तीन साल से हिन्दुओं का दाह संस्कार कर रही ये मुस्लिम महिला, बचपन में बनना चाहती थी पुलिस अफसर
Advertisement

तीन साल से हिन्दुओं का दाह संस्कार कर रही ये मुस्लिम महिला, बचपन में बनना चाहती थी पुलिस अफसर

शॉल से सिर ढककर रहने वाली सुबीना रहमान हम सभी से बेहतर जानती हैं कि मौत का कोई धर्म नहीं होता है. सभी को खाली हाथ ही अंतिम सफर पर जाना होता है. आज वह समाज के लिए एक अनोखा मिसाल पेश कर रही हैं.

समाज में मिसाल पेश कर रही मुस्लिम महिला

त्रिशूर: कोरोना काल में जब लोगों के अपनों ने आखिरी वक्त में उनका साथ छोड़ दिया था, तब कोई ऐसा भी था जो बैगर धर्म देखे मृतकों को अंतिम संस्कार कर रहा था. श्मशान भूमि में हर सुबह पीतल का दिया जला कर मुस्लिम महिला सुबीना रहमान शवों के दाह संस्कार के लिए तैयारी करती हैं. इस दौरान वह कभी भी अपने धर्म के बारे में नहीं सोचतीं और पूरी हिन्दू मान्यता के साथ मृतक का अंतिम संस्कार करती हैं.

  1. मुस्लिम महिला ने पेश की मिसाल
  2. हिन्दू परंपरा से कर रहीं दाह संस्कार
  3. परिवार पालने के लिए चुना ये पेशा

तीन साल से कर रहीं अंतिम संस्कार

उम्र के करीब तीसरे दशक को पार कर रही, शॉल से सिर ढककर रहने वाली सुबीना रहमान हम सभी से बेहतर जानती हैं कि मौत का कोई धर्म नहीं होता है. सभी को खाली हाथ ही अंतिम सफर पर जाना होता है. आज वह समाज के लिए एक अनोखा मिसाल पेश कर रही हैं.

मध्य केरल के त्रिशूर जिले के इरिजालाकुडा में एक हिंदू श्मशान घाट में पिछले तीन साल से शवों का दाह संस्कार कर रही सुबीना ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाईं. उन्होंने बताया कि उन्होंने अब तक कई शवों का दाह संस्कार किया है जिनमें करीब 250 शव कोरोना मरीजों के भी शामिल हैं.

घंटों पीपीई किट में रहने की मजबूरी

कोरोना मरीजों के दाह संस्कार के दौरान घंटों पीपीई किट पहने रहने और पसीने से तर-बतर होने के बावजूद वह दिवंगत आत्मा की शांति के लिए अपने तरीके से प्रार्थना करना कभी नहीं भूलीं.

सुबीना ने लैंगिक धारणा को तोड़ते हुए शवों का दाह संस्कार करने का काम चुना जो आमतौर पर पुरुषों के लिए भी कठिन ही माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि दक्षिण भारत में वह पहली मुस्लिम महिला हैं जिन्होंने यह पेशा चुना है. हालांकि, 28 वर्षीय रहमान बेबाकी से कहती हैं कि वह किसी बंदिश को तोड़ने के लिए इस पेशे में नहीं आईं बल्कि अपना परिवार पालने के लिए उन्होंने यह काम चुना है. वह इसके जरिए अपने पति की मदद कर सकती हैं और बीमार पिता का इलाज करा सकती हैं जो लकड़हारा हैं.

पुलिस अफसर बनने की चाह

पेशे को लेकर विरोध होने और मजाक उड़ाए जाने से बेपरवाह सुबीना ने ने कहा, ‘बिना हरकत के, बंद आंखों और नाक में रुई भरी लाशों को देखना अन्य लोगों की तरह मेरे लिए भी बुरे सपने की तरह था लेकिन अब लाशें मुझे भयभीत नहीं करतीं.’ सुबीना ने कहा कि उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी कि वह श्मशान में शवों का दाह संस्कार करेंगी. बचपन में वह पुलिस अफसर बनना चाहती थीं.

उन्होंने कहा,‘यह किस्मत ही है कि यह काम मेरे कंधों पर आया और मैं इसे पूरी ईमानदारी और प्रतिबद्धता से करती हूं. मुझे यह पेशा चुनने को लेकर कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि हर कार्य सम्मानजनक होता है. मुझे यह काम करके गर्व महसूस होता है.’

ये भी पढ़ें: नशे का था आदी, शराब के चक्‍कर में खो गईं मां की अस्थियां, अब खोज में दर-दर भटक रहा

घर का काम पूरा करने के बाद सुबीना सुबह साढ़े नौ बजे श्मशान पहुंच जाती हैं. दो पुरुष सहकर्मियों की मदद से वह परिसर की सफाई करती हैं, एक दिन पहले हुए दाह संस्कार के अवशेष हटाती हैं और दीया जलाकर दिन की शुरुआत करती हैं. कोविड काल में उन्हें लगातार 14 घंटे ड्यूटी करनी पड़ी थी.

हर शव के मिलते हैं 150 रुपये

उन्होंने बताया ‘प्रति शव हमें 500 रुपये मिलते हैं और यह राशि तीन लोगों में बराबर बंटती है. एक दिन में औसतन छह या सात शव आते हैं. कोविड काल में हमें हर दिन 12 शवों का भी दाह संस्कार करना पड़ा.’

सुबीना के लिए पांच साल की उस बच्ची का दाह संस्कार बेहद पीड़ादायी था जो खेलते हुए गांव के तालाब में गिर गई थी और उसकी मौत हो गई थी. ‘उसके पिता विदेश में थे, अंतिम समय में वे पीपीई किट पहने हुए अपनी बेटी को देखने श्मशान पहुंचे. बहुत तड़प कर रोते हुए उन्होंने बच्ची की डेडबॉडी मुझे अंतिम संस्कार के लिए सौंपी थी और मैं भी खुद पर कंट्रोल नहीं कर पाई.’

बहरहाल, घर लौटते समय सुबीना अपनी यादों को साथ नहीं ले जाना चाहतीं. हालांकि वह कहती हैं कि हम मौत को रोक नहीं सकते, यह तो आनी है.

Trending news