मुश्किल सवाल पूछने वाले पत्रकार का राहुल गांधी कैसे करते हैं अपमान, जरा आप भी देख लीजिए
Advertisement
trendingNow11052918

मुश्किल सवाल पूछने वाले पत्रकार का राहुल गांधी कैसे करते हैं अपमान, जरा आप भी देख लीजिए

राहुल गांधी की सबसे बड़ी शिकायत ये रहती है कि हमारे देश का मीडिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सवाल नहीं पूछता. लेकिन अब उनके व्यवहार से ऐसा लगता है कि वो भी ऐसा ही चाहते हैं कि मीडिया उनसे कोई सवाल ना करे. जो वो कहें, उन्हें ही सच मान ले और चुप रहे.

मुश्किल सवाल पूछने वाले पत्रकार का राहुल गांधी कैसे करते हैं अपमान, जरा आप भी देख लीजिए

नई दिल्ली: आज हम आपको बताएंगे कि अगर कोई पत्रकार राहुल गांधी से मुश्किल सवाल पूछ ले तो वो कैसे उस पत्रकार का अपमान करते हैं. अगर राहुल गांधी से उनके मनपसंद सवाल ना पूछे जाएं तो वो उल्टा पत्रकारों से ही सवाल पूछने लगते हैं. हाल ही में एक सवाल के जवाब में उन्होंने एक पत्रकार से पूछा कि क्या वो सरकार के लिए काम करते हैं? एक दूसरे सवाल के जवाब में उन्होंने एक और पत्रकार से कहा कि सरकार की दलाली करना बन्द करो.

  1. नेहरू-गांधी सरकार में थे दरबारी पत्रकार
  2. मुश्किल सवालों से डरते हैं राहुल गांधी
  3. लिंचिंग को लिंचिंग कहने की हिम्मत नहीं

मुश्किल सवालों से डरते हैं राहुल गांधी

असल में गांधी परिवार को लगता है कि जो लोग उनके दरबारी पत्रकार नहीं हैं, वो सब सरकार के दलाल हैं. राहुल गांधी के नाना, उनकी दादी, उनके पिता और फिर उनकी मम्मी की सरकार में ज्यादातर पत्रकार इस खानदान के दरबारी पत्रकार होते थे. उन्हें इनाम में अशरफियां मिलती थीं, पुरस्कार दिए जाते थे, पेट्रोल पम्प मिलते थे और मंत्रियों की लिस्ट भी उनके कहने से बनती थी. इसलिए राहुल गांधी को मुश्किल सवालों की आदत नहीं है.

लेकिन आज उन्हें अपनी छोटी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा से सीखना चाहिए कि आज के जमाने में मीडिया के मुश्किल सवालों का जवाब शालीनता के साथ कैसे दिया जाता है. क्योंकि यही एक अच्छे नेता के गुण हैं. राहुल गांधी ने पत्रकारों के साथ बदसलूकी उस समय की, जब वो लखीमपुर मामले में केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के इस्तीफे की मांग को लेकर विपक्षी सांसदों के साथ संसद भवन परिसर में पैदल मार्च निकाल रहे थे.

कांग्रेसी नेताओं पर लगे दलाली के आरोप

अक्सर जब किसी नेता के पास किसी प्रश्न का जवाब नहीं होता तो वो इसी तरह सवाल पूछने वालों पर ही सवाल उठाने लगता है और राहुल गांधी ऐसा ही कर रहे हैं. वो मीडिया को सरकार का दलाल तो बताते हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि आजादी के बाद 74 वर्षों के इतिहास में नेहरू-गांधी परिवार, कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं पर कई बार दलाली खाने के आरोप लग चुके हैं.

एक और बात, राहुल गांधी की सबसे बड़ी शिकायत ये रहती है कि हमारे देश का मीडिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सवाल नहीं पूछता. लेकिन अब उनके व्यवहार से ऐसा लगता है कि वो भी ऐसा ही चाहते हैं कि मीडिया उनसे कोई सवाल ना करे. जो वो कहें, उन्हें ही सच मान ले और चुप रहे.

अपने पक्ष का मीडिया चाहते हैं राहुल

वर्ष 1970 में एक फिल्म आई थी, जिसका नाम था सफर. इसके एक मशहूर गाने के बोल थे '...जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे...' ये लाइनें राहुल गांधी पर आज पूरी तरह फिट बैठती हैं. क्योंकि वो यही चाहते हैं कि मीडिया उनसे केवल उनके पक्ष की ही बात करे.

अगर कोई उनसे मुश्किल सवाल पूछ लेगा तो वो उस पत्रकार को सरकार का दलाल बता देंगे और ऐसा वो पिछले दो दिन से नहीं कर रहे हैं. बल्कि उनके पिछले कई बयानों में यही देखा गया है कि जब भी कोई पत्रकार उनसे कड़वा सवाल पूछ लेता है तो वो दुर्व्यवहार करते हैं और मीडिया को सरकार का दलाल बताने लगते हैं.

प्रियंका गांधी की समझ ज्यादा

आज 51 वर्षीय राहुल गांधी चाहें तो वो अपनी छोटी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा से काफी कुछ सीख सकते हैं. प्रियंका उम्र में राहुल गांधी से दो साल छोटी हैं. उनकी उम्र 49 साल है. लेकिन परिपक्वता के मामले में वो राहुल गांधी से कई साल बड़ी नजर आती हैं. मीडिया के मुश्किल सवालों और सच का सामना कैसे करना चाहिए, ये राहुल गांधी की तुलना में प्रियंका गांधी वाड्रा ज्यादा बेहतर समझती हैं.

आज जब महिलाओं के विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष से 21 वर्ष करने का कानून संसद में पास हुआ तो प्रियंका गांधी वाड्रा ने इस पर पत्रकारों से बात की. इस दौरान जब उनसे कुछ मुश्किल सवाल पूछे गए तो उन्होंने राहुल गांधी की तरह पत्रकारों को सरकार का दलाल नहीं बताया. बल्कि पूरी शालीनता के साथ इन सवालों का जवाब दिया.

क्या 2014 से पहले नहीं हुई लिंचिंग?

राहुल गांधी आज जिस सवाल पर भड़के, वो उनके एक ट्वीट को लेकर उनसे पूछा गया था. इस ट्वीट में राहुल गांधी ने लिखा था, '2014 से पहले ‘लिंचिंग’ शब्द सुनने में भी नहीं आता था.' राहुल गांधी शायद सही कह रहे हैं क्योंकि जब इस देश में कांग्रेस की सरकारें थीं, तब पुरस्कार पाने वाले पत्रकार लिंचिंग को लिंचिंग कहते ही नहीं थे. उनके अन्दर इस शब्द का इस्तेमाल करने की हिम्मत ही नहीं थी.

सोचिए वर्ष 1946 में विभाजन से पहले संयुक्त बंगाल में जो हिन्दू मुसलमान दंगे भड़के थे, वो मॉब लिंचिंग नहीं थी? 1947 में जब महात्मा गांधी बंगाल गए थे, तब वहां दंगों के दौरान जिन लोगों को उग्र भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था, वो मॉब लिंचिंग नहीं थी? उसे लिंचिंग क्यों नहीं कहना चाहिए? साल 1947 के बंटवारे के दौरान जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार में जो 10 से 20 लाख लोग मारे गए, क्या वो भी मॉब लिंचिंग नहीं थी?

1984 के दंगे मॉब लिंचिंग नहीं?

साल 1984 के सिख दंगों में जिन लोगों की उग्र भीड़ ने निर्ममता से हत्या की, क्या वो मॉब लिंचिंग नहीं थी? उस समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो यहां तक कहा था कि, जब भी कोई बड़ा पेड़ हिलता है तो धरती थोड़ी हिलती है. उस समय दिल्ली की सड़कों पर उग्र भीड़ खून का बदला खून से लेने के नारे लगा रही थी और लोगों को खुलेआम मारा जा रहा था. क्या वो मॉब लिंचिंग नहीं थी?

वर्ष 1990 में जिस तरह से कश्मीरी पंडितों की बड़े पैमाने पर हत्याएं हुईं, क्या वो मॉब लिंचिंग नहीं थी? वर्ष 2006 में जब देश में UPA की सरकार थी और डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, उस समय भिवंडी में एक मस्जिद के साथ पुलिस स्टेशन का निर्माण करने पर दो पुलिसवालों को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था, वो मॉब लिंचिंग नहीं थी?

लिंचिंग कहने की हिम्मत नहीं दिखाई

हकीकत तो ये है कि जब तक इस देश में नेहरू-गांधी परिवार का शासन रहा, तब इस परिवार की गोदी में बैठने वाले पत्रकारों ने लिंचिंग को लिंचिंग कहने की हिम्मत ही नहीं दिखाई और शायद इसीलिए ये शब्द 2014 से पहले इतना नहीं सुना गया. ये ट्रेंड तो 2014 के बाद शुरू हुआ, जब हमारे देश के बुद्धिजीवियों और खास विचारधारा के पत्रकारों ने धर्म और जाति से जुड़ी आपराधिक घटनाओं को लिंचिंग बताना शुरू किया.

वैसे राहुल गांधी को हम बता दें कि लिंचिंग शब्द का इतिहास लगभग 250 साल पुराना है. माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति अमेरिका की क्रान्ति के दौरान हुई थी और 20वीं शताब्दी में ये शब्द पश्चिमी देशों में काफी लोकप्रिय हुआ. दिलचस्प बात ये है कि जब पश्चिमी देशों में भीड़ द्वारा किसी की हत्या करने के लिए लिंचिंग जैसे शब्द इस्तेमाल होते थे, तब भारत में 1984 के सिख दंगों के दौरान जो लोग मारे गए थे, उन पर मीडिया खुल कर बोलने की भी हिम्मत नहीं दिखाता था. 

Trending news