महामहिम: सिवान की गलियों से सत्ता के शिखर तक, कहानी पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की
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महामहिम: सिवान की गलियों से सत्ता के शिखर तक, कहानी पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की

जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम में हम आपको बता रहे हैं भारत मां के सच्चे सपूत डॉ. राजेंद्र प्रसाद की कहानी, जो जिंदगी के कई पड़ावों को पार करते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष से लेकर राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचे.

आज पढ़िए डॉ राजेंद्र प्रसाद की कहानी

रायसीना हिल्स. वो जगह जहां से भारत की सत्ता चलती है. भारत सरकार की तमाम रसूखदार इमारतें यहां बरसों से खड़ी हैं, जहां से देश की दशा और दिशा नया मोड़ लेती है. इंडिया गेट से रायसीना हिल्स की ओर जाने वाली सड़क अपने आप में कई सुनहरी यादों की गवाह है. नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक की ऐतिहासिक इमारतों के बीच साल 1929 से खड़ा है भारत का ऐतिहासिक राष्ट्रपति भवन, जिसे पहले वाइसरॉय हाउस भी कहा जाता था. 331 एकड़ में फैले और 340 कमरों वाले राष्ट्रपति भवन में रहते हैं भारत के प्रेसिडेंट यानी राष्ट्रपति. राष्ट्रपति चुनाव हर 5 साल में होता है. मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल इसी साल जुलाई में खत्म हो रहा है. देश की तीनों सेनाओं के सुप्रीम कमांडर कौन होंगे इसका चुनाव अगले कुछ दिनों में हो जाएगा. लेकिन उससे पहले जी न्यूज अपनी एक खास सीरीज 'महामहिम' शुरू कर रहा है, जिसमें हम आपको भारत के पूर्व राष्ट्रपतियों के बारे में कई खास बातों से रूबरू कराएंगे. तो चलते हैं और खंगालते हैं अतीत के उन पन्नों को, जहां से इस कहानी की शुरुआत होती है.

सिवान. बिहार का वो शहर, जिसने 1857 की क्रांति में अहम भूमिका निभाई थी. यहां के जीरादेई गांव की मिट्टी में भारत मां के एक सच्चे सपूत का जन्म हुआ. तारीख थी 3 दिसंबर और साल था 1884. संस्कृत और फारसी भाषाओं के प्रकांड विद्वान महादेव सहाय श्रीवास्तव और कमलेश्वरी देवी के घर एक लड़के का जन्म हुआ. माता-पिता ने नाम रखा राजेंद्र प्रसाद. अपने एक भाई और तीन बहनों में सबसे छोटे. उस वक्त कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि सिवान की मिट्टी से निकला ये लड़का एक दिन न सिर्फ भारत की संविधान सभा का अध्यक्ष होगा बल्कि देश का पहला महामहिम बनेगा. राजेंद्र बाबू के जीवन में काफी उतार-चढ़ाव आए. बचपन में मां से रामायण और महाभारत की कहानियां सुनकर बड़े हुए थे.

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पिता से नहीं बोला था झूठ

राजेंद्र प्रसाद के बचपन का एक किस्सा भी काफी मशहूर है. राजेंद्र बाबू के पिता को पेड़ों से काफी प्यार था. उनके पिता ने उन्हें एक कुल्हाड़ी लाकर दी थी, जिसके बाद वह पूरे दिन कुल्हाड़ी से ही खेलते रहते थे. एक दिन पिता बाहर गए हुए थे और राजेंद्र प्रसाद खेल-कूद में लगे थे. खेल-खेल में कुल्हाड़ी से आम का एक पेड़ काट डाला. शाम को पिताजी जब घर लौटे और आम के पेड़ को कटा हुआ देखा तो गुस्से का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उन्हें बेटे से पूछा, ''इतनी बुरी तरह आम के पेड़ को किसने काटा है''. पिता का रौद्र रूप देखकर राजेंद्र बाबू बुरी तरह डर गए. सोचने लगे कि सच बोलूंगा तो पिताजी से सजा मिलेगी. झूठ बोलने पर बचा जा सकता है. लेकिन फिर खुद को धिक्कारते हुए सोचा, भले ही झूठ बोलने पर सजा नहीं मिलेगी लेकिन झूठ बोलना भी तो गलत ही है. डरते-डरते बालक ने कहा, ''मैंने काटा है इस पेड़ को''. बेटे के ये शब्द बोलते ही पिता खुश हो गए. वे जानते थे कि पेड़ उनके बेटे ने ही काटा है, वो तो बस बेटे की ईमानदारी को परख रहे थे. 

बेटे के सिर पर प्यार से हाथ रखकर बोले, ''आज तुमने सच बोलकर मेरा दिल जीत लिया. मुझे लगा था कि तुम झूठ बोलोगे. लेकिन तुमने सच को स्वीकार किया. तुमने आज जो नुकसान किया, उसके लिए मैं तुम्हें सजा नहीं दूंगा. लेकिन यह जरूर कहूंगा कि जीवन में कभी झूठ मत बोलना.'' पिता की यह बात राजेंद्र बाबू ताउम्र नहीं भूले.  

12 साल की उम्र में हो गई थी शादी

बचपन में राजेंद्र बाबू ने एक मौलवी से भी तालीम ली थी. उनके पिता चाहते थे कि बेटा हिंदी, फारसी और अंकगणित सीखे. प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने के बाद राजेंद्र बाबू छपरा जिला स्कूल चले गए. जून 1896 आया तो मात्र 12 साल की उम्र में राजवंशी देवी से शादी हो गई. लेकिन बचपन से बेहद होशियार राजेंद्र बाबू की पढ़ने-लिखने की ललक वक्त के साथ बढ़ती चली गई. अपने भाई महेंद्र प्रसाद का हाथ थामकर वह दो साल के लिए पटना की टीके घोष अकादमी चले गए. इसके बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी के एंट्रेंस एग्जाम में अव्वल आए और 30 रुपये प्रति माह की स्कॉलरशिप पाई. साल 1902 में प्रेसिडेंसी कॉलेज के साइंस स्ट्रीम में दाखिला लिया और फर्स्ट डिविजन से ग्रेजुएट हुए. उनकी काबिलियत को देखकर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स भी हैरान रह गए थे. उनके एग्जाम पेपर्स चेक करने वाले एक प्रोफेसर ने उनकी आंसर शीट पर लिखा था- 'परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है'.

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इसके बाद राजेंद्र प्रसाद ने तय किया कि वह आर्ट्स पर फोकस करेंगे. उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में एमए किया था. वह तब ईडन हिंदू छात्रावास में रहते थे. पढ़ाई-लिखाई में अव्वल होने के साथ-साथ वह काफी मुखर थे. द डॉन सोसाइटी के एक्टिव मेंबर थे. राजेंद्र बाबू को अपने परिवार और पढ़ाई दोनों से बेहद लगाव था. इसी भावना के कारण उन्होंने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी में शामिल होने से इनकार कर दिया था. यह वो वक्त था, जब उनकी माता चल बसीं और उनकी बहन 19 साल की उम्र में विधवा हो गई थी. राजेंद्र बाबू ने 1906 में पटना कॉलेज के हॉल में बिहारी छात्र सम्मेलन के गठन में अहम भूमिका निभाई थी. यह भारत में अपनी तरह का पहला संगठन था और इस संगठन से अनुग्रह नारायण सिन्हा और कृष्ण सिंह जैसे बिहार के नामी नेता निकले, जिन्होंने चंपारण और असहयोग आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी. 

 ये वक्त आते-आते राजेंद्र बाबू की ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी. कहा तो ये भी जाता है कि उस वक्त बिहार का शायद ही कोई ऐसा छात्र रहा हो, जिसने घर या स्कूल में यह न सुना हो कि उसे राजेंद्र बाबू की तरह पढ़ना चाहिए. उनके दौर के लोग उनकी स्मरण शक्ति देखकर हैरान रह जाते थे. लोग बताते थे कि वह अपनी जिंदगी का हर किस्सा आनायास बताया करते थे. पीआईबी के मुताबिक ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपनी 1,900 पन्नों की जीवनी अनायास ही लिख दी थी जैसे कि घटनाएं एक दिन पहले हुई हों.

प्रोफेसर से प्रिंसिपल तक का सफर

राजेंद्र बाबू ने पढ़ाई पूरी करने के बाद कई जगहों पर छात्रों को पढ़ाया. वह बिहार के मुजफ्फरपुर में लंगत सिंह कॉलेज में इंग्लिश के प्रोफेसर रहे और बाद में प्रिंसिंपल बने. हालांकि बाद में उन्होंने कानून की पढ़ाई करने के लिए कॉलेज छोड़ दिया और कलकत्ता के रिपुन कॉलेज (अब सुरेंद्रनाथ लॉ कॉलेज) में दाखिला लिया. साल 1909 में कलकत्ता से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह कलकत्ता सिटी कॉलेज में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर बन गए. 

साल 1915 का दौर आया तो कलकत्ता यूनिवर्सिटी के लॉ डिपार्टमेंट के मास्टर्स एग्जाम में बैठे और गोल्ड मेडल के साथ एग्जाम पास किया. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के लॉ कॉलेज से उन्होंने डॉक्टर की उपाधि हासिल की. 1916 में, वह बिहार और ओडिशा के हाईकोर्ट में शामिल हुए. 1917 में, उन्हें पटना यूनिवर्सिटी के सीनेट और सिंडिकेट के पहले सदस्यों में से एक के तौर पर नियुक्त किया गया. बिहार की सिल्क सिटी कहलाने वाले भागलपुर में भी उन्होंने वकालत की थी. 

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स्वतंत्रता संग्राम में किसके कहने पर हुए शामिल

गोपालकृष्ण गोखले के विचारों ने राजेंद्र प्रसाद पर गहरा असर डाला. साल 1906 में जब कांग्रेस का कलकत्ता में सलाना अधिवेशन हुआ, जब प्रसाद भी उसका हिस्सा थे. कलकत्ता में पढ़ाई करते हुए उन्होंने बतौर वॉलंटियर इसमें हिस्सा लिया था. लेकिन आधिकारिक तौर पर वह साल 1911 में कांग्रेस का हिस्सा बने. साल 1916 में कांग्रेस के लखनऊ सत्र में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई. चंपारण में फैक्ट फाइंडिंग मिशन के वक्त गांधी ने राजेंद्र बाबू से अपने वॉलंटियर्स के साथ आने को कहा. वह बापू से इतने प्रभावित हुए कि जैसे ही कांग्रेस ने 1920 में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पास किया, उन्होंने वकालत छोड़ दी. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वह कई बार जेल गए. उन्हें नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त गिरफ्तार कर लिया गया था. 

साल 1934 में कांग्रेस की कमान राजेंद्र बाबू के हाथों में आई. जब सुभाष चंद्र बोस ने 1939 में इस्तीफा दिया तब वह दोबारा अध्यक्ष बने. जब 2 सितंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में अंतरिम सरकार बनी तो राजेंद्र बाबू को खाद्य और कृषि विभाग दिया गया. इसके बाद 1946 में संविधान सभा के अध्यक्ष भी राजेंद्र बाबू चुने गए. 17 नवंबर 1947 को राजेंद्र बाबू उस वक्त तीसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बने, जब जेपी कृपलानी ने इस्तीफा दे दिया.

12 साल तक रहे राष्ट्रपति

26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ और राजेंद्र प्रसाद को पहला राष्ट्रपति चुना गया. लेकिन दुर्भाग्यवश एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का देहांत हो गया. घर में बहन का पार्थिव शरीर था और अगली सुबह उन्हें परेड की सलामी लेने जाना था. राजेंद्र बाबू ने पहले परेड की सलामी ली. इसके बाद बहन के अंतिम संस्कार में शामिल हुए. अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में राजेंद्र प्रसाद ने कई देशों का दौरा किया और कूटनीतिक संबंध स्थापित किए. वह लगातार 1952 और 1957 में राष्ट्रपति चुने गए. उनके कार्यकाल में पहली बार मुगल गार्डन आम जनता के लिए खुला था और तब से लेकर आजतक ये आम लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है. 12 साल राष्ट्रपति रहने के बाद साल 1962 में उन्होंने रिटायर होने का फैसला किया. मई में उन्होंने राष्ट्रपति भवन छोड़ दिया और 14 मई को 1962 को पटना आ गए और बिहार विद्यापीठ के परिसर में रहे. भारत-चीन युद्ध के एक महीने पहले 9 सितंबर 1962 को उनकी पत्नी का देहांत हो गया. राजेंद्र बाबू को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी नवाजा गया है. 78 साल की उम्र में 28 फरवरी 1963 को राजेंद्र बाबू ने अंतिम सांस ली. पटना में राजेंद्र स्मृति संग्रहालय है, जहां उनकी यादें आज भी जिंदा हैं. 

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