पराक्रम यात्रा हल्दीघाटी से 1350 किमी. की यात्रा कर पहुंचेगी चंबल, 'बलिदान दिवस' पर होगा कलश विसर्जन
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पराक्रम यात्रा हल्दीघाटी से 1350 किमी. की यात्रा कर पहुंचेगी चंबल, 'बलिदान दिवस' पर होगा कलश विसर्जन

देश और धर्म की अस्मिता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए अपना सर्वस्व बलिदान देने वाले वीरों की समाधि पर पुष्पांजलि देकर उन पुष्प और "रक्त ताल" की पवित्र बलिदानी मिट्टी को एक ताम्र कलश में रखकर हल्दीघाटी से 1350 किलोमीटर की यात्रा कर चंबल घाटी पहुंचेगी. 

 स्वाभिमान कलश यात्रा कर रक्त ताल की पवित्र मिट्टी हल्दी घाटी से प्रकट गंगा पहुंचेगी.

चित्तौड़गढ़:  पराक्रम यात्रा/ स्वाभिमान कलश यात्रा के संयोजक गोपाल सिंह राठौड़ ने बताया कि इस वर्ष ऐसा संयोग बना है कि 10 जून को निर्जला एकादशी है, और इस अवसर पर यह निर्णय लिया गया कि इस पवित्र दिन देश और धर्म की अस्मिता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए अपना सर्वस्व बलिदान देने वाले वीरों की समाधि पर पुष्पांजलि देकर उन पुष्प और "रक्त ताल" की पवित्र बलिदानी मिट्टी को एक ताम्र कलश में रखकर हल्दीघाटी से 1350 किलोमीटर की यात्रा कर चंबल घाटी में स्थित "भवेश्वरी देवी" मंदिर जो तोमरो की चंबल क्षेत्र में प्राचीन राजधानी" ऐसाह" के पास स्थित है. 

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उस स्थान को "प्रकट गंगा" कहते हैं. उस पवित्र स्थान पर 18 जून बलिदान दिवस के अवसर पर कलश विसर्जन किया जाए. यही इस पवित्र यात्रा का उद्देश्य रहेगा. गोपाल सिंह ने अनुरोध किया है कि हमारे मान सम्मान और हमारे अस्तित्व के लिए दिए गए पूर्वजों के बलिदान को पुष्पांजलि देकर स्वयं गौरवान्वित महसूस करें. गोपाल सिंह के अनुसार इस ऐतिहासिक यात्रा को सफल बनाने के लिए चंद्रभान सिंह चौहान आक्या और इनाणी ग्रुप के राजेश इनाणी का महत्वपूर्ण योगदान रहा.

पराक्रम यात्रा कार्यक्रम
10 जून निर्जला एकादशी को प्रातः 8:00 बजे हल्दीघाटी में शहीदों को पुष्पांजलि देकर शहादत स्थल से पावन बलिदानी मिट्टी तांबे के कलश में रखकर प्रातः 9:00 बजे "रक्त ताल "से रवाना होकर नाथद्वारा होते हुए 11:00 बजे मावली होकर 12:00 बजे फतहनगर पहुंचने की संभावना रहेगी. 2:00 बजे भूपालसागर और 3:00 बजे कपासन होते हुए नारेला होकर 6:00 बजे तक भोपाल राजपूत छात्रावास पहुंचेगी, जहां रात्रि विश्राम होगा. 11 जून प्रातः 8:00 बजे रवाना होकर यात्रा सेंती होते हुए बिरला अस्पताल से होकर मुख्य मार्ग से होते हुए ओछड़ी होकर शंभूपुरा से 10:00 बजे निंबाहेड़ा पहुंचेंगे. 

नया गांव होते हुए 11:00 बजे जावद एवं 12:00 बजे नीमच प्रवेश करेंगे सिटी कोतवाली के सामने "शहीद स्मारक "पर पुष्पांजलि अर्पित कर नीमच सिटी होते हुए फव्वारा चौक से "शहीद स्थल" होकर सदर बाजार से बारादरी होकर मंदसौर के लिए 4:00 बजे रवानगी होगी मल्हारगढ़ पिपलिया होते हुए 6:00 बजे मंदसौर प्रवेश रात्रि विश्राम खाटू श्याम मंदिर मंदसौर रहेगा.

12 जून को प्रातः 8:00 बजे प्रताप मूर्ति पर पुष्पांजलि करते हुए सदर बाजार होते हुए पशुपतिनाथ दर्शन कर चंद्रपुरा होते हुए जावरा के लिए रवाना होंगे. दलोदा होते हुए 12:00 बजे जावरा से रवाना होकर 1:00 बजे नागदा 3:00 बजे रवाना होकर 5:00 बजे उज्जैन प्रवेश करेंगे. 12 जून रात्रि विश्राम उज्जैन रहेगा. 13 जून को 8:00 बजे उज्जैन से रवाना होकर बड़नगर एवं बदनावर होते हुए धार पहुंचेंगे. जहां से बेटमा होकर 6:00 बजे इंदौर प्रवेश करेंगे 13 जून रात्रि विश्राम इंदौर रहेगा.

14 जून को इंदौर से 8:00 बजे रवाना होकर देवास होते हुए 10:00 बजे देवास से रवाना होकर शाजापुर होते हुए 6:00 बजे गुना पहुंचेंगे 14 जून रात्रि विश्राम गुना रहेगा. 15 जून को प्रातः 8:00 बजे गुना से रवाना होकर शिवपुरी होते हुए 6:00 बजे ग्वालियर पहुंचेंगे. ग्वालियर रात्रि विश्राम राजपूत छात्रावास में होगा. 16 एवं 17 और 18 जून का यात्रा कार्यक्रम ग्वालियर में कार्यरत यात्रा से जुड़े हुए पदाधिकारी पहले ही व्हाट्सएप पर डाल चुके हैं.

क्या है इतिहास
इतिहास पर प्रकाश डालते हुए चित्तौड़गढ़ के वरिष्ठ समाजसेवी डॉक्टर भगवत सिंह तंवर चित्तौड़ी खेड़ा ने बताया कि वर्ष 1526 ईस्वी में पानीपत के युद्ध में बाबर के विरुद्ध इब्राहिम लोदी के पक्ष में दोस्ती के चलते ग्वालियर के तोमर राजा मान सिंह के पुत्र विक्रमादित्य लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. उस समय उनके पुत्र राम सिंह तोमर लगभग 12 वर्ष के थे. बाद में ग्वालियर पर मुगलों का अधिकार हो गया. सन् 1540 में राम सिंह तोमर ने चंबल के बीहड़ों से निकलकर ग्वालियर पर अधिकार की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली. चंबल क्षेत्र के राजपूतों को लेकर सन् 1558 तक अर्थात् लगातार 18 वर्षों तक बार-बार ग्वालियर पर कब्जे का प्रयास किया. 

 जब सफलता नहीं मिली तो अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान, अपनी आन, बान और शान की रक्षा के लिए मेवाड़ (चित्तौड़गढ़) चले गए. जहां मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह ने उन्हें पूरा सम्मान दिया. उनके मुगलों के विरुद्ध लगातार 18 वर्ष के संघर्ष को देखते हुए उन्हें" शाहों का शाह" की उपाधि से सम्मानित किया. तभी से उन्हें राम शाह तोमर कहा जाने लगा. महाराणा ने उन्हें "ग्वालियर के राजा" से संबोधित किया.  अंत तक इसी सम्मान का पात्र बनाए रखा. अपनी एक पुत्री अर्थात राणा प्रताप की एक बहन की शादी राम शाह के बड़े पुत्र शालि वाहन से की.

सन् 1572 में राणा उदय सिंह के स्वर्गवास के समय प्रताप को मेवाड़ के महाराणा की गद्दी पर बिठाने में राम शाह तोमर का महत्वपूर्ण योगदान रहा. 18 जून 1576 को दिल्ली के बादशाह अकबर के विरुद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में भाग लेते समय मेवाड़ की सेना के दाएं भाग का नेतृत्व किया. तोमरों के साथ ही चंबल क्षेत्र के सैकड़ों भदोरिया, सिकरवार, जादौन एवं परमार राजपूतों ने भी युद्ध में भाग लिया था. युद्ध में राम शाह अपने तीन पुत्रों शाली वाहन ,भवानी सिंह एवं प्रताप सिंह के साथ ही अपने प्रमुख सहयोगी दाऊ सिंह सिकरवार, बाबू सिंह भदोरिया एवं सैकड़ों राजपूतों के साथ शहीद हुए. राम शाह का पोता एवं शालीवाहन का पुत्र 16 वर्षीय बलभद्र सिंह भी इसी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ.

हल्दीघाटी में जिस स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया उसे "रक्त ताल" कहा जाता है. राम शाह तोमर एवं उनके पुत्रों की याद में सन् 1624 ईस्वी में मेवाड़ के महाराणा करण सिंह ने शिलालेख लगवाया. दो छतरियां बनवाई, जो आज भी हल्दीघाटी में उस महान बलिदान की याद दिलाती है. इस देश की धरती पर लड़े गए युद्ध में यह एकमात्र ऐसा युद्ध है, जिसमें किसी वंश (तोमर) की तीन पीढ़ी ने एक साथ एक ही दिन एक स्थान पर स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान के लिए आन ,बान और शान के लिए लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की. इतनी बड़ी शहादत और बलिदान को भुला दिया गया. क्योंकि सन् 1558 में राम शाह चंबल क्षेत्र छोड़कर 1000 किलोमीटर दूर मेवाड़ क्षेत्र चले आए, 

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इसलिए चंबल क्षेत्र के लोग उन्हें भूल गए. मेवाड़ और राजस्थान की जनता ने उन्हें याद नहीं रखा. इतिहासकारों ने इतिहास में वह महत्व नहीं दिया, जो दिया जाना चाहिए था. क्योंकि वह बाहर के थे. प्रताप की सेना के बाएं भाग के सेना नायक हकीम खां सूरी, मन्ना झाला और अन्य योद्धाओं को जो प्रसिद्धि इतिहास में मिली उससे अधिक प्रसिद्धि के हकदार राम शाह तोमर थे. यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी." रक्त ताल " में राम शाह तोमर और उनके पुत्रों की छतरियां महाराणा मेवाड़ द्वारा बनवाया जाना इस बात को स्वयं प्रमाणित करता है.

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Reporter-Deepak Vyas

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