महामहिम: कहानी पहले मुस्लिम राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की, जिन्होंने 23 साल की उम्र में बनाई थी जामिया
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महामहिम: कहानी पहले मुस्लिम राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की, जिन्होंने 23 साल की उम्र में बनाई थी जामिया

Dr. Zakir Hussain Profile: ये कहानी उस शख्स की है, जिसने सिर्फ 23 साल की उम्र में कुछ छात्रों और टीचर्स के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की. जिन्हें भारत रत्न और पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया. शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता. वो देश के दूसरे उपराष्ट्रपति और तीसरे राष्ट्रपति बने.  

आज पढ़िए डॉ जाकिर हुसैन की कहानी

Mahamahim: ये कहानी उस शख्स की है, जिसने सिर्फ 23 साल की उम्र में कुछ छात्रों और टीचर्स के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की. जिन्हें भारत रत्न और पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया. शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता. वो देश के दूसरे उपराष्ट्रपति और तीसरे राष्ट्रपति बने.  

जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम की तीसरी किस्त में आज हम आपको बता रहे हैं डॉ. जाकिर हुसैन की कहानी.

हैदराबाद में हुआ था जन्म

डॉ. जाकिर हुसैन का जन्म 8 फरवरी 1897 को हैदराबाद में हुआ था. वह खैबर पख्तूनख्वा के पश्तून मुस्लिम थे, जिनका ताल्लुक आफरीदी और खेशगी परिवारों से था. 19वीं सदी में उनका परिवार दक्कन आने से पहले मलिहाबाद में रहा. जाकिर हुसैन अपने 8 भाइयों में दूसरे नंबर के थे. बचपन से ही जाकिर हुसैन को पढ़ने-लिखने का काफी शौक था. स्कूल जाने से पहले उन्होंने घर पर कुरान, फारसी और उर्दू की तालीम हासिल की. हुसैन की प्राथमिक शिक्षा हैदराबाद से हुई. जब 10 बरस के हुए तो पिता का निधन हो गया. इसके बाद मां बच्चों को लेकर हैदराबाद से कायमगंज (उत्तर प्रदेश) आ गईं.

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कायमगंज आने के बाद मां ने उन्हें अच्छी शिक्षा के लिए इटावा भेजने का सोचा. लेकिन वह जाना नहीं चाहते थे. इसके बाद मां ने उन्हें समझाया कि वहां अच्छे उस्ताद हैं. खूब पढ़ना और अब्बू का नाम रोशन करना. मां के कहने पर वह इटावा चले गए. वहां इस्लामिया हाई स्कूल से हाई स्कूल पास किया.

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14 बरस के हुए तो मां भी चल बसी. लेकिन कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने खुद को संभाला और पढ़ाई का साथ नहीं छोड़ा. इसके बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी से उन्होंने इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएशन किया. फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के मुहमदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज चले गए. 1915 में 18 साल की उम्र में उनका निकाह शाहजहां बेगम से हुआ. उनकी दो बेटियां हुईं-सईदा खान और साफिया रहमान.

निकाह होने से पहले ही वह स्वतंत्रता सेनानी अबुल कलाम आजाद और मोहम्मद अली के संपर्क में आ गए थे. इन दोनों के विचारों से डॉ जाकिर हुसैन काफी प्रभावित हुए. उनके अंदर देशभक्ति की भावना जागी. उस वक्त अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जगह-जगह पर आंदोलन हो रहे थे. इनका असर भी जाकिर हुसैन पर पड़ा.

गांधीजी की अपील का पड़ा असर

साल 1920 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया. वह जगह-जगह गए और अंग्रेजों के खिलाफ युवाओं को आंदोलन में शामिल होने को कहा. इस दौरान वह अलीगढ़ भी गए, जहां उन्होंने एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज के छात्रों को अंग्रेजी शिक्षा देने वाले कॉलेजों का बहिष्कार करने को कहा. युवा जाकिर हुसैन पर बापू की इस अपील का गहरा असर पड़ा. वह असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए तैयार हो गए और कॉलेज के बहिष्कार का फैसला कर लिया. 

अंग्रेज प्रिंसिपल ने दिया था ये ऑफर

जब जाकिर हुसैन के कॉलेज बहिष्कार के फैसले के बारे में अंग्रेज प्रिंसिपल को मालूम चला तो वह घबरा गया. उसने जाकिर हुसैन को बुलाकर पूछा तो उन्होंने हां में जवाब दिया. प्रिंसिपल ने हुसैन से कहा कि इससे उनका भविष्य बर्बाद हो जाएगा. लेकिन जाकिर हुसैन ठस से मस नहीं हुए. बात न बनती देख अंग्रेज प्रिंसिपल ने उन्हें उप जिलाधीश बनाने का ऑफर तक दिया, उसे भी जाकिर हुसैन ने ठुकरा दिया और कहा कि उनके लिए मातृभूमि अहम है. 

ऐसे वजूद में आया जामिया मिलिया इस्लामिया

कॉलेज का बहिष्कार करने के बाद उनके साथी छात्रों ने पूछा कि अब वे कहां पढ़ेंगे तो उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान में पढ़ेंगे. तो साथियों ने कहा कि ये कहां हैं? उन्होंने जवाब में कहा, हम यहीं शिक्षा संस्थान खोलेंगे, जो हमारा अपना, हमारे देश का होगा. इसमें ब्रिटिश हुकूमत से मदद नहीं ली जाएगी. पढ़ाने कौन आएंगे? इस पर जाकिर हुसैन ने कहा, हमारे ही लोग शिक्षा देंगे. इस पर उनके साथियों ने साथ देने का फैसला किया. राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान बनाने के सिलसिले में उन्होंने मौलाना मोहम्मद अली, डॉ हकीम अजमल और डॉ अंसारी से मुलाकात की. 

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इसके बाद अलीगढ़ में बहुत छोटी जगह पर 29 अक्टूबर 1920 को जामिया मिलिया इस्लामिया की नींव रखी गई. वहां दो साल तक बतौर टीचर उन्होंने छात्रों को पढ़ाया और अन्य कड़ी मेहनत व साथियों के साथ मिलकर उसकी नींव और मजबूत की. 

साल 1922 में वह हायर एजुकेशन के लिए जर्मनी चले गए. वहां उनको तार के जरिए सूचना मिली कि जामिया को पैसों की तंगी के कारण बंद करने का इरादा है. इसके जवाब में उन्होंने अजमल खान  को तार से संदेश भेजा. इसमें लिखा था कि मैं जामिया की आजीवन मदद को तैयार हूं. लेकिन हमारे पहुंचने तक जामिया बंद न होने पाए.

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1926 में बर्लिन से इकोनॉमिक्स में डॉक्टरेट की उपाधि लेकिन वह भारत लौटे. तब तक जामिया की हालत काफी खराब हो गई थी, जिसे देख वह काफी दुखी हो गए. इसके बाद उन्होंने इसमें सुधार लाने का बीड़ा उठाया और महात्मा गांधी की सलाह पर जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली ले आए. 29 साल की उम्र में वह जामिया के कुलपति बने. 

परिवार के कई सदस्य चले गए थे पाकिस्तान

जब देश का विभाजन हुआ, तो उनके परिवार के अधिकतर लोग पाकिस्तान चले गए. आजादी से काफी पहले उनके भाई महमूद हुसैन पाकिस्तान मूवमेंट में शामिल हुए और वह मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के एक बड़े नेता थे. उन्हें बाद में पाकिस्तान की संविधान सभा का सदस्य बनाया गया.

1951 की शुरुआत में उन्होंने पाकिस्तान के शिक्षा मंत्री और कश्मीर मामलों के मंत्री के तौर पर काम किया. हुसैन के भतीजे अनवर हुसैन पाकिस्तान टेलीविजन कॉर्पोरेशन के निदेशक बने. उनके एक चचेरे भाई, रहीमुद्दीन खान पाकिस्तान सेना की संयुक्त चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष और बलूचिस्तान और सिंध के राज्यपाल रहे. 

जाकिर हुसैन के जिन रिश्तेदारों ने भारत में रहने का विकल्प चुना, वे भी बड़े पदों पर रहे. उनके छोटे भाई यूसुफ हुसैन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति बने. उनके भतीजे मसूद हुसैन जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति थे. हुसैन के दामाद खुर्शीद आलम खान कई साल तक कर्नाटक के राज्यपाल रहे और उनके पोते सलमान खुर्शीद मनमोहन सिंह सरकार में विदेश मंत्री रहे. 

राष्ट्रपति बनने से पहले संभाली कई जिम्मेदारियां

जब भारत को आजादी मिली तो उस वक्त जाकिर हुसैन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बनने को तैयार हो गए. विभाजन के बाद ये यूनिवर्सिटी मुश्किल दौर से गुजर रही थी क्योंकि पाकिस्तान की मांग के आंदोलन में इस यूनिवर्सिटी के शिक्षकों और छात्रों का एक धड़ा भी शामिल था. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के मुश्किल दौर में जाकिर हुसैन ने 1948 से 1956 तक अपनी अगुआई में चीजों को संभाला. वाइस चांसलर का कार्यकाल पूरा करने के बाद उन्हें 1956 में राज्यसभा के लिए नामांकित किया गया लेकिन वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. जवाहरलाल नेहरू ने उनसे बिहार के राज्यपाल का पद संभालने को कहा, जिसे उन्होंने मान लिया. 1957 से 1962 तक राज्यपाल का काम संभालने के बाद वह 1962 से 1967 तक देश के दूसरे उपराष्ट्रपति रहे. 

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यूं चुने गए थे राष्ट्रपति 

जाकिर हुसैन के राष्ट्रपति बनने की कहानी भी काफी दिलचस्प है. 1967 में उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया था. उनके प्रतिद्वंदी थे सुप्रीम कोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस के. सुब्बाराव. उस वक्त इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष मोर्चा खोले हुए था. इस मुश्किल घड़ी में इंदिरा ने जयप्रकाश नारायण (जेपी) को याद किया. तब तक जेपी राजनीति से संन्यास ले चुके थे. 22 अप्रैल 1967 को एक बयान जारी किया.

इसके बाद जाकिर हुसैन का समर्थन करने वाले सामने आए और कांग्रेसी एक हो गए. 6 मई, 1967 को देश के तीसरे राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने थे. तभी शाम को ऑल इंडिया रेडियो का प्रसारण रोक दिया गया और जाकिर हुसैन जीत गए. इस चुनाव में 8,38,170 वोट पड़े थे, जिसमें हुसैन को 4,71,244 और सुब्बाराव को 3,63,971 वोट मिले थे. इस तरह देश को पहला मुस्लिम राष्ट्रपति मिला. अपने भाषण में, उन्होंने कहा था, 'पूरा भारत मेरा घर है और यहां के सभी लोग मेरा परिवार'. 

1963 में उन्हें देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया. 3 मई 1969 को 72 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. वह पहले राष्ट्रपति थे, जिनका पद पर रहते हुए निधन हुआ था.

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