Dantaramgarh Vidhansabha Seat : दांतारामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में विजेंद्र सिंह यहां से मौजूदा विधायक हैं. उनके सामने उनकी ही पत्नी रीटा सिंह चुनावी ताल ठोक सकती हैं यानी चुनावी जंग पति-पत्नी के बीच देखने को मिल सकती है.
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Dantaramgarh Vidhansabha Seat : शेखावाटी क्षेत्र में कांग्रेस का सबसे मजबूत किला यानी दांतारामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में इस साल बेहद ही दिलचस्प और रोमांचक मुकाबला होने वाला है, क्योंकि इस चुनाव में पति-पत्नी एक दूसरे को चुनावी मैदान में चुनौती देते नजर आ सकते हैं. वहीं सीकर की दांतारामगढ़ विधानसभा सीट पर हुए 15 विधानसभा चुनावों में से 9 बार कांग्रेस का ही कब्जा रहा. जिसमें से 7 बार कांग्रेस के नारायण सिंह चौधरी ने जीत हासिल की. अब उनके विधायक बेटे विजेंद्र सिंह यहां से विधायक है.
दांतारामगढ़ विधानसभा क्षेत्र के पहले विधायक भैरों सिंह शेखावत चुने गए थे, जो बाद में राजस्थान के मुख्यमंत्री और देश के उपराष्ट्रपति भी बने. वहीं कांग्रेस के नारायण सिंह यहां से सात बार विधायक चुने गए. नारायण सिंह दांतारामगढ़ से पहली बार 1972 फिर 1980, 1985, 1993, 1998, 2003 और फिर 2013 में विधायक चुने गए. सबसे खास बात यह है कि अब तक के चुनावी इतिहास में बीजेपी इस सीट से एक बार भी जीत हासिल नहीं कर पाई है.
2023 के विधानसभा चुनाव में दांतारामगढ़ में बेहद ही दिलचस्प चुनाव देखने को मिल सकता है. यहां से मौजूदा विधायक नारायण सात बार विधायक रह चुके हैं. नारायण सिंह के पुत्र विजेंद्र सिंह यहां से मौजूदा विधायक हैं. उनके सामने उनकी ही पत्नी रीटा सिंह चुनावी ताल ठोक सकती हैं. रीटा सिंह ने हाल ही में जननायक जनता पार्टी (JJP) का दामन थामा है और उन्हें महिला मोर्चा की जिम्मेदारी सौंप गई है. राजस्थान चुनाव में बीजेपी जेजेपी के साथ गठबंधन कर सकती है और संयुक्त रूप से रीटा सिंह को उम्मीदवार बना सकती है. वहीं बात बीजेपी की करें तो बीजेपी में कोई ऐसा बड़ा चेहरा नजर नहीं आता है जो विजेंद्र सिंह के सामने चुनाव लड़कर यह सीट निकाल सके.
दांतारामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में सबसे बड़ी आबादी जाट मतदाताओं की है. इसके बाद यहां बड़ी संख्या में कुमावत समाज के मतदाता भी है. यही कारण रहा कि भाजपा ने पिछले चुनाव में कुमावत उम्मीदवार उतार कर दांव खेला. हालांकि बीजेपी का यह दांव सफल ना हो सका.
1951 के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से विद्याधर चुनावी मैदान में उतरे तो वहीं भारतीय जन संघ से भैरव सिंह शेखावत ने ताल ठोकी. इस चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार विद्याधर को 31 फ़ीसदी मतों के साथ 7139 मतदाताओं ने अपना समर्थन दिया जबकि भैरों सिंह शेखावत को 9,972 लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ और उन्हें दंतारामगढ़ की 44 फीसदी से ज्यादा जनता का साथ मिला और उसके साथ ही भैरों सिंह शेखावत दांतारामगढ़ के पहले विधायक चुने गए.
1957 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बदलते हुए जगन सिंह को टिकट दिया तो वहीं राम राज्य परिषद की ओर से मदन सिंह ने दांव ठोका. इस चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार जगन सिंह को 13,083 वोट मिले तो वहीं राम राज्य परिषद के मदन सिंह को 17,770 मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हुआ. उसके साथ ही मदन सिंह दांतारामगढ़ से विधायक चुने गए.
1962 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर जगन सिंह को ही टिकट दिया तो वहीं निर्दलीय के तौर पर मदन सिंह ने ताल ठोकी. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से जवाहर सिंह चुनावी मैदान में उतरे. इस चुनाव में आखिरकार कांग्रेस दांतारामगढ़ में पहली जीत हासिल करने में कामयाब हुई और जगन सिंह 17,327 मतों से विधायक चुने गए जबकि उन्हें निर्दलीय उम्मीदवार मदन सिंह से कड़ी टक्कर मिली. वही कम्युनिस्ट पार्टी तीसरे स्थान पर रही.
1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर से जगन सिंह को चुनावी मैदान में उतारा तो वहीं भारतीय जन संघ से मदन सिंह ने ताल ठोकी. इस चुनाव में जगन सिंह को करारी हार का सामना करना पड़ा और उन्हें 18,363 मत हासिल हुए जबकि भारतीय जन संघ के मदन सिंह को 29,669 वोट मिले इसके साथ ही मदन सिंह चुनाव जीतने में कामयाब हुए.
1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से नारायण सिंह चुनावी ताल ठोकने उतारे तो वहीं भारतीय जन संघ की पार्टी से चुनाव लड़ने वाले नारायण सिंह ने स्वराज पार्टी से ताल ठोकी. इस चुनाव में कांग्रेस के नारायण सिंह चुनाव जीतने में कामयाब हुए और उन्हें 27,573 वोट मिले. इसके साथ ही मदन सिंह को 23,978 वोटों से संतोष करना पड़ा.
1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर नारायण सिंह पर भरोसा जताया और उन्हें चुनावी जंग में उतारा तो वहीं मदन सिंह ने इस बार निर्दलीय ही ताल ठोकी जबकि जनता पार्टी की ओर से गोपाल सिंह शेखावत चुनावी ताल ठोकने उतरे. इस चुनाव में गोपाल सिंह शेखावत सिर्फ 18% वोट हासिल कर पाए जबकि नारायण सिंह ने 38 फ़ीसदी वोटों के साथ 19,462 मत हासिल किया. वहीं निर्दलीय ही ताल ठोकने वाले मदन सिंह को 20,686 मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हुआ और उसके साथ ही मदन सिंह एक बार फिर दांतारामगढ़ से विधायक चुने गए.
1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जबरदस्त गुटबाजी के दौर से जूझ रही थी. कांग्रेस आई की ओर से नारायण सिंह ने ताल ठोकी तो वहीं जनता पार्टी (जेपी) की ओर से कल्याण सिंह चुनावी मैदान में आए. इस चुनाव में कल्याण सिंह को 25,768 वोट मिले तो वहीं नारायण सिंह को 27,229 मत मिले और इसके साथ ही नारायण सिंह एक बार फिर अपनी कुर्सी पाने में कामयाब हुए.
1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का भरोसा नारायण सिंह पर कायम रहा तो वहीं बीजेपी की ओर से जगदीश चुनावी मैदान में उतरे. इस चुनाव में बीजेपी के जगदीश को 19,224 मिले तो वहीं कांग्रेस के नारायण सिंह को 42,114 मतदाताओं का समर्थन हासिल हुआ. इसके साथ ही नारायण सिंह लगातार दूसरी बात जीतने में कामयाब हुए.
1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से एक बार फिर नारायण सिंह ही उम्मीदवार बने जबकि जनता दल के अजय सिंह ने चुनावी मैदान में उतरे. यह चुनाव नारायण सिंह के लिए भारी साबित हुआ और इसमें अजय सिंह जीतने में कामयाब हुए. उन्हें 42,475 वोट मिले तो वहीं तीन बार के विधायक नारायण सिंह को 36,312 मत ही हासिल हो सके.
1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने नारायण सिंह को आगे किया जबकि भाजपा की ओर से शिवनाथ सिंह शेखावत चुनावी ताल ठोकने उतरे. चुनाव में नारायण सिंह अपना खोया मुकाम हासिल करने में कामयाब हुए और उन्हें 56,925 मतदाताओं का साथ मिला जबकि शिवनाथ सिंह को 41,788 वोट मिले और शिवनाथ सिंह की चुनाव में हार हुई.
1998 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर से नारायण सिंह को ही टिकट दिया जबकि भाजपा की ओर से दोबारा शिवनाथ सिंह ताल ठोकने उतरे यानी मुकाबला एक बार फिर नारायण सिंह बनाम शिवनाथ सिंह था. इस चुनाव में शिवनाथ सिंह को 39,932 वोट मिले तो वही नारायण सिंह को 58,899 वोट मिले. इसके साथ नारायण सिंह पांचवीं बार दांतारामगढ़ से विधायक चुने गए.
2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से बेशक एक ही नाम था और वह था नारायण सिंह का, जबकि निर्दलीय के तौर पर मदन लाल पुजारी चुनावी ताल ठोकने उतरे. वहीं बीजेपी ने अपनी रणनीति बदली और गोविंद सिंह लांबा को टिकट दिया. साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से हरपुर सिंह चुनावी मैदान में उतरे. बसंत लाल मोरवाल भी राजस्थान सामाजिक न्याय मंच से चुनावी ताल ठोकने उतरे. इस चुनाव में तीन नहीं, चार नहीं, बल्कि 5 प्रत्याशियों के बीच जबरदस्त घमासान देखने को मिला. इस चुनाव में जीत तो नारायण सिंह की हुई जिन्हें 31% जनता के साथ 40,588 वोट मिले तो वहीं मदनलाल पुजारी दूसरे, गोविंद लाल लांबा तीसरे, बसंत लाल मोरवाल चौथे और हरफूल सिंह पांचवें स्थान पर रहे.
2008 के विधानसभा चुनाव में समीकरण बदल गए. कांग्रेस ने फिर से 6 बार के विधायक रह चुके नारायण सिंह को चुनावी मैदान में उतारा तो वहीं बीजेपी की ओर से पुष्पा कंवर चुनावी ताल ठोकने उतरी. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी से अमराराम चुनावी ताल ठोकने उतरे. इस चुनाव में दांतारामगढ़ की जनता का समर्थन अमराराम को मिला. अमराराम 34 % वोटों के साथ 45,909 मत हासिल करने में कामयाब हुए. इसके साथ ही दांतारामगढ़ में पहली बार सीपीआई की जीत हुई. 6 बार के विधायक नारायण सिंह चुनाव हार गए और उन्हें 40,090 मत मिले और बीजेपी तीसरे स्थान पर रही.
2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने नारायण सिंह को चुनावी ताल ठोकने के लिए भेजा तो वहीं बीजेपी की ओर से हरीश चंद्र किस्मत आजमा ने उतरे तो वहीं उस वक्त के तत्कालीन विधायक अमराराम ने भी कम्युनिस्ट पार्टी से ताल ठोकी. इस चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बीच बेहद करीबी मुकाबला रहा और मोदी लहर के बावजूद बीजेपी उम्मीदवार हरीश चंद्र की हार हुई, जबकि विपरीत स्थिति में भी नारायण सिंह अपनी सीट निकालने में कामयाब रहे और उन्हें 60,926 वोट मिले जबकि हरिश्चंद्र भी 60,351 वोट पाने में कामयाब रहे. जबकि अमराराम महेश 18 फ़ीसदी वोट ही हासिल कर सके.
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से 7 बार विधायक रह चुके नारायण सिंह के बेटे विरेंद्र सिंह चुनावी ताल ठोकने उतरे तो वहीं बीजेपी ने एक बार फिर हरीश चंद कुमावत पर ही दांव खेला. इस चुनाव में विरेंद्र सिंह अपनी सीट निकालने में कामयाब रहे और उन्हें 64,931 वोट मिले जबकि बीजेपी के हरिश्चंद्र भी 34,011 वोट लेने में कामयाब हुए. इसके साथ ही वीरेंद्र सिंह दांतारामगढ़ से 15 वें विधायक चुने गए.