिका दहन की अनुमति दी है. छत्तीसगढ़ में भी कोरोना संक्रमण खतरनाक रूप लिए हुए है. यहां भी होली पर पाबंदियां लागू हैं. लेकिन इस राज्य में एक गांव ऐसा भी जहां 900 सालों से होलिका दहन नहीं हुआ.
12वीं सदी की मान्यता का कर रहे पालन
धमतरी जिले से 3 किलोमीटर दूर भखारा मार्ग पर स्थित तेलीनसत्ती गांव है. जहां 12वीं शताब्दी के बाद से ही होलिका दहन नहीं हुआ. इस मान्यता के पीछे एक महिला के सती होने की कहानी है. महिला के होने वाले पति की बली दे दी गई थी, जिसके बाद उसने अपने आप को आग के हवाले कर दिया था. तबसे ही गांव में होलिका दहन नहीं करने की मान्यता है, जिसे आज भी लोग मानते हैं. हालांकि, गांव में होली धूमधाम से खेला जाता है.
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गांव के बुजुर्ग ने बताया मान्यता का इतिहास
गांव के 90 साल के बुजुर्ग देवलाल सिन्हा ने बताया कि होली नहीं जलाने की प्रथा बारहवीं सदी से बरकरार है. मान्यता को नहीं मानने वालों के साथ या तो बुरा होता है या वे जीवित नहीं रहते. देवलाल बताते हैं कि 12वीं सदी में गांव में सती माता की मूर्ति विराजित की गई. कथा के अनुसार पास के भानपुरी गांव में रहने वाले दाऊ परिवार में सात भाइयों के बाद एक बहन का जन्म हुआ. बाद में इस गांव का नाम तेलीनसत्ती हो गया.
सात भाइयों ने दे दी अपने इकलौते 'जीजा' की बली
सात भाइयों की इकलौती बहन का नाम भानुमति रखा गया. परिवार ने उसे बहुत लाड प्यार से पाला. इकलौती बहन के लिए परिवार ने संपन्न लमसेना (घरजमाई) ढूंढा और उसकी शादी तय कर दी. लेकिन गांव के ही किसी तांत्रिक की सलाह पर फसल को प्राकृतिक आपदा से बचाने के लिए सातों भाइयों ने मिलकर अपने होने वाले जीजा की बली चढ़ा दी. भानुमति तो उसे अपना पति मान चुकी थी.
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भानुमति ने किया दाह संस्कार करने से मना
भानुमति को जैसे ही पता चला कि उसके होने वाले वर की बली दी जा चुकी है, उसने सती प्रथा का पालन करते हुए अपने आप को आग के हवाले कर दिया. ऐसी मान्यता है कि सती होने के बाद भानुमति गांव के लोगों के सपने में प्रकट होती. वह गांव में किसी भी प्रकार का दाह संस्कार करने से मना करती. कहती कि निर्देश नहीं मानने पर बड़े संकटों का सामना करना पड़ेगा. इस कारण गांव में 900 वर्षों से कोई दाह संस्कार नहीं होता.
रावण और चिता तक नहीं जलाते गांव में
तेलीनसत्ती गांव में होलिका के साथ ही दशहरा में रावण और किसी की चिता भी नहीं जलाई जाती है. गांव में किसी की मौत होने पर पड़ोस के गांव ले जाकर चिता जलाते हैं. बुजुर्ग देवलाल बताते हैं कि ऐसा नहीं करने पर गांव को किसी न किसी विपत्ति का सामना करना पड़ता है. उन्होंने बताया कि आज के जमाने में इस तरह की मान्यताएं निराधार लग सकती हैं लेकिन इनका पालन नहीं करने पर उन्होंने लोगों को अनेक परेशानियों का सामना करते देखा है. गांव के बाकी लोगों का कहना है कि इस परंपरा का पालन करने के लिए गांव के बुजुर्गों द्वारा ही नई पीढ़ी को सीख दी जा रही है. वे ही उन्हें प्रथा को न तोड़ने की हिदायत देते आए हैं, और इसी कारण गांव में किसी का दाह संस्कार नहीं होता.
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