महज 119 रुपए प्रतिदिन में काम रही इन महिलाओं की पीड़ा बहुत है लेकिन सुनने वाला कोई नहीं है. कुछ दिनों पहले जयपुर में प्रदर्शन किया तो कई महिलाओं को मुकदमें तक झेलने पड़े.
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Kota: राजस्थान के कोटा के सांगोद में लोगों के इलाज के लिए शहरों में डॉक्टर और ग्राम पंचायतों में नर्स मिल जाती है. लेकिन गांवों में लोगों की सेवा नीली साड़ी वाली डॉक्टर यानि की आशा सहयोगिनी ही कर रही है. कोरोना के खिलाफ लड़ाई की सबसे मजबूत सिपाही रही आशा सहयोगिनी चाहे कड़ी धूप हो या बरसात अपने अधीन गांवों में घर-घर घूमकर बीमार लोगों को ढूंढना और फिर दवा देना इन्हीं के जिम्मे रहता है. मगर हैरानी ये है कि ये महिलाएं सिर्फ 3564 रुपए प्रतिमाह में काम कर रही है.
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नीली साड़ी वाली इन आशा सहयोगिनियों की रोज की न्यूनतम मजदूरी तो छोड़िए इन्हें डेढ़ सौ रुपए रोज भी नहीं मिलते. सरकार के दो मुख्य विभाग चिकित्सा एवं स्वास्थ्य और महिला एवं बाल विकास विभाग के महत्वपूर्ण कार्यो का जिम्मा संभाल रही. ये महिलाएं अपने आप को ठगा सा महसूस कर रही है. आशा सहयोगिनियों की समस्याओं को लेकर चैतन्य हनुमान मंदिर परिसर में संभागीय प्रभारी भगवती जोशी की मौजूदगी में आशा सहयोगिनी प्रकोष्ट की बैठक हुई. जिसमें ब्लॉक अध्यक्ष इन्दिरा वैष्णव ने आशा सहयोगिनियों को हो रही परेशानियों को संगठन पदाधिकारियों के सामने रखा गया और समाधान की मांग की गयी. बैठक में क्षेत्र की सभी आशा कार्यकर्ता मौजूद रही.
काम ऑनलाइन, पर रिचार्ज के पैसे नहीं
महज 119 रुपए प्रतिदिन में काम रही इन महिलाओं की पीड़ा बहुत है लेकिन सुनने वाला कोई नहीं है. कुछ दिनों पहले जयपुर में प्रदर्शन किया तो कई महिलाओं को मुकदमें तक झेलने पड़े. विभाग ने अधिकांश काम ऑनलाइन कर दिए. लेकिन मोबाइल रिचार्ज के पैसे भी नहीं मिलते. मजबूरन इसी नाममात्र की तनख्वाह से रिचार्ज करवाकर विभागीय काम करने पड़ते है. टीकाकरण का भी कोई समय निर्धारित नहीं होने से परेशानी होती है.
बंद दरवाजों तक दस्तक
गांवों में सर्दी बुखार के मरीजों तक दवा पहुंचाने के साथ ही बंद दरवाजों पर दस्तक देना और फिर बीमार लोगों की जांचकर दवा बताने का काम इन्हीं के जिम्मे है. गांव में गर्भवती महिला की देखभाल से लेकर बच्चे के जन्म और बुजुर्गों तक की देखभाल का जिम्मा स्वास्थ्य विभाग और महिला बाल विकास के अधीन काम करने वाली आशा सहयोगिनी का ही होता है. कोरोना काल के दौरान इन महिलाओं का काम सराहनीय रहा.
तीन साल से नहीं मिली साड़ी
गांव में इन्हें नीली साड़ी वाली डॉक्टर भी करते हैं, हालांकि ये जरूरी नहीं कि हर बार नीली साड़ी में ही मिले. क्योंकि सरकार की तरफ से साल में मिलने वाली दो नीली साड़ी इस बार पिछले तीन सालों से नहीं मिली है. इनका दर्द इतना भर नहीं है. न्यूनतम मजदूरी सरकार की तरफ से 300 रुपए घोषित है. मगर इन्हें रोजाना डेढ़ सौ रुपए भी नहीं मिलते. आशा सहयोगिनियों का कहना है कि उन्हें राज्य सरकार का हिस्सा मिलता है. जबकि आंगनबाड़ी की तरह केंद्र सरकार भी अपना हिस्सा दे तो कम से कम छह हजार रुपए के आसपास इनकी भी तनख्वाह हो जाए.