सरोज डिंडौरी जिले की पहली महिला बस कंडक्टर हैं, जो पिछले 17 सालों से यात्री बसों में बुकिंग एजेंट के रूप में काम कर रहीं हैं.
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संदीप मिश्रा/डिंडौरीः महिला बस ड्राइवर और कंडक्टर के बारे में तो आपने जरूर सुना होगा. लेकिन आज हम आपको जिस महिला बस कंडक्टर की कहानी बता रहे हैं, उनके जीवन की मुश्किलों ने उन्हें और भी प्रेरणादायी और महान बना दिया. हम बात कर रहे हैं, मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले की पहली महिला बस कंडक्टर सरोज राय की. जिन्होंने अपनी परेशानियों से हार न मानते हुए 17 सालों तक इस काम को जिम्मेदारी से निभाया और एक नई मिसाल पेश की.
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सरकार से नहीं मिली मदद, जारी रखा काम
सरोज डिंडौरी जिले में पिछले 17 सालों से बुकिंग एजेंट (कंडक्टर) के रूप में काम कर रहीं हैं. वह अपने पति के पास न रहते हुए, अपने मायके में रहतीं हैं और इतने सालों से खुद के दम पर ही काम रहीं हैं. बावजूद इसके उन्हें अभी तक सरकार से किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिली. जो सरकार के महिला सशक्तिकरण के दावों और वादों की पोल खोलती है. इस बारे में जब डिंडौर के महिला सशक्तिकरण अधिकारी श्याम सिंगोरे से बात की गई, तो वह महिला को सम्मानित करने की बात करने लगे. उन्होंने अब जाकर कहा है कि प्रशासन की ओर से उन्हें सहायता दी जाएगी.
2 साल की उम्र में चल बसी मां, पिता ने करवाया बाल विवाह
सरोज बताती हैं कि जब उनकी उम्र महज 2 साल की थी, तब ही उनकी मां का देहांत हो गया. बचपन में पिता ने पाला, लेकिन 16 साल की उम्र में ही शराबी लड़के से ब्याह करा दिया. वह अपने शराबी पति की हरकतों से तंग रहने लगीं और परेशान होकर शादी के कुछ ही दिनों बाद उसे छोड़कर मायके आ गईं.
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नहीं हारी हिम्मत, खोली अंडे की दुकान
पति का साथ छूटने के बाद सरोज मायके में रहने लगी, लेकिन हिम्मत नहीं हारी और समाज का सामना करते हुए बस स्टेंड पर अंडे की दुकान खोल दी. दुकान तो सफल न हो सकी, लेकिन सरोज ने हार नहीं मानी और यात्री बसों में बुकिंग एजेंट बनने का फैसला किया. साल 2003 में महिला सशक्तिकरण का न तो उतना प्रभाव था और न ही कोई इस बारे में ज्यादा ध्यान दे रहा था. बावजूद इन सब के सरोज ने 'पुरुषों' के कहे जाने वाले इस काम को शुरू किया और करती चली गई.
नहीं देखा पीछे मुड़ कर
बसों में बुकिंग एजेंट का काम सरोज को भा गया और उन्होंने इस काम को पूरी जिम्मेदारी से निभाया. वह 17 साल बाद भी इस काम को बखूबी निभा रहीं हैं. अब वह अपने काम में पूरी तरह दक्ष हो चुकीं हैं और हर दिन तीन सौ से चार सौ रुपये कमा रहीं हैं. इन्हीं पैसों की मदद से वह अपने परिवार का भरण पोषण भी कर रहीं हैं. सरोज उन तमाम महिलाओं के लिए एक मिसाल है, जो अपनी परेशानियों से हार मान लेती हैं और परिस्थितियों को अपने पर हावी होने देतीं हैं.
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आत्मनिर्भर अभियान को कर रहीं साकार
सरोज की कहानी न सिर्फ महिला सशक्तिकरण का जीता-जागता उदाहरण है बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर अभियान को भी साकार करती हैं. वो बात अलग है कि उनके इस काम को न तो सरकार से सराहना मिली और न ही और किसी तरह की मदद. शायद इन्हीं कारणों ने उन्हें इतने सालों तक सफल बनाए रखा.
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