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नई दिल्लीः अगर आपसे ये पूछा जाए कि 26 जनवरी 1950 को पहले गणतंत्र दिवस की परेड कहां हुई थी? तो आपमें से बहुत सारे लोगों का जवाब यही होगा कि पहली परेड राजपथ पर हुई थी. लेकिन ये जानकारी सही नहीं है. पहली बार ये परेड, राजपथ पर ना होकर उस समय के Irwin Stadium में हुई थी, जिसे आज नैशनल स्टेडियम के नाम से जाना जाता है. तब के Irwin Stadium के चारों तरफ चहारदीवारी न होने के कारण उसके पीछे पुराना किला साफ नज़र आता था. और उस समय की परेड की दुर्लभ तस्वीरें आज भी मौजूद हैं.
वर्ष 1950-1954 के बीच दिल्ली में गणतंत्र दिवस का समारोह, कभी Irwin Stadium में हुआ. कभी इसका आयोजन दिल्ली के Kingsway Camp में हुआ, तो कभी लाल किला और रामलीला मैदान में भी ये परेड आयोजित हुई. लेकिन वर्ष 1955 में राजपथ पर पहली बार इस परेड का आयोजन हुआ. और ये सिलसिला आज तक बना हुआ है. आठ किलोमीटर की दूरी तय करने वाली ये परेड रायसीना हिल से शुरू होकर राजपथ, इंडिया गेट से गुजरती हुई लालकिला पर ख़त्म होती है.
इस बार का गणतंत्र दिवस समारोह कई मायनों में अलग था. प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार इस समारोह में पगड़ी या साफा नहीं पहना. बल्कि इसकी जगह उन्होंने एक टोपी पहनी हुई थी, जो उत्तराखंड की पारम्परिक वेशभूषा का हिस्सा है. इस टोपी पर ब्रह्म-कमल का चिन्ह भी बना हुआ है, जिसे उत्तराखंड में देव-पुष्प का दर्जा दिया गया है. यानी वो पुष्प, जो देवों को समर्पित है. प्रधानमंत्री मोदी.. केदारनाथ में पूजा अर्चना के दौरान भी इसी ब्रह्म कमल का इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने एक गमछा भी डाला हुआ था, जो मणिपुर की पारम्परिक वेषभूषा का हिस्सा है.
देश में पीएम मोदी की टोपी और गमछे पर बहस होती रही. और इसे उत्तराखंड और मणिपुर में अगले महीने होने वाले विधान सभा चुनाव से जोड़ कर देखा गया. इसके अलावा, ये भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तराखंड की पारम्परिक टोपी पहन कर एक तरह से देश के पहले CDS जनरल बिपिन रावत को श्रद्धांजलि दी है. क्योंकि वो भी उत्तराखंड से ही थे और जब भी उत्तराखंड जाते थे तो उन्हें कार्यक्रमों में इसी टोपी में ही देखा जाता था.
हालांकि, हमें लगता है कि इस टोपी और गमछे के पीछे एक और महत्वपूर्ण पहलू है, जिसके बारे में शायद किसी ने सोचा ही नहीं. अगर आप 2015 से 2022 तक की प्रधानमंत्री मोदी की सभी तस्वीरों को एक साथ देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि प्रधानमंत्री हर साल अपनी वेशभूषा, पगड़ी और गमछे को लेकर प्रयोग करते रहे हैं. जैसे 2021 में उन्होंने गुजरात की प्रसिद्ध 'हलारी पग' पहनी थी. जबकि इससे पहले वो अलग अलग रंगों की पगड़ियां या साफा पहनते रहे हैं.
इसके पीछे एक खास सोच है और वो है भारतीय संस्कृति को जीवित रखने की सोच, जिसे पहले मुगलों ने समाप्त करने की कोशिश की और फिर 200 वर्षों तक अंग्रेज़ों ने इसे नुकसान पहुंचाया. 2019 में हुए एक सर्वे में हर पांच में से तीन भारतीयों ने बताया था कि वो भारत की पारम्परिक पगड़ियां पहनने से ज़्यादा, पश्चिमी देशों में पहने जाने वाली Caps और Hats को पसन्द करते हैं. जबकि ये Caps और Hats, भारत की देन है ही नहीं.
Hats ब्रिटेन से आई हैं और Caps को Hats का आधुनिक वर्जन माना जाता है, जिन्हें पश्चिमी देशों में पहना जाता था. लेकिन इसी दौर में भारत में पगड़ी और पारम्परिक टोपियां पहनने का चलन था. लेकिन धीरे-धीरे ये पगड़ियां अपनी पहचान खोने लगीं. एक ज़माने में भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग रंग और आकार की पगड़ियां पहनी जाती थीं. लेकिन अंग्रेज़ों ने इन पगड़ियों को पिछड़ेपन की निशानी बताते हुए भारत के लोगों को Hats पहनने के लिए प्रेरित किया.
हालांकि नेताजी सुभाष चंद्र ने जब आज़ाद हिन्द फौज बनाई, तब उन्होंने Hat नहीं पहनी. बल्कि उन्होंने खाकी रंग की एक टोपी पहनी, जो वैसी ही दिखती है, जैसी उत्तराखंड की पारम्परिक टोपी है. कहने का मतलब ये है कि, अंग्रेज़ों ने भारत के संसाधनों को ही नहीं लूटा. बल्कि हमारी संस्कृति को भी कमज़ोर किया. और स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ये नारा काफ़ी प्रसिद्ध था कि भारत की पगड़ी को अंग्रेज़ों की Hat से लड़ना है. इसके लिए वर्ष 1907 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़.. पगड़ी सम्भाल जट्टा नाम का एक आन्दोलन भी हुआ, जिसमें शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह भी शामिल हुए थे. गणतंत्र दिवस का समारोह भारत, उसकी पहचान, उसकी संस्कृति और उसके चरित्र को दिखाता है. इसलिए ये समारोह, भारत के बारे में ही होना चाहिए. और प्रधानमंत्री पिछले 8 वर्षों से अलग-अलग राज्यों की पगड़ी, टोपी और गमछा पहन कर ऐसा ही कर रहे हैं.