भीमा कोरेगांवः शिवसेना ने दलित नेता प्रकाश आंबेडकर की भूमिका पर उठाए सवाल
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भीमा कोरेगांवः शिवसेना ने दलित नेता प्रकाश आंबेडकर की भूमिका पर उठाए सवाल

प्रकाश आंबेडकर एक तरफ शारदा चिट फंड मामले में कार्रवाई करनेवाले सीबीआई अधिकारी को गिरफ्तार किए जाने पर पश्चिम बंगाल पुलिस की कार्रवाई का समर्थन करते हैं और इधर महाराष्ट्र पुलिस द्वारा भीमा-कोरेगांव मामले में की गई कार्रवाई के प्रति अलग नीति अपनाते हैं. 

फाइल फोटो

मुंबईः शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना के जरिए भीमा कोरेगांव हिंसा के सूत्रधार को दलित एकेडमिक के रूप में प्रचारित करने को लेकर सवाल उठाया है. पार्टी ने लिखा है कि भीमा-कोरेगांव दंगे के सूत्रधार के रूप में पुलिस ने आनंद तेलतुंबडे को पकड़ा है लेकिन तेलतुंबडे को गिरफ्तार करने पर पुणे जिला न्यायालय ने पुलिस को ही अपराधी ठहराया है. किस आधार पर तेलतुंबडे को गिरफ्तार किया गया? सबूत क्या है? ऐसा सवाल पूछते हुए कोर्ट ने तेलतुंबडे को छोड़ दिया. तेलतुंबडे ने गिरफ्तारी से बचने के लिए मुंबई हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की है. उस पर अब न्यायालय ने उन्हें 12 फरवरी तक गिरफ्तार नहीं करने का आदेश दिया है मतलब तेलतुंबडे को और 6 -7 दिनों की ‘राहत’ मिल गई है.

शिवसेना ने आगे लिखा है कि तेलतुंबडे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विचारक हैं, ऐसा ढोल अब पीटा जा रहा है. अंग्रेजी अखबारों ने उनका उल्लेख ‘दलित एकेडमिक’ के रूप में किया है. सच तो यह है कि विचारकों को और बुद्धिमानों को जाति-धर्म और पंथ की उपाधि न लगाई जाए. पेट तथा होशियारी जाति चिपकाने से दिमाग नामक अवयव का अपमान होता है. पुणे के यलगार परिषद के बाद महाराष्ट्र में जातीयता का जहर बोया गया. उसके बाद भीमा-कोरेगांव का दंगा हुआ. महाराष्ट्र में इस तरह जहरीला जाति उद्रेक कभी नहीं हुआ था. इसमें आम आदमी झुलस गया. डॉ. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर इस आग में तेल डालकर मामले को क्यों भड़का रहे थे और उन्हें निश्चित तौर पर क्या करना था? वो अनाकलनीय था. फिर भी महाराष्ट्र को जलाने की साजिश नक्सलवादी एकता में पकी और उसके पीछे खुद कवि, लेखक, बुद्धिमान कहलाने वाले लोगों का वैचारिक दिमाग था. यलगार परिषद के पर्दे के पीछे सूत्र हिलाने के आरोप तले तेलतुंबडे सहित तेलुगू लेखक वरवरा राव, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण परेरा, वर्नोन गोंसाल्विस और सुधा भारद्वाज को जनवरी माह में नजरबंद रखा गया था.

इस कार्रवाई के बाद भी देश के दिखावटी बुद्धिमानों ने इस तरह कोहराम मचाया जैसे आसमान गिर पड़ा हो और देश डूब जाएगा, ऐसा माहौल बनाया गया. अदालत ने इन सभी लोगों को गिरफ्तारी से अस्थायी रूप से सुरक्षा दी है. अब तेलतुंबडे के बारे में भी यही हुआ है. तो क्या पुलिस कुछ न करते हुए, ‘हाथ बांधकर मुंह पर उंगली रखकर’ चुपचाप बैठी रहे? इन बुद्धिमानों द्वारा किया गया जहरीला प्रचार और उनके भाषण को पुलिस ने सबूत के रूप में प्रस्तुत किया है. ये सारे लोग देश अस्थिर करने के पीछे के सूत्रधार थे. ऊपर से पढ़े-लिखे होने से और बड़े लोगों में उठने-बैठने के कारण उनके इर्द-गिर्द प्रतिष्ठा का एक वलय बन गया था. प्रशासन, न्याय व्यवस्था, शैक्षणिक क्षेत्र में अपने संबंध बनाकर खुद के इर्द-गिर्द कवच कुंडल का निर्माण किया था और उसी का फायदा उठाकर ये लोग देश में नक्सलवाद और माओवाद का विध्वंसक विचार बो रहे थे. 

इन अर्थों में इन लोगों को आतंकवाद का प्रायोजक या प्रचारक कहा जाना चाहिए और आनंद तेलतुंबडे पर यही आरोप है. दूसरे कुछ तथाकथित विचारकों के खिलाफ भी यही आरोप है. विचारक होने के बावजूद आपको भी कानून का सामना करना पड़ेगा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मतलब आतंकवादी, ऐसा प्रकाश आंबेडकर तथा उनके साथी कहते हैं. उनका साथी मतलब हैदराबाद का ओवैसी है और यही लोग कन्हैया कुमार, तेलतुंबडे, जिग्नेश मेवानी का समर्थन करते हैं. संघ प्रखर रूप से राष्ट्रवादी है. उसने चीन, रशिया, पाकिस्तान में समझदारी गिरवी नहीं रखी है और अंतर्राष्ट्रीय ‘स्कॉलर्स’ का लेबल लगाकर वे फालतू यलगार नहीं करते. इस अंतर को समझना होगा. हिंदुत्व का द्वेष ही इन लोगों का विचार है और यही विचारक अंतर्राष्ट्रीय मंच पर जाकर देश की बदनामी कर रहे हैं. प्रोफेसर तेलतुंबडे ‘स्कॉलर’ हैं. बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर भी स्कॉलर थे और उन्होंने ब्रिटिश सरकार को पलटने की साजिश रची. इसी के लिए वीर सावरकर को आज भी आतंकवादी आदि ठहराकर अपमानित किया जाता है.

सावरकर जैसों ने विदेशी सत्ता को पलटने की साजिश रची थी लेकिन ‘यलगार’वालों को स्वतंत्र हिंदुस्थान में उत्पात मचाना था, इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए. प्रकाश आंबेडकर एक तरफ शारदा चिट फंड मामले में कार्रवाई करनेवाले सीबीआई अधिकारी को गिरफ्तार किए जाने पर पश्चिम बंगाल पुलिस की कार्रवाई का समर्थन करते हैं और इधर महाराष्ट्र पुलिस द्वारा भीमा-कोरेगांव मामले में की गई कार्रवाई के प्रति अलग नीति अपनाते हैं. महाराष्ट्र में भीमा-कोरेगांव के जरिए जो उत्पात मचाया गया उसके कारण समाज विभाजित हुआ है और इस तरह की विषमता के बीज बोनेवाली कविता और साहित्य का निर्माण करना तथा प्रसारित करना इस तरह के उत्पात के लिए निधि जमा करना इन माओवादी विचारकों का कार्य बन गया है.

अलकायदा तथा ‘यलगार’ छाप विचारकों की कार्यशैली एक ही है. पुलिस प्रशासन और कानून पर निरंतर हमला करना, सरकार पर प्रश्नचिह्न लगाना, व्यवस्था के मनोधैर्य को तोड़कर उसे लंगड़ा बनाने की अलकायदा की रणनीति है. यलगारवालों की भी यही नीति है. सामूहिक हत्याकांड, भ्रष्टाचार, हत्या जैसे आरोपों से अपराधी छूट जाते हैं इसलिए वे निर्दोष ही होते हैं, ऐसा नहीं है. प्रोफेसर तेलतुंबडे के लिए छाती पीटनेवालों को यह बात समझनी होगी. कुछ तो भयंकर देश विरोधी पक रहा है. पुलिस को ही आरोपी बनाना उस साजिश की शुरुआत है. पुलिस के समर्थन में मजबूती से खड़े रहने का यही समय है.

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