महाराजा भृतहरि को अपनी तीसरी पत्नी पिंगला से अत्यधिक मोह था. लेकिन पिंगला महाराजा की जगह कोतवाल पर ज्यादा मोहित रहती थी और महाराजा के साथ छल किया.
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Alwar: तपो भूमि कहे जाने वाले अलवर में उज्जैन के महाराजा भृतहरि ने राजपाठ छोड़ अलवर के सरिस्का के जंगलों में तपस्या कर वैराग्य को धारण किया था और यहीं महाराजा भृतहरि समाधि में लीन हो गए . आज महाराजा भृतहरि को त्याग और तपस्या की मिसाल बनें लोकदेवता के रूप में माना जाता है. जिसके चलते सरिस्का की वादियों में स्थित भृतहरि बाबा की समाधि पर हर साल मेला लगता है. जहां देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु शामिल होते है.
अलवर मार्ग पर कुछ ही दूरी पर सरिस्का की वादियों में स्थित भृतहरि बाबा का स्थान है. जहां उज्जैन के प्रतापी महाराजा भृतहरि ने राजपाठ छोड़कर सन्यास ग्रहण किया और जंगलों में निकल पड़े , अलवर के तिजारा होते हुए अलवर के सरिस्का के जंगलों में आ गए जहां उन्होंने तपस्या की और यही समाधि में लीन हो गए.
महाराजा से कैसे बने बाबा भृतहरि
दरअसल महाराजा भृतहरि ने राजपाट छोड़ वैराग्य क्यों धारण किया, क्यों सन्यास ग्रहण किया. इसमें उनके गुरु गोरखनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. कहा जाता है कि महाराजा भृतहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला से अत्यधिक मोह रखते थे. जिसके चलते महाराजा भर्तहरि अपने कर्तव्यों को भी भूलने लगे. एक दिन गुरु गोरखनाथ उनके यहां आए महाराजा ने उनकी अच्छी आवभगत की जिससे प्रसन्न होकर गुरु गोरखनाथ ने उन्हें एक अमृतफल दिया और कहा इससे तुम हमेशा जवान रहोगे और जनता की सेवा ज्यादा कर पाओगे.
राजा सबसे ज्यादा अपनी पत्नी पिंगला से अथाह प्रेम करते थे. राजा ने सोचा यह फल वह पत्नी पिंगला को देंगे तो वह हमेशा सुंदर बनी रहेगी. यह सोचते हुए राजा ने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया , पिंगला महाराजा की जगह कोतवाल पर ज्यादा मोहित रहती थी. उसने वह फल कोतवाल को दे दिया, लेकिन कोतवाल का भी एक वैश्या से संपर्क था. कोतवाल ने सोचा वह यह फल वैश्या को दे देगा तो वह हमेशा सुंदर और जवान बनी रहेगी, कोतवाल ने वह अमृत फल वैश्या को दे दिया. वैश्या ने सोचा कि सारी जिंदगी वह जवान रहकर इस नरक जैसी जिंदगी का क्या करूंगीं, इसकी आवश्यकता तो उज्जैन के महाराजा को है जो जनता की सेवा कर रहे है.
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वैश्या ने महाराजा भृतहरि के दरबार में पहुंच महाराजा को फल भेंट किया. महाराजा अमृत फल को वैश्या के पास देख कर चौंक गए, उन्होंने वैश्या से अमृतफल के बारे में जानकारी ली तो पता चला कोतवाल ने दिया है. महाराजा ने कोतवाल को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि रानी पिंगला ने उसे फल दिया हैं. यह सुनकर राजा बहुत दुखी हुए है और तब जाकर राजा की आंखे खुली कि जिससे वह अटूट प्यार करते हैं, उस महारानी पिंगला ने उनसे छल किया है. उसके बाद महाराजा भृतहरि ने राजपाठ की जिम्मेदारी अपने भाई विक्रमादित्य को सौंपकर वैराग्य धारण करके संयास पर निकल पड़ें.
संयास के दौरान उन्होंने अलवर के तिजारा में बन रही एक गुंबद में मजदूरी की. वहां शाम को खाना खाकर उसी गुंबद में ही तपस्या करते थे. जिसे अब भृतहरि गुम्बद के नाम से जाना जाता है. ऐसे ही महाराजा भृतहरि जंगलों से घूमते-घूमते अलवर के सरिस्का के जंगलों में पहुंचे, जहां उन्होंने कठोर तपस्या की और यहां समाधि में लीन हो गए.
नाथ संप्रदाय सहित हजारों की संख्या में साधु संत होते हैं शामिल
आज यह स्थान देश भर में मशहूर है. महाराजा भृतहरि की तपोभूमी पर उनकी समाधि है. जहां हर साल यहां मेला लगता है. बता दें कि इस बार भी अलवर में 4 सितंबर को यहां मेला लगेगा. अलवर के इस लक्खी मेले में राजस्थान सहित अन्य राज्यों से भी भारी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं. साथ ही इसमें नागा साधुओं से लेकर नाथ संप्रदाय सहित हजारों की संख्या में साधु संत शामिल होते है . बाबा भृतहरि के नाम से विख्यात इस स्थान पर श्रद्धालु दंडोति लगाते हुए पहुंचते है. वहीं मन्नत पूरी होने पर लोग यहां आकर सवामणी और भंडारे के आयोजन भी किया जाता है.
सरपंच पति पेमाराम सैनी ने बताया कोरोना के चलते पिछले दो साल से मेले का आयोजन नहीं हो पाया था, इसलिए इस बार ज्यादा भीड़ आने की उम्मीद है. वहीं मौसमी बीमारियों को देखते हुए भी मेला स्थल पर साफ सफाई की व्यवस्थाओं पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. साथ ही प्रशासनिक स्तर पर इसकी बड़े स्तर पर तैयारियां की जा रही है. कलेक्टर जितेंद्र कुमार सोनी और एसपी तेजस्वीनी गौतम ने वहां पहुंच कर व्यवस्थाओं की जानकारी ली. वहीं पिछले दिनों आये रेंज आईजी उमेश दत्ता ने भी मौके पर पहुंचकर सुरक्षा व्यवस्थाओं का जायजा लिया.
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